Skip to main content

मंगत कथन : …अथ कथा हनी ट्रेपियाये लेखक और ट्रेप करने वाले निर्णायकों-आयोजकों की!

RNE Network

‘हनीट्रैप’ शब्द चाहे हमारे लिये नया है किन्तु हमारे देश में हनीट्रैप करना चहुत प्राचीन समय से प्रचलित है। इसके कितने ही उदाहरण हमें प्राचीन भारतीय साहित्य में मिलते हैं। हनीट्रैप करने वालों ने तो भगवान शिव को भी नहीं बख्शा। उन दिनों हनीट्रैप करवाने वाले दल का सरगना इन्द्र था। यह कामदेव, उर्वशी, मेनका और रंभा आदि की सहायता से ऋषि-मुनियों का तप भंग किया करता था ताकि वे अपने तपोबल से उसकी गद्दी न छीन लें। विश्वामित्र और मेनका की कहानी आपको पता है।

इन्द्र को आजकल के मुख्य मंत्रियों की भांति हरदम यही डर सताया करता था कि न जाने कब, कौन ऋषि अपनी तपस्या से उसका सिंहासन हथियाले। पढ़ा तो यह भी है कि जब कोई ऋषि घोर तपस्या करता तो इन्द्र का सिंहासन हिलने लगता था। पता नहीं सिंहासन और ऋषि के तप में क्या कनैक्शन था इसका वर्णन कहीं नहीं मिलता। यह एक तरह से इन्द्र को चेतावनी होती। इसके बाद वह सतर्क हो जाता और उस ऋषि को हनीट्रैप करने का उद्योग प्रारम्भ कर देता।

आजकल भी जब किसी मुख्यमन्त्री का सिंहासन हिलने लगता है तो वह भी अपनी तरफ के विधायकों की बाड़ाबन्दी करता है। बाड़ा शब्द हालांकि पूर्व में पशुओं के बाँधने वाले स्थान के लिये प्रयुक्त होता था, आज भी होता है किन्तु सिद्धान्तहीन राजनीति करते समय मनुष्यता कहाँ बची रह सकती है ?

कहावत है कि हम जब किसी पर आरोप लगाने के लिये उस की ओर एक अंगुली उठाते हैं तो तीन अंगुलियों का रुख स्वयं हमारी ओर होता है। इसलिये मैं यह प्रकरण खुद से ही प्रारम्भ कर रहा हूँ तथा आपको आपबीती सुनाने जा रहा हूँ। मैं भी कवितायें, कहानियाँ आदि लिखता हूँ तथा अपने लिये यह गलतफहमी भी पाल रखी है कि मैं एक साहित्यकार हूँ। यह भी कि जब तक कोई यह गलतफहमी निकालेगा नहीं मैं ऐसा ही सोचता रहूँगा। क्षेत्र चाहे कोई हो हमारे देश की जुगाड़-तकनीक बड़ी प्रभावशाली तथा जगत प्रसिद्ध है। प्रत्येक रचनाकार जब थोड़ा-बहुत लिखकर इधर-उधर प्रकाशित होने लगता है तो उसे साहित्य की जुगाड़ तकनीक भी कुछ-कुछ समझ में आने लगती है। वह अब जल्दी से जल्दी अपनी पुस्तक छपवाकर पुरस्कार लेनेवालों की कतार में लग जाना चाहता है। मैं भी इसका अपवाद नहीं।

अपनी बात पूरी करने से पूर्व आपको यह स्पष्ट करदूं कि हनीट्रैप की लपेट में व्यक्ति उतना ही आता है जितनी उसकी औकात होती है। जैसे ऊँट को दागते समय लोहे की मोटी छड़ प्रयोग में ली जाती है जबकि बिल्ली के लिये चरखे का तकुआ ही काफी होता है। क्योंकि मैं यहाँ खुद के साथ बीती जिन घटनाओं को बताने जा रहा हूँ वे इसी तरह की हैं। मतलब जिसकी जितनी क्षमता होती है वह उतनी ही चोट खा सकता है।

आजकल हनीट्रैप का अर्थ कुछ बदल गया है। इसका वास्तविक अर्थ तो यही है कि शहद का लालच देकर किसी असामी को फांसना। वह किसी भी क्षेत्र में कोई भी हो सकता है। जबकि आजकल तो खास तरह की औरतों के नंगे बदन का प्रदर्शन करवाकर अपने शिकारों को ट्रैप किया जाता है। ‘ट्रिक फोटोग्राफी’ या जबरन फोटो खींचकर बाद में अपने शिकार को ‘ब्लैकमेल’ किया जाता है।

