मंगत-चिंतन : वो घर में घुसकर मारते हैं…तो हम घर में घुसाते ही क्यों है?
घर में मात : डॉ.मंगत बादल
अपने ही घर में मात खाना हमारे लिये नया नहीं है। यह कोई पहली बार नहीं हो रहा है जो हम शर्मसार हों। दरअसल कभी-कभी समाचार-पत्र की कोई साधारण सी खबर आपका ध्यान अनायास अपनी ओर खींच लेती है। यह खबर चाहे खेल क्षेत्र से थी किन्तु मुझे सोचने पर विवश कर दिया। न्यूजीलैंड की क्रिकेट टीम ने भारत की क्रिकेट टीम को उसके घर में मात दी। बंगला देश की टीम ने पाकिस्तान को उसके घर में धूल चटाई। मुझे लगा कि इन संवाददाताओं को घरेलू और इतिहास का ज्ञान कुछ कम है।
अतिथि का मान रखने घर में मात खाते हैं :
भाई अपने घर में तो आदमी सदैव मात ही खाता है। जीत के ढोल तो वह बाहर पीटता है। कम से कम हम भारतीयों के लिये यह कोई नई बात नहीं है। हमने आदि काल से ही अतिथियों का देवता (अतिथि देवो भव) मानकर आदर किया है। हमारे यहाँ चाहे कोई आक्रमणकारी आया अथवा शरणार्थी बनकर, हमने उसका दिल खोलकर स्वागत किया। मैं जब परम्परा निर्वाह करने की बात कर रहा हूँ तो थोड़ा पीछे की ओर तो चलना ही पड़ेगा। अपना इतिहास जानना गड़े हुये मुर्दे उखाडना नहीं होता बल्कि आत्म साक्षात्कार भी होता है जो ऐसे वक्त पर आवश्यक है। देश का बंटवारा हुआ उस समय हमने दरियादिली दिखलाई कि देश सभी का है जो जहाँ चाहे रह सकता है। बंगला देश बना उससे पहले लाखों शरणार्थी यहाँ आ चुके थे। हमने उन्हें पनाह दी। वे आज हमारे लिये नासूर बने हुये हैं। उनके आका यदि हमें आँखें दिखा रहे हैं तो हमारी बिल्ली हमें ही म्याऊँ!’ वली बात है। क्या बिगाड़ लेंगे। यदि देश का बंटवारा न हुआ होता तो भी यहीं रहते। फिर कौनसी ये हरकतें नहीं करते ?
अपनी गली में कुत्ते शेर होंगे! हमारे तो..
किसी विद्वान ने कहा है- जो जो जब-जब होना है, सो सो तब-तब होना है। हमें इससे कोई फर्क पड़नेवाला नहीं है। हम सलामत हैं और हमारी कुर्सी भी सलामत है फिर डर किस बात का ? यह तो आपने सुन ही रखा होगा- हाथी चलते झूमकर, गले में बाँधी टाल। श्वान हजारों भौंकते, गज चलते निज चाल । कुत्तों के भौंकने से जैसे हाथी विचलित नहीं होते, हम भी नहीं हो सकते, क्या दूसरों की देखादेखी हम अपनी सनातन परम्पराओं से मुँह मोड़ लें। ऐसा कदापि नहीं होगा।
आप को यह जानकर हैरानी हो सकती है कि घर में मात खाने से हमारे दो मकसद पूरे हो गये। पहला तो यह कि हमने अतिथि को परम्परागत तरीके से सम्मान दिया कि वह पराजित होकर लज्जित न हो। दूसरा हमने युगों से चले आ रहे मुहावरे को बदल कर दिखा दिया कि गली का शेर भी कुत्ता बन सकता है। यदि एसका आगे से सवा सेर का सामना हो जाये। जीत की खुशी तो पल दो पल भर की होती है किन्तु परम्परा को जीवित रखने में अपना योगदान देना अमूल्य है।
क्यों व्यर्थ चिंता करते हो..
