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बातें उर्दू अदब की : अवध की तहज़ीब और उर्दू अदब की रौशनी, नवाबों का दौर और जश्ने-चारागाँ की चमक

 

इमरोज़ नदीम 

RNE Special.

( आज से हम साहित्य का ये नया कॉलम ' उर्दू अदब की बातें ' शुरु कर रहे है। इस कॉलम को लिख रहे है युवा रचनाकार इमरोज नदीम। इस कॉलम में हम उर्दू अदब के अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। ये कॉलम केवल उर्दू ही नहीं अपितु पूरी अदबी दुनिया के लिए नया और जानकारी परक होगा। इस साप्ताहिक कॉलम पर अपनी राय रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस ( RNE ) को जरूर दें। अपनी राय व्हाट्सएप मैसेज कर 9672869385 पर दे सकते है। -- संपादक )
 
                                                                                                                   अवध के नवाब और जश्ने-चारागाँ

उर्दू अदब की जब भी बात होती है, अवध का ज़िक्र ज़रूर आता है। यह ज़िक्र सिर्फ़ एक सूबे या रियासत का नहीं, बल्कि एक पूरी तहज़ीब, एक अदबी रवायत, और एक नफ़ासत-भरी ज़िंदगी का है। लखनऊ, जो अवध की राजधानी थी, वो सिर्फ़ शहर नहीं बल्कि “ज़ुबान की मिठास और अदब की नर्मी” का दूसरा नाम था। यहाँ के नवाबों ने उर्दू ज़ुबान को वो ऊँचाई दी, जिसने उसे हिंदुस्तान की मोहब्बत और तहज़ीब की ज़ुबान बना दिया।

 अवध के नवाब और उर्दू तहज़ीब:

अवध के नवाब — ख़ास तौर पर नवाब आसिफ़-उद्दौला, सआदत अली ख़ाँ, और नवाब वाजिद अली शाह — उर्दू अदब के सबसे बड़े सरपरस्त माने जाते हैं। उनके दौर में सिर्फ़ सियासत नहीं, बल्कि शायरी, संगीत, रक्स़ (नृत्य), और फ़नून-ए-लतीफ़ा (कला) को भी ज़बरदस्त उरूज मिला।

वाजिद अली शाह का दौर उर्दू के लिए “ज़रीन ज़माना” कहा जाता है। वो खुद भी शायर थे — उनका तख़ल्लुस “अख़्तर” था। उन्होंने ना सिर्फ़ शायरी की बल्कि उर्दू ड्रामे और थिएटर को भी नई पहचान दी। उन्होंने “रहस” और “दरामा-ए-ख़याल” जैसे अदबी प्रयोग किए, जो आगे चलकर उर्दू रंगमंच की बुनियाद बने।
 

उनके दरबार में हर शाम एक महफ़िल होती थी — कहीं ग़ज़ल का आलाप, कहीं तबले की थाप, और कहीं रक़्स की झंकार। यही वो दौर था जब मीर, सौदा, इंशा, और दबीर जैसे शायरों की नज़्में अवध की फिज़ा में गूँजती थीं।
 

जश्ने-चारागाँ — रौशनियों का उत्सव:

अवध की तहज़ीब में “जश्ने-चारागाँ” यानी “रोशनियों का त्योहार” एक अद्भुत और हसीन रिवायत थी। जब यह जश्न मनाया जाता, तो पूरा लखनऊ दीयों, फ़ानूसों और रोशनियों से जगमगा उठता। ऐसा लगता मानो ज़मीन पर आसमान उतर आया हो।

नवाब वाजिद अली शाह के ज़माने में यह सिर्फ़ एक त्योहार नहीं, बल्कि फ़न और ख़ूबसूरती का इज़हार था। हर महल, हर चौबारा, हर गली में दीयों की कतारें सजी होतीं। शायर इस मौके पर नूर, चाँदनी और दीयों पर अशआर कहते थे।

कुछ शेर उस रूहानी रौशनी को बयान करते हैं  “चरागाँ कर दिया दिल ने तेरी यादों के मौसम में,
कि जैसे ख़्वाब की महफ़िल हो, या जादू की कोई शाम।”


और एक पुराने शायर ने कहा था  “लखनऊ का जश्ने-चारागाँ है, हवा में ख़ुशबू है,
हर दर-ओ-दीवार कहता है, ये शहर-ए-नाज़-ओ-अदा है।”

 उर्दू अदब पर अवध का असर:

अवध ने उर्दू को सिर्फ़ एक ज़ुबान नहीं, बल्कि एक तहज़ीबी एहसास दिया। यहाँ की बोली में मिठास, लहजे में अदब, और जुमलों में मोहब्बत घुली हुई थी। “तुम” की जगह “आप”, “मैं” की जगह “ख़ाकसार”, और “महबूब” की जगह “जान-ए-मन” कहना — यही वो नर्मी थी जिसने उर्दू को तहज़ीब की ज़ुबान बना दिया ।
अवध के नवाबों ने अदब की जो रौशनी जलाई, वो आज भी उर्दू की शक्ल में जल रही है। जश्ने-चारागाँ की वो चमक आज भी उर्दू अदब के हर लफ़्ज़ में झलकती है।

