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ग़ालिब, मीर और इंशा की विरासत: अमीरुद्दौला लाइब्रेरी के बेशुमार ख़ज़ाने की दास्तान

 

RNE LUCKNOW.

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लखनऊ की फ़िज़ाओं में जब तहज़ीब की नर्मी, अदब की ख़ुशबू और इल्म की रूहानी चमक एक साथ मिलती है, तो अमीरुद्दौला पब्लिक लाइब्रेरी अपने शानदार अतीत और ज़िंदा विरासत के साथ सामने खड़ी मिलती है। यह सिर्फ़ एक लाइब्रेरी नहीं, बल्कि अदब की एक सदी से ज़्यादा पुरानी अमानत है, जिसने नवाबी दौर की रौनक, ब्रिटिश हुकूमत की झलक और आज़ादी के बाद के इल्मी सफ़र—सबको देखा है
स्थापना और विरासत
अमीरुद्दौला लाइब्रेरी की तामीर सन् 1868 में मुकम्मल हुई थी, और सन् 1887 में इसे आम ओ ख़ास के लिए खोला गया । इसका नाम तत्कालीन अव्वल दर्जे के मुंतज़िम और अवामी सेवक जनाब अमीर-उद-दौला के नाम पर पड़ा। यह वही दौर था जब लखनऊ दुनिया भर में अपनी नफ़ासत, अदब-पसंदी और इल्म-दोस्ती के लिए मशहूर था। लाइब्रेरी को तामीर करवाया गया ताकि आम लोग ख़ासकर तालीम के दीवाने इल्मो अदब की रौशनी तक बे-रोक पहुँचे।
अमीरुद्दौला लाइब्रेरी अपने बेशुमार किताबों और इल्मो अदब के ख़ज़ाने के लिए तो दुनिया में मशहूर ओ मकबूल हैं ही लेकिन इसकी इमारत किसी महल से कम नहीं है इस सफेद रंग की इमारत का जब कोई दीदार करे जो लिहाजा तौर पर उसकी आंखों को ठंडक और दिल को करार नसीब होता हैं । अमीरुद्दौला लाइब्रेरी की सफेद इमारत किसी सपनों के महल जैसी ही है । दो तरफ से नीचे उतरती हुई सीढ़ियां । अंदर दाखिल होते ही एक बड़ा हॉल जहां सिर्फ किताबों की महक । मानो यहां वक़्त ठहर सा गया हो । चारों ओर फैली सिर्फ ख़ामोशी और सुकून । 
आज यह इमारत हुसैनीआबाद ट्रस्ट के अंतर्गत एक आलमी दर्जे की लाइब्रेरी मानी जाती है, जिसके पास 2.5 लाख से ज़्यादा किताबों का अनमोल ख़ज़ाना है। इसमें उर्दू, फ़ारसी, अरबी, हिंदी, संस्कृत , बंगाली और अंग्रेज़ी—और दीगर ज़बानो की किताबें यहां मौजूद है ।
अमीरुद्दौला पब्लिक लाइब्रेरी यह लखनऊ के सबसे पुराने सार्वजनिक पुस्तकालयों में से एक है जो अपनी अदबी खिदमात के लिए जानी जाती है। 80,000 से ज्यादा डिजिटाइज्ड किताबें और 27,000 ई-पत्रिकाएं अब लाइब्रेरी की वेबसाइट पर मुफ्त दस्तियाब हैं तथा यह सामग्री मोबाइल ऐप लखनऊ डिजिटल लाइब्रेरी पर भी उपलब्ध है।
अदब का खज़ाना 
अमीरुद्दौला लाइब्रेरी, अदब के तालिबों के लिए किसी ख़ज़ाने से कम नहीं। यहाँ मौजूद असल नुस्ख़े, पुराने इशाअते, और दुर्लभ मजमूए अदब की दुनिया में बेशकीमती हैं।
यहाँ आपको— मीर तकी मीर, मिर्ज़ा ग़ालिब, इब्न-ए-इंशा, फ़िराक़ गोरखपुरी, अमीर मिनाई, नज़ीर अकबराबादी, रहीम और रसखान के उर्दू तर्जुमा, जैसे बेशुमार उस्तादों की किताबें सबसे पुराने और बेहतरीन शक्लों में मिलती हैं।
