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उर्दू अदब में इंतज़ार : मोहब्बत, हिजरत, तहज़ीब और वक़्त का साहित्य

 

बातें उर्दू अदब की

इमरोज़ नदीम 

RNE Special.

( हमने साहित्य का ये नया कॉलम ' उर्दू अदब की बातें ' शुरु किया हुआ है। इस कॉलम को लिख रहे है युवा रचनाकार इमरोज नदीम। इस कॉलम में हम उर्दू अदब के अनछुए पहलुओं को पाठकों के सामने लाने की कोशिश करेंगे। ये कॉलम केवल उर्दू ही नहीं अपितु पूरी अदबी दुनिया के लिए नया और जानकारी परक होगा। इस साप्ताहिक कॉलम पर अपनी राय रुद्रा न्यूज एक्सप्रेस ( RNE ) को जरूर दें। अपनी राय व्हाट्सएप मैसेज कर 9672869385 पर दे सकते है। -- संपादक )

उर्दू अदब की रूह अगर किसी एक जज़्बे में समाई हुई है, तो वह जज़्बा इंतज़ार है। उर्दू अदब में इंतज़ार किसी क्षणिक भावना का नाम नहीं, बल्कि एक मुकम्मल जीवन-दृष्टि है। यहाँ इंसान सिर्फ़ किसी के आने का इंतज़ार नहीं करता, बल्कि अपने भीतर पैदा हो रहे अर्थों के पूरा होने का इंतज़ार करता है। यही वजह है कि उर्दू अदब पढ़ते हुए पाठक को यह एहसास होता है कि वह किसी कहानी या शेर से नहीं, अपने ही तजुर्बे से रू-ब-रू है।
 

उर्दू की तहज़ीब में जल्दबाज़ी कभी कोई क़ीमत नहीं रही। यहाँ जज़्बात उफान नहीं मारते, बल्कि धीरे-धीरे रिसते हैं। यही रिसाव इंतज़ार को जन्म देता है। उर्दू का आशिक़ शोर नहीं मचाता, वह जानता है कि हर दस्तक दरवाज़ा नहीं खोलती, और हर पुकार का जवाब नहीं आता। इसी एहसास ने उर्दू शायरी को वह गहराई दी है, जो उसे सतही रोमांटिक साहित्य से अलग करती है।

मीर तकी मीर के यहाँ इंतज़ार जीवन की स्थायी अवस्था है। मीर का आदमी किसी मोड़ पर खड़ा नहीं, वह तो पहले से ही टूटा हुआ है। वह किसी वादे पर भरोसा नहीं करता, फिर भी इंतज़ार छोड़ नहीं पाता। यही विरोधाभास मीर को कालजयी बनाता है। मीर की शायरी में इंतज़ार रोने का बहाना नहीं, बल्कि जीते रहने की मजबूरी है

इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या,
आगे आगे देखिए होता है क्या।

यहाँ “आगे” कोई मंज़िल नहीं, बल्कि इंतज़ार का फैलता हुआ वक़्त है।

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ग़ालिब के यहाँ इंतज़ार और भी जटिल हो जाता है। वे महबूब से ज़्यादा अपने सवालों के क़ैदी हैं। ग़ालिब जानते हैं कि कुछ सवालों के जवाब मिल जाएँ, तो ज़िंदगी शायद आसान हो जाए—मगर वे आसान ज़िंदगी नहीं चाहते। वे कठिन सवालों के साथ जीना चुनते हैं

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है,
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है।

यह सवाल दरअसल इंतज़ार का ही दूसरा नाम है ,दवा का इंतज़ार, राहत का इंतज़ार, मगर बिना किसी गारंटी के।
 

उर्दू शायरी में जुदाई को इतनी अहमियत इसलिए मिली, क्योंकि जुदाई एक पल नहीं, एक दौर है। मिलन क्षणिक है, मगर इंतज़ार दीर्घकालीन। उर्दू ने लम्हे को नहीं, अवधि को चुना है। शायद इसी कारण उर्दू शायरी पढ़ते हुए वक़्त ठहर-सा जाता है।
 

तरक़्क़ीपसंद तहरीक के साथ इंतज़ार ने सामाजिक और सियासी अर्थ ग्रहण किए। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने इंतज़ार को बेबसी से निकालकर प्रतिरोध में बदल दिया। उनके यहाँ इंतज़ार हार नहीं, बल्कि तैयारी है—

मताअ-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है,
कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने।

 

यह इंतज़ार कलम के लौटने का नहीं, उस दिन के आने का है जब सच लिखना फिर मुमकिन होगा।
 

उर्दू अफ़साने में इंतज़ार और भी निर्मम हो जाता है। मंटो के किरदार किसी नतीजे की उम्मीद नहीं करते, फिर भी कहानी के आख़िर तक पहुँच जाते हैं। मंटो इंतज़ार को तोड़ते नहीं, उसे अधूरा छोड़ देते हैं—क्योंकि अधूरापन ही यथार्थ है। पाठक जब कहानी ख़त्म होने के बाद भी बेचैन रहता है, वही बेचैनी असल में इंतज़ार का अदबी रूप है।
 

बँटवारे के बाद का उर्दू अदब इंतज़ार का सबसे बड़ा दस्तावेज़ है। लोग सिर्फ़ सरहद पार गए अपनों का इंतज़ार नहीं कर रहे थे, वे अपने शहरों, गलियों, आँगनों और उस ज़िंदगी का इंतज़ार कर रहे थे, जो अब नक़्शे पर मौजूद नहीं थी। क़ुर्रतुलऐन हैदर के यहाँ यह इंतज़ार पीढ़ियों तक खिंच जाता है। उनके क़िरदार जानते हैं कि वापसी मुमकिन नहीं, फिर भी याद को छोड़ नहीं पाते।
 

इस तहज़ीबी इंतज़ार को नासिर काज़मी ने बड़ी ख़ामोशी से कहा

दिल तो मेरा उदास है नासिर,
शहर क्यों सारा उदास है।

यह उदासी दरअसल इंतज़ार की सामूहिक शक्ल है।

आज के डिजिटल दौर में, जहाँ हर चीज़ तुरंत चाहिए, उर्दू अदब का यह इंतज़ार और भी ज़रूरी हो जाता है। उर्दू हमें याद दिलाती है कि हर सवाल का जवाब सर्च बॉक्स में नहीं मिलता। कुछ जवाब उम्र माँगते हैं, कुछ ख़ामोशी, और कुछ सिर्फ़ सब्र।
 

उर्दू अदब हमें यह भी सिखाता है कि हर ज़ख़्म भरता नहीं, मगर हर ज़ख़्म इंसान को गहरा बनाता है। इंतज़ार उस गहराई का नाम है। वह हमें टूटने से नहीं बचाता, मगर टूटन को अर्थ दे देता है।
शायद इसी लिए उर्दू आज भी ज़िंदा है। क्योंकि यह हमें तेज़ी से भागने के बजाय रुककर देखने की आदत डालती है। यह हमें सिखाती है कि इंसान होना सिर्फ़ पाने का नाम नहीं, ठहरकर सहने का हुनर भी है।

 

उर्दू अदब दरअसल इंतज़ार की तहज़ीब है—
 

और इंतज़ार, इंसान की सबसे पुरानी, सबसे सच्ची और सबसे रचनात्मक अवस्था।

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