Skip to main content

“बादल” वचन : “मूल्य की राजनीति” करने वाले ही जानते हैं “समर्थन मूल्य”!

Sunday satire :What do you know about the formula of support price, Janta Babu?

“नए मूल्यों ने आधुनिक साहित्यकारों और साहित्य को भी प्रभावित किया है। भाषण या वक्तव्य चाहे कैसे भी दें लेकिन हम यह भी जानते हैं कि किसका कितना मूल्य है ! हमारे साहित्यकार भी राजनीतिक-मूल्यों को अपनाने में जब किसी से पीछे नहीं हैं तो उनके निर्धारित मूल्यों की घोषणा भी क्यों न हो जानी चाहिए। चाहे वह किसी पद या पुरस्कार की शक्ल में ही क्यों न हो..”(इसी व्यंग्य से)


  • समर्थित मूल्य और हम : डॉ.मंगत बादल

सरकार किसानों और आम आदमी को राहत पहुँचाने के लिए कभी गेहूँ के समर्थित मूल्यों की घोषणा करती है तो कभी चीनी और चावल के मूल्यों की। मैं काफी अर्से से मूल्यों पर आधारित राजनीति सम्बन्धी भाषण भी सुनते चला आ रहा हूँ। एक पार्टी मूल्यों पर आधारित राजनीति की बातंे करती है तो दूसरी पार्टी तत्काल उसी पार्टी के किस सदस्य का कितना मूल्य रहा है, इसकी घोषणा सरेआम कर देती है। इस प्रकार जनता भी प्रत्येक राजनेता और राजनीतिक पार्टी का मूल्य समझ जाती है। सत्ताधारी पार्टी के नेताओं का मूल्य कुछ अधिक होता है जबकि विपक्षियों का कम। कुछ सीमा तक यह बात अर्थशास्त्र के ‘मांग और पूर्ति’ सिद्धान्त पर भी निर्भर करती है।

जिन्सों के भावों को नीचा न उतरने देने के लिए ही सरकार ‘समर्थन मूल्य’ की घोषणा करती है किन्तु किस नेता का कितना मूल्य है यह उसके पद, प्रतिष्ठा और स्थिति पर निर्भर करता है। प्रत्येक राजनीतिक दल व्यापारियों और उद्योगपतियों से ‘गुप-चुप’ चन्दा लेकर सत्ता के मैदान में कुश्ती लड़ता है। इन सबका समर्थन मूल्य चाहे सरकार घोषित न करे किन्तु देने और लेने वाला तो जानता ही है। वैसे प्रत्येक देने वाला, प्रत्येक लेने वाले का यह मूल्य अपनी ‘डायरी’ में तो अंकित करके रखता ही है ताकि सनद रहे और वक्त जरूरत काम आ सके।

मूल्यों की राजनीति की बातें करना हमारे लिए नया नहीं है। स्वतन्त्रता के कुछ वर्षों बाद ही हम एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में यह समझने लग गए थे कि राजनीति और राजनेता का कुछ तो मूल्य होना चाहिए वरना राजनीति में कौन आना चाहेगा। जो लोग भविष्य में देश की बागडोर संभालेंगे, देश को सोने की चिड़िया बनाकर उसका नाम रोशन करेंगे, उन्हें मूल्य तो मिलना ही चाहिए।

महान् देश की जनता मुफ्त सेवा करवाकर मुफ्तखोर बने यह उसे शोभा नहीं देता अतः जनता में त्याग और बलिदान की भावना को जगाने के लिए ‘मूल्यों’ की महती आवश्यकता है। संसद में प्रस्ताव पारित कर प्रत्येक नेता का ‘समर्थन मूल्य’ घोषित किया जाना चाहिए। ‘निर्धारित मूल्यों’ के अभाव में ही भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन हुआ इसी कारण नेताओं के भाव भी बढे़। नेताओं की व्यक्तिगत सम्पत्ति में क्रमशः वृद्धि और राष्ट्रीय कोष में ह्रास हुआ। एक समय तो ऐसा आया कि विदेशों मे देश का सोना गिरवी रखकर ‘ठन-ठन गोपाल’ बनते-बनते रह गए।

हम यह सोचा करते थे कि हमारे नेताओं के भाव ‘बडे़ ऊँचे’ होंगे। कभी बोफोर्स कांड, कभी चारा मशीन कांड, कभी शेयर घोटाला आदि के बारे में हम पढ़ते-सुनते रहते थे। ‘सब चलता है’ सोचकर हम चुप थे लेकिन हवाला-कांड के हीरो, प्रातः स्मरणीय जैन साहब की डायरी ने विश्व के समक्ष हमारे जन नेताओं, राष्ट्र के कर्णधारों की मूल्य सूची रखी तो विश्व के सबसे बडे़ जनतंत्र का सिर शर्म से झुक गया। कई तो दो अढ़ाई लाख में ही बिक गए थे। इतना पैसा तो हमारे कस्बे के फत्तू हलवाई के ‘लख्ते-जिगर’, आँखों के तारे ने ‘कॉलेज इलैक्शन’ में खर्च कर दिया था।

