मंगलजी ने नाटक की स्क्रिप्ट के चयन के साथ उस पर ट्रीटमेंट की बारीकियां बताई
अभिषेक आचार्य
RNE Network
मंगलजी के कहते ही प्रदीप जी उठकर चाय का कहने और करोड़पति लेने चले गये। सबके चेहरे पर उत्सुकता थी कि वो दो बड़ी बातें कौनसी है जो प्रदीपजी की बात से निकली। सब अपने दिमागी घोड़े दौड़ा रहे थे, मंगलजी बैठे बैठे मुस्कुरा रहे थे। किसी के दिमाग में कुछ आ ही नहीं रहा था।
इतने में करोड़पति आ गये तो सब खाने लगे। सब खा तो रहे थे मगर नजरें मंगलजी पर ही टिकी हुई थी। चाय भी आ गयी थी। सबके मन में यही था कि करोड़पति व चाय का ये चेप्टर जल्दी पूरा हो ताकि वे दो बातें जान सके। जो करोड़पति चाव से सभी खाते थे, उस समय उसे खत्म करने के लिए जल्दी जल्दी खा रहे थे। सब जानने की उत्सुकता में जल्दी मचाये हुए थे। मंगलजी उनकी इस हड़बड़ाहट को अच्छी तरह से समझ भी रहे थे।
आखिर करोड़पति व चाय का ये दौर भी सम्पन्न हो गया। अब उत्सुकता सबकी कुलांचे भर रही थी। एस डी चौहान साहब से रहा नहीं गया।
सर, आप सीधे उन दो बातों पर आ जाईये।
बुलाकी भोजक बोले ” हां सर। लगभग सभी ने इनकी बातों में सहमति जताई।”
तब मंगलजी ने कहा। इसका मतलब ये हुआ कि आपको तो तो प्रदीप जी ने जो दो बातें बोली, वो याद नहीं है।
सबने मौन रहकर स्वीकृति दी।
उनकी बात से नाटक के दो बड़े सवाल खड़े होते हैं जो आज के रंगमंच के भी बड़े सवाल हैं। इन सवालों का सैद्धांतिक जवाब हर रंगकर्मी को मालूम होना चाहिए। तभी वो सजग रंगकर्मी कहलाने का हक़ रखता है।
एक चुप्पी के बाद वे बोले– प्रदीप जी ने नाटक में विचार की बात चलते समय कहा था कि हम नाटक करते समय कई बार कुछ दृश्यों से सहमत नहीं होते हैं तो या तो हम उनको बदल देते हैं या हटा देते हैं। कई बार सीक्वेंस व अंत तक भी बदल देते हैं। कहा था ना उन्होंने ये।
सबने सहमति में सिर हिलाया।
यही तो नाटक का बड़ा सवाल है। जो प्रदीपजी की बात से निकला। एक निर्देशक को लेखक की स्क्रिप्ट में कितना बदलाव करने का अधिकार है, ये ही रंगमंच का बड़ा सवाल है। सबको बात समझ आई। विष्णुकांत जी ने कहा कि कई बार लेखक नाटक देखने के बाद कहते भी हैं कि मेरा अर्थ बदल दिया। गुस्सेल लेखक तो यहां तक कह देते हैं कि हमारे नाटक की हत्या कर दी।
यही बात हर रंगकर्मी को समझनी है। हम किसी भी स्क्रिप्ट में बदलाव की कितनी छूट ले सकते हैं, ये हमें ज्ञात होना चाहिए। नाटककार जिस समय में नाटक लिखता है उस समय की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक स्थितियां अलग होती है और हम जब कर रहे होते हैं तब अलग होती है।
प्रदीपजी ने कहा कि सही है। आजकल तो नेता पलक झपकते ही पार्टियां बदलते हैं। अब तो राज्य की सरकारें बदलते भी देर नहीं लगती।
यही कह रहा हूं। उस सूरत में हमें भी स्क्रिप्ट में बदलाव करना लाजमी होता है। इसके अलावा परिवेश भी एक बड़ा कारण है।
चौहान साब ने पूछा वो कैसे?