हम तो उस गोबर के समान हैं जो जमीन से उठेगा तो कुछ लेकर ही। हम खेल को खेल भावना से खेलते आये हैं और खेलेंगे। हार-जीत में हम सम भावी हैं। हम ने श्री मद्भगवद् गीता के दर्शन को आत्मसात् कर लिया है। बात खेलों की चल रही है। दरअसल हमने कभी इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। बिना सोचे-विचारे या खिलाड़ियों की दक्षता जाने बिना उन्हें किसी की सिफारिश के आधार पर या अन्य कारणों से ओलंपिक खेलों में भेज देते। वहाँ से उसने पदक तो क्या लाना था, दस-बीस दिन सैर-सपाटा करके लौट आता था। वह भी जानता था कि उसे पदक लाने नहीं भेजा गया है न ही उसकी यह जिम्मेदारी है। जब इस दिशा में आवाज उठने लगी तो ऊपर के लोग कुछ सतर्क हुये और खिलाड़ियों को भेजती बार ध्यान दिया जाने लगा।
स्कूल में चल रहे दूसरे “खेल” :
हमारे प्राथमिक, माध्यमिक अथवा उच्च विद्यालयों में खेलों की अनिवार्यता है ही नहीं। न ही महा विद्यालयों में है। फिर खिलाड़ी कैसे तैयार होंगे। प्रत्येक विद्यार्थी के लिये यदि खेल और शारीरिक शिक्षा अनिवार्य कर दी जाये तो उसके परिणाम भी निकलेंगे। प्राथमिक विद्यालयों में तो शारीरिक शिक्षक के पद ही नहीं हैं। जो शिक्षक वहाँ कार्यरत हैं वे पढ़ाएं या खेल खिलायें यह भी तय नहीं है। फिर भी हम खिलाड़ियों से अपेक्षा करते हैं कि वे पदक लायें।
जब नींव ही नहीं है तो भवन कैसे बनेगा? हमने आज तक हवाई महल ही बनाये हैं। ओलंपिक खेलों में कभी सोवियत रूस और अमेरिका का दबदबा था। जब सोवियत रूस टूट गया तो अमेरिका शिखर पर आ गया। इसी बीच चीन के खिलाड़ियों ने अमेरिका को चुनौती देते हुये अपना वर्चस्व स्थापित किया। चीन के खिलाड़ी खेल के मैदानों में जितना पसीना बहाते हैं वह आगे चलकर पदकों में परिवर्तित हो जाता है। वहाँ खेलों के लिये बच्चों का प्रशिक्षण तीन-चार वर्ष की आयु में प्रारम्भ हो जाता है। बारह-तेरह वर्ष या इससे भी छोटी उम्र में ओलंपिक पदक जीत लाते हैं।
पूरा जीवन ही एक खेल है :
हमने तो जीवन को ही खेल समझा है। हम जानते हैं कि सोना हो या चांदी, सब कुछ यहीं रह जायेगा। आज तक कोई साथ लेकर नहीं गया जो हम ले जायेंगे। इनके पीछे दौड़ना मृग-तृष्णा है। इसीलिये हम कभी पदकों के चक्कर में नहीं पड़े। हम ओलंपिक में कभी पदक की आशा में जाते ही नहीं। हम तो कर्म करते हैं। उसी में हमारी आस्था है। हम भगवान श्रीकृष्ण के वचनों ‘मा फलेषु कदाचन’ में विश्वास करते थे और करते रहेंगे।
150 करोड़ के सभी शून्य हटा बचे अंक जितने मैडल लाएं तो भी वाह-वाही :
हमारा देश एक सौ पचास करोड़ लोगों का देश है। एक सौ पचास करोड़ के यदि सारे शून्य हटा दिये जाये तो केवल पन्द्रह बचते हैं यानी डेढ़ करोड़ लोगों के पीछे एक स्वर्ण पदक लायें तो पन्द्रह बन जाते हैं किन्तु….? चलते-चलते एक सलाह और देना चाहता हूँ कि हमारे विधायकों और सांसदों के पास पूरे पाँच वर्ष होते हैं जबकि खिलाड़ियों के पास तैयारी के लिये केवल चार वर्ष। हमारे सांसद और विधायक यदि एक वर्ष का अपना वेतन और भत्ते खेलों के लिये समर्पित करदें तो देखना कैसे पदकों की वर्षा होती है। मेरी इस बात पर सभी माननीय कहेंगे कि ओलंपिक खिलाड़ियों को पैसों की कमी वैसे भी नहीं आने देते। किन्तु मेरा सवाल है कि यदि चार वर्षों तक पूरी सुविधा जाये तो क्यों नहीं पदक आयेंगे? साथ ही माननीयों की कमाई लगने पर उनकी भी पैनी दृष्टि रहेगी। जानता हूँ कि माननीय कभी ऐसा नहीं करेगे किन्तु सोचने में तो कोई हर्ज नहीं।
शास्त्री कॉलोनी, रायसिंहनगर (94149 89707)