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सुनो कहानी-मधु आशावादी की जुबानी: धरम-सज्जन हॉल में उमड़े अनुभूति के बादल, मंडराई संवेदना की चिड़िया

RNE Bikaner

‘…और जब सूर्योदय के साथ अंधेरा छंटा तो उसने गौर से देखा कि छत की मुंडेर को लोहे की जालियों से कवर कर दिया गया और इसमे एक चिड़िया फंसकर दम तोड़ चुकी है..’ कुछ ऐसा ही समापन था कहानी ‘चिड़िया मुंडेर पर..’ का। सुना रहे थे वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार मधु आचार्य आशावादी। सुन रहे थे हॉल में उमड़े श्रोता। सन्नाटा ऐसा कि लगा हर कोई मन के उस भीतर कोने में डूब चुका है जहां एक मुंडेर है और उम्मीद है ‘बचपन की वो चिड़िया’ फिर कभी लौटेगी जिसमे बिना स्वार्थ के अबोले प्राणी तक से बन जाता था अटूट रिश्ता। सब जानते थे कि बदले हालात में संवेदना की वह चिड़िया दुनियादारी के शातिर जाल में फंसकर दम तोड़ चुकी है। जो बातें हो रही हैं वे यह महज जाल में फंसे हुए चिड़िया के उस कंकाल की ही तरह है जिसके पंखों में अब सपनों की उड़ान नहीं है।


यह दृश्य रविवार की शाम बीकानेर के धरम सज्जन ट्रस्ट हॉल का है। ऊर्जा थियेटर सोसायटी ने यह शाम खासतौर पर कहानी सुनाने के लिए तय की। इस बार कहानीकार थे वरिष्ठ पत्रकार-साहित्यकार मधु आचार्य ‘आशावादी’। अपनी बात खास अंदाज में कहने के लिए विख्यात आचार्य ने इस कहानीभरी शाम में ‘बादल का टुकड़ा’ और ‘चिड़िया मुंडेर पर’ दो कहानियां सुनाई। खचाखच भरे हॉल में बमुश्किल एक घंटे का यह सत्र श्रोताऔं को कुछ ऐसी अनुभूति दे गया जो  संभवतया इससे पहले ‘पढ़ी जाने वाली कहानियों’ को सुनने में कभी महसूसा नहीं गया।


मधु आचार्य ने बात जब चिड़िया की सुनाई तो कहानी बचपन से किशोर होती युवती के सपनों से गुजरते हुए एक दुल्हन के रूप में विदा हो दूर परदेस जा बसी। अंतर्मन में अब भी कहीं वो बचपन के सुहाने सपनों वाली चिड़िया पलती रही। उसी मुंडेर पर प्रौढ़ होकर लौटी और बचपन तलाशने की कोशिश की तो जाल में फंसे चिड़िया के कंकाल की तरह सपनों की परछाई रह गई जिसमें अब उन्मुक्त उड़ान की चाह नहीं है।


‘आशावादी’ की इस मनोविज्ञानी कहानी ने व्यक्ति मन के भीतर कहीं गहराई में संचित रह जाने वाले सुनहरे बचपन को सरल शब्दों में जिंदा कर श्रोताओं को अपने बचपन वाले घर में पहुंचा दिया।

दरअसल हर शख्स के जीवन में एक बचपन का घर जरूर होता है जो जीवनभर एक मधुर स्मृति की खुशबू बिखेरता रहता है। कहीं वह पीहर होता तो है तो कहीं नानी-दादी का गांव वाला मकान। उम्र के किसी पड़ाव में जब इन दरों-दीवारों के बीच आदमी लौटता है तो उन देहरियों, मुंडेरों, दरवाजों, गलियों को हसरतभरी नजरों से देखता हैं। उसके भीतर एक कभी न भुला पाने वाला चलचित्र फिर घूमने लगता है। एक कहानी के जरिये हर श्रोता के मन में कुछ ऐसे ही चलचित्र मधु आशावादी की कहानी ने एक बार फिर जीवंत कर दिये।


कुछ इसी तरह आशावादी जब ‘एक टुकड़ा बादल’ सुना रहे थे तो लगा कि वे खुद पर बरस रही स्पॉट लाइट की बजाय अनुभूति के उस बादल में भीग रह थे जो पहाड़ की तलहटी पर कहानी के पात्रों के विमर्श में उभर आया। यहां मां के प्रेमरस से सराबोर सब्जी के कौर का आनंद लेते बाबूजी की आंखों में उभरती वियोग की परछाइयां हर जिम्मेदार बेटे को दिखी। हालात की कठिन पहाड़ी पगडंडियों पर एक उम्मीद लिये बेमकसद फेरे लगा रहे बेटे को जीवन उस बादल की तरह लगता है जो ‘कभी यहां-कभी वहां’ भटकता न जाने कब, कहां बरस जाए। हां, जीवनानुभव उसे समझा देते हैं कि परिस्थितियों के ये बादल कब, कहां बरसने हैं।


जानिये क्या और कैसी है ये कहानीभरी शाम :

ऊर्जा थिएटर सोसाइटी के अशोक जोशी ने बताया साहित्यकारों, रंगकर्मियों की उपस्थित में “सुनो कहानी…” का आयोजन एक रचनात्मक पहल है । कहानी वाचन की यह तीसरी कड़ी थी जिसमें साहित्यकार मधु आचार्य ” आशावादी ” ने अपनी दो कहानियों “बादल का टुकड़ा” ओर “चिड़िया मुंडेर पर” का वाचन किया।

इस मौके पर साहित्यकार और रंगकर्मी अनिरुद्ध उम्मट, डॉ.प्रमोद चमोली, नदीम अहमद ” नदीम ” राजेंद्र पी. जोशी, नगेंद्र किराडू, प्रदीप भटनागर, रमेश शर्मा, इरशाद अज़ीज़, मुकेश राठौड़, कान नाथ गोदारा, पृथ्वी सिंह, असित गोस्वामी, संजय पुरोहित, संजय वरुण आचार्य, हरीश बी. शर्मा, अमित गोस्वामी, योगेन्द्र पुरोहित, जीत सिंह, डॉ, प्रशांत बिस्सा, अभिषेक आचार्य, हेमंत उज्वल, गौरीशंकर प्रजापत, पत्रकार प्रमोद आचार्य आदि मौजूद रहे।