बहुत-सी किताबें ऐसी हैं जो अब बाज़ार में मिलना नामुमकिन हैं—मगर अमीरुद्दौला लाइब्रेरी में वो पूरी इज्ज़त और हिफ़ाज़त के साथ मौजूद हैं।  इसकी शुरुआत 1887 में की गई थी और आज तालिब ए इल्म को यहां कम फीस पर अदबी ख़िदमात फ़राहम की जाती हैं 
हस्तलिखित नुस्खों की दुनिया
यहाँ हजारों की तादाद में हस्तलिखित (मैन्युस्क्रिप्ट) मौजूद हैं—काग़ज़, चमड़े, और हाथ से रंगे गए पुराने सफ़हों पर। इनमें फ़ारसी देवान, तफ़सीर, तसव्वुफ़ और क्लासिक उर्दू दास्तानें शामिल हैं। कुछ नुस्ख़ों की इबारत इतनी बारीक और नफ़ीस है कि देखने वाला दंग रह जाए।
तालीम और तहज़ीब का मरकज़
लखनऊ शुरू से ही उर्दू अदब की राजधानी रहा है—जबकि अमीरुद्दौला लाइब्रेरी इसकी इल्मी राजधानी की तरह काम करती है।
यहाँ रोज़: तलबा ,रिसर्च स्कॉलर , अदबी तबक़ा, शायर और उर्दू ज़बान के मुहिब्बीन अपना-अपना सफ़र जारी रखते हैं। कई बड़े उर्दू शोअरा, आलोचक और मुहक़्क़िक़ीन ने अपनी रिसर्च का सफर यहीं से शुरू किया।
लखनऊ की तहज़ीब की गवाही
अमीरुद्दौला लाइब्रेरी की इमारत अपने आप में एक शाहकार है — ऊँची छतें, पुरानी लकड़ी की अलमारियाँ, ब्रिटिश स्थापत्य का नफ़ीस रंग, और नवाबी रौनक की झलक। इमारत का हर कोना बताता है कि कभी लखनऊ में इल्म और अदब का एसा दौर था जहाँ किताबों को जायदाद की तरह समझा जाता था।
आज लाइब्रेरी डिजिटलाइज़ेशन की तरफ़ बढ़ रही है। पुरानी किताबों की स्कैनिंग, रिसर्च सुविधाएँ, और मॉडर्न रीडिंग हॉल—ये सब इसे वक़्त के साथ जुदा हुआ एक पुर-शान मरकज़ बनाते हैं। उर्दू अदब के चाहने वालों के लिए यह लाइब्रेरी सिर्फ़ एक जगह नहीं, बल्कि ज़िंदगी भर का एक तजुर्बा है।
अमीरुद्दौला पब्लिक लाइब्रेरी, लखनऊ—उर्दू अदब की उस रौशन शमअ का नाम है जिसकी लौ सौ साल बाद भी कम नहीं हुई। यह विरासत, तहज़ीब, तालीम और उर्दू मोहब्बत का एक अज़ीम निज़ाम है, जिसे आने वाली नस्लों तक पहुँचाना हमारी जिम्मेदारी है।
अगर कोई कहे कि लखनऊ के दिल में उर्दू की धड़कन आज भी जिंदा है—तो उसकी सबसे मजबूत धड़कन यही लाइब्रेरी हैं।
[हमने साहित्य का ये नया कॉलम ' उर्दू अदब की बातें ' शुरु किया हुआ है। इस कॉलम को लिख रहे है युवा रचनाकार इमरोज नदीम। इस कॉलम में हम उर्दू अदब के अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। ये कॉलम केवल उर्दू ही नहीं अपितु पूरी अदबी दुनिया के लिए नया और जानकारी परक होगा। इस साप्ताहिक कॉलम पर अपनी राय रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस ( RNE ) को जरूर दें। अपनी राय व्हाट्सएप मैसेज कर 9672869385 पर दे सकते है।
-- संपादक ] 

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