Movie prime

अबू उस्मान अम्र बिन बहर : किताबों का वह दीवाना जिसका इश्क़ उसकी मौत बन गया

 

इमरोज़ नदीम 

RNE Special.

( हमने साहित्य का ये नया कॉलम ' उर्दू अदब की बातें ' शुरु किया हुआ है। इस कॉलम को लिख रहे है युवा रचनाकार इमरोज नदीम। इस कॉलम में हम उर्दू अदब के अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। ये कॉलम केवल उर्दू ही नहीं अपितु पूरी अदबी दुनिया के लिए नया और जानकारी परक होगा। इस साप्ताहिक कॉलम पर अपनी राय रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस ( RNE ) को जरूर दें। अपनी राय व्हाट्सएप मैसेज कर 9672869385 पर दे सकते है। -- संपादक )

अबू उस्मान अम्र बिन बहर — किताबों का वह दीवाना जिसका इश्क़ उसकी मौत बन गया ।

 इल्म व अदब की रंगीन दुनिया में कई नाम आए और गए, मगर कुछ शख्सियतें ऐसी हुईं जिनकी ज़िंदगी किताब बन गई और मौत भी किताबों की ही एक इबारत। इन्हीं अजूबा हस्तियों में एक नाम है — अबू उस्मान अम्र बिन बहर बिन महबूब अल-कनानी, जिसे दुनिया जाहिज़ के नाम से जानती और सलाम करती है।

बसरा की गलियों में 9 दिसम्बर 776 को एक ऐसा बच्चा पैदा हुआ, जो  गरीबी, बदसूरती, तन्हाई—हर मुसीबत को मात देकर सिर्फ अपने इल्म के दम पर  अमर हो गया। मां ने अपने हाथों की मेहनत से पाला। वही मां जिसने शायद कभी सोचा भी नहीं होगा कि यह बदसूरत-सा बच्चा इल्म  की दुनिया का फख्र बन जाएगा।
 

जाहिज़ की सूरत आम नहीं थी। आंखें बाहर निकली हुई—लोग देखकर चौंक जाते और इसी वजह से उसे “जाहिज़” कहकर बुलाने लगे। यही नाम बाद में इतना मशहूर हुआ कि असल नाम तक लोग भूल गए।
 

गरीबी की मार ऐसी कि कम उम्र में ही मछुआरे के यहां काम करना पड़ा, लेकिन दिल में कहीं एक चिंगारी थी—इल्म की प्यास। मजदूरी की धूल और थकान के बीच किताबों की खुशबू उन्हें किसी अलौकिक दुनिया में ले जाती। मगर किताबें पढ़ना आसान कहां था? गरीब थे, खरीदना नामुमकिन था। तभी उन्होंने तदबीर निकाली एक किताबों की दुकान पर पार्ट-टाइम काम कर लिया। तनख्वाह कम थी, मगर वहां किताबें थीं ।बस वही उनके लिए दुनिया का सबसे बड़ा खजाना था।
 

कुछ ही दिनों में दुकान के मालिक से रात में रुकने की इजाज़त ले ली। उन्होंने कहा, “मैं किताबें जमाकर रख दिया करूंगा।”
 

अब तो आलम कुछ और था ।

रात के सन्नाटे में एक तरफ वह, दूसरी तरफ किताबों का हुजूम और बीच में जलती हुई रूमानियत।
 

जाहिज़ कहते थे, “मैं एक-एक रात में दो-दो किताबें खत्म कर लिया करता।”
 

किताबें पढ़ते-पढ़ते उनके ज़हन की दीवारें टूटती गईं, फलक खुलते गए। कोई विषय ऐसा नहीं था जिस पर वह बात न कर सकें। लोग कहते—“यह चलता फिरता इंसाइक्लोपीडिया है। इसे जो पूछो, जवाब तैयार।”
फिर उन्होंने लिखना शुरू किया और ऐसा लिखा कि दुनिया दंग रह गई।

 

कहा जाता है उन्होंने 360 से ज़्यादा किताबें लिखीं। दीन, फ़लसफ़ा, अदब, तिब्ब, मुआशरा, जानवर, इंसान, कंजूस, बहादुर—कौन-सा ऐसा गोशा था जिसे उन्होंने छोड़ा?
 