 अवध, उसके नवाब, जश्ने-चारागाँ और रामायण की तहज़ीब:

उर्दू अदब की कहानी में अवध का नाम एक चमकते हुए सितारे की तरह है। यह वह ज़मीन है जहाँ ज़ुबान में मिठास, शायरी में नफ़ासत, और इंसानियत में मोहब्बत घुली हुई है। लखनऊ और फ़ैज़ाबाद — ये दोनों शहर उर्दू के साथ-साथ हिंदुस्तानी तहज़ीब के आईने हैं।
 

अवध की तहज़ीब — एक ज़िंदा मोहब्बत:

अवध सिर्फ़ एक इलाक़ा नहीं, बल्कि एक जीती-जागती तहज़ीब है। यहाँ “सलाम” और “आदाब” दोनों एक साथ बोले जाते हैं; यहाँ मंदिर की घंटी और मस्जिद की अज़ान की आवाज़ें एक-दूसरे में रची-बसी हैं।
अवध की तहज़ीब की सबसे बड़ी ख़ासियत थी  एहतराम और अदब। यहाँ बड़े-छोटे का ख़याल, बात करने का अंदाज़, पहनावे का अंदाज़, और ज़ुबान की मिठास ने उर्दू को वह शायरी दी जो दिल को छू जाती है।

एक शायर ने कहा था  “लखनऊ की हवा में तहज़ीब घुली है ऐसी,
बोलो तो नज़्म बन जाओ, चुप रहो तो ग़ज़ल हो।”

अवध के नवाबों, ख़ासकर नवाब वाजिद अली शाह के ज़माने में “जश्ने-चारागाँ” एक अनूठा त्योहार था। उस दिन पूरा लखनऊ जैसे एक नूर में नहा जाता था। हर गली, हर दरवाज़े पर दीए, चिराग़ और फ़ानूस सजते थे।
यह जश्न सिर्फ़ रोशनी का नहीं था, बल्कि इत्तेहाद और मोहब्बत का प्रतीक था। हिंदू और मुसलमान दोनों मिलकर इसे मनाते थे। यही थी अवध की असली रूह — साझी संस्कृति, यानी गंगा-जमुनी तहज़ीब।

अवध और रामायण — जब उर्दू ने मर्यादा को ज़ुबान दी:

बहुत कम लोग जानते हैं कि रामायण का एक उर्दू अनुवाद भी अवध के दौर में हुआ था।
नवाब आसिफ़-उद्दौला और बाद में वाजिद अली शाह के ज़माने में उर्दू के कई विद्वानों ने रामकथा को उर्दू में बयान किया, ताकि हर तबके के लोग उस संदेश को समझ सकें जो श्रीराम के जीवन में छिपा है — सत्य, मर्यादा और करुणा।

19वीं सदी में मौलवी अब्दुल हलीम “शरर” और अन्य उर्दू अदबी हस्तियों ने “रामायण-ए-उर्दू” लिखी। इसने साबित किया कि उर्दू सिर्फ़ एक मज़हबी ज़ुबान नहीं, बल्कि इंसानियत की ज़ुबान है।

अवध के शायरों ने लिखा  “राघव की राह इंसानियत की मिसाल है,
लफ़्ज़ चाहे कोई भी हों, मतलब कमाल है।”

लखनऊ की गलियों में “रामलीला” और “मुहर्रम” दोनों साथ-साथ मनाए जाते थे — यही अवध की गंगा-जमुनी तहज़ीब की असली तस्वीर थी।

 उर्दू अदब — मोहब्बत की ज़ुबान:

उर्दू ने अवध की उसी तहज़ीब से सीखा कि ज़ुबान की खूबसूरती लफ़्ज़ों में नहीं, लहजे में होती है।
यहाँ “मोहब्बत” सिर्फ़ एक एहसास नहीं बल्कि जीवन का उसूल था।
अवध के उर्दू शायरों ने इसी तहज़ीब को अपने कलाम में पिरोया ।“हमने सीखा लखनऊ से अदब का हुनर,
लब पे नर्मी, दिल में नूर, और नज़र में असर।”


अवध की तहज़ीब ने उर्दू को इंसानियत की ज़ुबान, रामायण को साझी संस्कृति का प्रतीक, और जश्ने-चारागाँ को रोशनी और मोहब्बत की निशानी बना दिया।
यही वो धरती है जहाँ “राम नाम” और “अल्लाहो अकबर” दोनों की सदाएँ एक साथ गूँजती रहीं।

अवध की मिट्टी ने उर्दू को वह दिल दिया,
जो हर मज़हब से पहले मोहब्बत पर यक़ीन करता है।

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