मैं तो सोच रहा था कि हमारे राष्ट्रीय नेताओं की कीमतें अरबों-खरबों में होगी तभी तो वे मूल्यों की राजनीति की बातंे करते हैं। वे ‘टकेसेर’ बिक जायेंगे, उनका इस प्रकार अवमूल्यन हो जाएगा, यह तो भारतीय ‘जन-गण’ ने कभी सोचा ही नहीं था। हमारे यहाँ यह कहावत बडे़ शान से चलती है कि ‘लीद भी खाई जाए तो हाथी की’ ताकि पेट तो भर जाए। दो-अढ़ाई लाख तो हमारे कस्बे का थानेदार भी ‘मर्डर-केस’ में नहीं लेता। उनका कहना है कि पुलिस में हैं तो क्या ! हमारे भी सिद्धान्त हैं !

हम मूल्यों को लेकर बडे़ चिन्तित रहते हैं। कभी हम गाँधी का हवाला देते हैं तो कभी पटेल या नेहरु का। (मेरा तात्पर्य ‘हवाला-कांड से नहीं है) जब मूल्यों के प्रति हम इतने जागरूक हैं तो मैं सोचता हूँ कि क्यों न एक ‘मूल्य आयोग’ गठित कर दिया जाए । यही आयोग यह निष्चित करे कि किस व्यक्ति का कितना मूल्य है। जो व्यक्ति निर्धारित मूल्य से कम लेता पकड़ा जाए उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही हो। प्रत्येक पद का मूल्य भी निर्धारित हो। स्पर्धा का युग है। देशी कम्पनियाँ यदि वह मूल्य नहीं चुका र्पाइं तो बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ चुका देंगी। ‘बिना हींग-फिटकरी’ लगे देश को विदेशी मुद्रा का ‘चोखा रंग’ दिखलाई पडे़गा।

हम भारतीयों को मूल्यों को लेकर एक तकलीफ यह भी है कि हम अपने मूल्यों को तो छोड़ना ही नहीं चाहते। वे मूल्य चाहे कितने ही जीर्ण-शीर्ण या मृत क्यों न हों ? हम अपने मूल्यों से उसी प्रकार चिपके रहते हैं जिस प्रकार बन्दरिया की छाती से उसका मृत बच्चा। हमारी यही प्रवृत्ति समर्थित मूल्य प्रणाली में बाधा भी है। वैसे यह सभी को मालूम है कि प्रत्येक अधिकारी और मंत्री का ‘एक मूल्य’ है। फिर यह फालतू की ‘चिल्लपौं’ और अखबारबाजी कैसी !

इस नवीन ‘मूल्य संहिता’ को स्वीकारने में हमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। वर्तमान के साथ चलने में ही बुद्धिमानी है। अनेक ‘घोटाला-कांडों’ और भ्रष्टाचार के पर्वों को मिलाकर रामायण और महाभारत से भी विशाल ‘संयुक्त महाकाव्य’ रचा जा सकता है। नए मूल्यांे ने आधुनिक साहित्यकारों और साहित्य को भी प्रभावित किया है। भाषण या वक्तव्य चाहे कैसे भी दें लेकिन हम यह भी जानते हैं कि किसका कितना मूल्य है ! हमारे साहित्यकार भी राजनीतिक-मूल्यों को अपनाने में जब किसी से पीछे नहीं हैं तो उनके निर्धारित मूल्यों की घोषणा भी क्यांे न हो जानी चाहिए। चाहे वह किसी पद या पुरस्कार की शक्ल में ही क्यों न हो

कई बार विभिन्न घोटाला-कांडों के चक्कर में संसद का सत्र भी नहीं चल पाता। इससे समय, मानवीय श्रम और धन का अपव्यय होता है। यदि समर्थन मूल्य सूची की घोषणा पहले ही हो चुकी हो तो इस प्रकार की फालतू बहसों पर रोक लग सकेगी। समर्थन मूल्य भारतीय प्रजातंत्र को आगे बढ़ाने की दिशा में, उसे चार कदम सूरज की ओर ले जाने का सार्थक और सच्चा प्रयास कहा जा सकता है।



शास्त्री कॉलोनी,रायसिंहनगर-335051
मो. 94149 89707