अरबी साहित्य में आज भी उनकी किताबें सिर्फ मुताला नहीं, बल्कि सोर्स मटीरियल मानी जाती हैं रिफरेंस की मानिंद।
 

उनकी किताब अल-हैवान अपने जमाने में इल्म-उल-हयात पर एक बेजोड़ दस्तावेज़ थी। कई मोहक्किकीन का दावा है कि उसमें जो ख्यालात दर्ज हैं, वे डार्विन की थियोरी से सदियों पहले “इवोल्यूशन” की बुनियाद रखते हैं।
उनका फ़लसफ़ा इतना असरदार हुआ कि एक पूरा मत उनके नाम से मशहूर हुआ—जाहिज़िया।

 

जाहिज़ की शोहरत जब बढ़ी तो अब्बासी खलीफा मुतवक्किल के कानों तक पहुंची। उसने चाहा कि उसके बेटे इतने बड़े आलिम के हाथों तालीम पाएँ। जहाज़ को बुलावा भेजा गया। वह दरबार में पहुंचे। खलीफा ने जैसे ही उन्हें देखा उनकी उभरी हुई आंखें, लम्बी-पतली गर्दन, बदसूरत चेहरे पर ज़िदगी की थकावट वह चौंक गया।
 

बात तालीम की होनी थी, मगर खलीफा ने बस हाल-चाल पूछा और दस हज़ार दिरहम बतौर इनाम देकर रुख़सत कर दिया।
 

जाहिज़ ने दरबार से बाहर निकलते हुए हंसकर कहा:
 

“खलीफा ने मुझसे अपने बच्चों की हिफाज़त कर ली—मेरी शक्ल देखकर!”
उनकी ज़िंदगी का असली इश्क़  किताबें आखिरी सांस तक बना रहा।

 

नब्बे साल की उम्र, बदन फालिज से निढाल, मगर किताबों से फासला गवारा नहीं था। एक दिन लाइब्रेरी पहुंचे, एक किताब ढूंढने लगे। ना मिली। किसी को आवाज़ दी, उसने सुना नहीं।
 

वह खुद रैक पकड़ कर आगे बढ़े।
 

अचानक ऊपर रखी किताबें टूटकर उनके ऊपर आ गिरीं। वही किताबें जिन्हें वह जिंदगी भर छाती से लगाए रहे उन्हीं के बोझ तले उनका दम निकल गया।
 

लोगों ने कहा—
 

“जिंदगी भर किताबों ने उन्हें जीने का सहारा दिया, मौत में किताबों ने ही उन्हें अपनी आगोश में ले लिया।”
यह दुनिया मजनूं, फ़रहाद, रांझा जैसे मुहब्बत के दीवानों से भरी पड़ी है,
लेकिन किताबों के इश्क़ का दीवाना सिर्फ एक था—जाहिज़।
उसने किसी हसीना की जुल्फ़ों में खोने के बजाय किताबों के पन्नों में डूबने को इश्क़ कहा।
उसने इल्म को महबूब बनाया और मेहनत को मार्गदर्शक।
आज सदियां गुजर जाने के बाद भी उसका नाम इसलिए जिंदा है कि उसने साबित किया
“जिसने किताबों से दोस्ती कर ली, उसने दुनिया से बेनियाजी सीख ली।”

f

उनकी कुछ अहम किताबें जिन पर आज भी दुनिया गर्व करती है—
 

  • अल-बयान वत-तबीइन
  • अल-बुख़ला (कंजूसों पर बेमिसाल तफसीर)
  • अल-हैवान
  • अल-रसाइल
  • फ़जाइलुल-तुर्क
  • मनाक़िबुस-सूदान

अदब, नफ़्सियात, मुआशरा और इल्म-उल-हयात पर दर्जनों दुसरे मक़ाला
 

जाहिज़ का वारिस कोई एक जमाना नहीं—हर वह इंसान है जो किताबों से मोहब्बत करता है।
 

ज़िंदगी में एक बार उसका नाम पढ़ लेना भी अक्सर दिल में यह यक़ीन जगा देता है कि गरीबी, बदसूरती, मज़दूरी कुछ भी इंसान को रोक नहीं सकता, अगर उसके पास किताबों की रोशनी हो।

FROM AROUND THE WEB