लेखक जिस परिवेश में रहकर नाटक लिखता है, वो परिवेश हो सकता है हमारे शहर का नहीं हो।
विष्णुकांत जी ने कहा कि सही बात है। महानगरों व बड़े शहरों में आज कोई लव मैरिज करता है तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। हमारे शहर में यदि कोई ऐसा कर ले तो 3 महीनें तक तो उसकी चर्चा चलती रहती है। सामाजिक ताना बाना ही हमारे यहां इस तरह का है।
चांदजी ने कहा कि हमारे यहां अब भी आधुनिकता ने पांव नहीं पसारे। फैशन को यहां अब भी भौंडापन समझा जाता है।
मैं इसी परिवेश की बात कह रहा था। हमें पता है कि हमारा दर्शक कौनसा है और उसका सामाजिक सोच क्या है। उसका हर रंगकर्मी को ध्यान रखना ही पड़ता है। उसके अनुरूप स्क्रिप्ट में हम बदलाव करते हैं तो वो सर्वथा उचित है, कहीं भी गलत नहीं।
सबने हां में सिर हिलाया। मंगलजी ने बात को आगे बढ़ाया।
हमें स्क्रिप्ट में बदलाव करते समय बस इतना ध्यान रखना होता है कि लेखक की आत्मा को हम न बदलें। संवाद बदलना गलत नहीं। न सीक्वेंस बदलना। आत्मा बनी रहनी चाहिए। और मेरा तो यहां तक कहना है कि जब हम मंचन से पहले रीडिंग करें तभी हमें उन सब चीजों को मार्क कर लेना चाहिए, जिनको हमें हमारे परिवेश के अनुसार बदलना है। ताकि रिहर्सल पर जायें तब किसी तरह की परेशानी न हो। स्क्रिप्ट पर वर्क रिहर्सल शुरू करने से पहले होना चाहिए।
स्क्रिप्ट की बात चल रही है तो यहीं कहना उचित होगा कि रीडिंग के समय ही म्यूजिक व लाइट इफेक्ट वालों को भी अपनी मार्किंग करनी चाहिए। ताकि बाद में केवल निर्देशक की ईच्छानुसार जो बदलाव करना हो उतना ही काम करना पड़े।
जगदीश शर्मा जी बोले कि सर स्क्रिप्ट का चयन करते समय ही हमें ध्यान रख लेना चाहिए कि ये नाटक हमारे शहर के अनुकूल है या नहीं। ये तो बहुत जरूरी है। पोलैंड में नाटक पर एक किताब है ‘ प्रैक्टिकल थियेटर ‘। इसमें एक नाटक करने की पूरी प्रक्रिया बताई गई है। इसका पहला अध्याय ही नाटक चयन का है। इसलिए चयन ही तो महत्त्वपूर्ण होता है। जगदीशजी आपकी बात सही है।
मगर ये भी ध्यान रखना चाहिए कि स्क्रिप्ट में अनावश्यक छेड़छाड़ भी न हो। जहां जरुरी हो, वहीं की जाये। केवल हम अपने दम्भ में बदलाव करेंगे तो फिर हम लेखक की हत्या करेंगे। इसलिए नाटक हमारे खेलने के लायक है कि नहीं, ये चयन के लिए पठन के वक़्त ही तय कर लेना चाहिए। तो अब तो आपको मिल गया ना प्रदीप जी की बात से निकले पहले सवाल का जवाब।
सबने हां कहकर सहमति दी। प्रदीपजी ने कहा कि सर अब दूसरे सवाल व उसके जवाब के बारे में भी बता दीजिये।
वो तो तब बताऊंगा जब विष्णुकांत जी की तरफ से चाय आ जायेगी।
अभी मंगवा लेता हूं। करोड़पति मंगवाऊं।
नहीं। अब केवल चाय।
प्रदीप जी चाय का ऑर्डर देने चल दिये।
वर्जन:
प्रदीप भटनागर
हर रंगकर्मी को ध्यान रखना चाहिए कि नाटक चुनते समय अपने शहर, दर्शक की मानसिकता क्या है। केवल नाम के बड़े नाटकों का चयन करना सही नहीं। अक्सर आज के रंगकर्मी बड़े लेखक या किसी ऐसे बड़े नाटक का चयन कर लेते हैं जो बड़े शहर में हुआ है, उनका ध्येय केवल सस्ती लोकप्रियता पाना रहता है। वो नाटक भले ही हमारे शहर की मानसिकता हो ही नहीं। इस तरह के नाटक करने से कोई लाभ नही, दर्शक तो टूटता ही है और करने वालों को भी कोई इच्छित लाभ नहीं मिलता। इससे बेहतर है, वो नाटक चुनै जो शहर के लोगों को पसंद आये। देखादेखी में नाटक चयन करना तो रंगकर्म का नुकसान करना है। हमारे साधन सीमित हैं तो हम उसके मंचन में समझौता करते हैं। उससे नाटक की भी हत्या होती है और दर्शक भी टूटता है।