पुराने जमाने में जब मोबाइल नहीं होते थे तब हम लोग पत्रों से ही ट्रैप हो जाया करते थे। कितने भोले थे ! उस समय हनीट्रैप के मामले में पुलिस नाम का महकमा भी आज की भाँति सक्रिय नहीं था। आजकल यह विभाग भी पुलिस के लिये अच्छा-खासा उपजाऊ क्षेत्र है। उसके दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। पुराने जमाने में इसे ठगी कहा जाता था। ट्रैप होने के बाद शिकार छटपटाता रहता था। सबसे कटा-कटा, सचसे अलग। किसी को बताता तो मजाक का पात्र बनता। मन ही मन में भुनभुनाता रहता। बेइज्जती होने के भय से मारे शर्म के किसी को बता भी नहीं सकता था। जैसा कि मेरे साथ हुआ। उन दिनों मैं खूब कवितायें, कल्पनियों लिखा करता था। यत्र-तत्र छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होता रहता था। पारखी नजर वालों से ऐसे नवोदित कब तक बचे रह सकते हैं? वे तो उनके कमाऊ पूत होते हैं। उसे अगला शिकार बनाने के लिये वे उस लेखक की रचनाओं पर बराबर नजर रखते हैं तथा उसका पता भी सहेज लेते हैं।

एक दिन मुझे हरियाणा के किसी शहर की संस्था की ओर से एक पत्र मिला जिसमें पहले तो मेरे साहित्यिक अवदान की प्रशंसा की गई थी बाद में अपनी संस्था का इतिहास बतलाते हुये उसके साथ जुड़े बड़े-बड़े लेखकों की सूची थी जिन्हें इस संस्था ने ‘अखिल भारतीय साहित्य रत्न’ की उपाधि प्रदान कर गौरवान्वित किया था। इस बार उनकी कार्यकारिणी ने सर्व सम्मति से यह उपाधि मुझे देने का निर्णय किया है। (यहाँ में स्पष्ट करदूं कि वे लोग वर्ष भर में कम से कम ऐसे चार-पाँच सौ पत्र रचनाकारों को अवश्य लिखते होंगे। जिसमें मेरे जैसे सौ-सवा सौ नए कबूतर फंस ही जाते होंगे। इस प्रकार उनकी सफलता का आंकड़ा काफी ऊँचा होता है। उन्होंने लिखा था  कि वे बाल दिवस को एक भव्य समारोह में मुझे इस उपाधि से विभूषित करना चाहते हैं। उसमें प्रदेश के शिक्षा मन्त्री अपने कर कमलों से मुझे उपाधि प्रदान कर शाल ओढ़ाकर सम्मानित करेंगे। आगे लिखा था कि संस्था के नियम संख्या 11 (अ) के अनुसार उपाधि प्राप्त कर्ता इस संस्था का माननीय सदस्य होना चाहिये। सदस्यता शुल्क मात्र एक हजार रुपये हैं। आप यदि हाँ, करते हैं तो सदस्यता शुल्क निम्नांकित पते पर मनीऑर्डर से भिजवायें।

मैं यह पत्र पढ़कर कृत-कृत्य हो गया। सोचने लगा कि मेरा नाम भी अब राष्ट्रीय लेखकों की सूची में जुड़ जायेगा। मैं दिवा स्वप्न देखने लगा। मुझे जैसे किसी ने चरती से उठाकर आकाश पर बिठा दिया था। मैं भी अब साहित्याकाश में नक्षत्रों के मध्य चंद्रमा सा चमकने लगूंगा। यह सोचकर कि कहीं वे लोग अपना विचार न बदल दें, मैंने अगले दिन ही सदस्यता शुल्क भिजवा दिया। मैं अथ गिन-गिन कर दिन काट रहा था कि एक दिन डाकिया मुझे बारह गुणा आठ इंच का एक लिफाफा पकड़ा गया। पत्र उसी संस्था का था। मैंने सोचा भव्य निमन्त्रण पत्र होगा। धड़कते दिल से खोला तो उसमें एक मोटी शीट पर छपी हुई ‘अखिल भारतीय साहित्य रत्न’ की उपाधि थी जिस पर मेरा नाम लिखा था। साथ में एक छोटा सा दो पंक्तियों का पत्र था जिसमें लिखा था- महोदय, अपरिहार्य कारणों से इस वर्ष समारोह की आज्ञा नहीं मिल सकी है। इसलिये आपको उपाधि प्रेषित है। कष्ट के लिये खेद। सचिव।

मुझे थोड़ी मायूसी तो हुई किन्तु खुशी बहुत बड़ी थी इसलिये मैं अपने मित्रों से बांटना चाहता था। अपने एक साहित्यिक मित्र के पास गया और उसे अपनी तत्काल मिली सफलता से अवगत करवाते हुये वह उपाधि दिखलाई। वह कुछ नहीं बोला। मैंने सोचा मैं तो इससे खुशी साझा करने आया हूँ और यह मन में जल रहा है। बधाई भी नहीं दी। सच ही है सच्चे मित्रों का पता सफलता के वक्त ही लगता है। यह बोला में भीतर चाय का कहता हूँ फिर बैठकर बातें करते हैं। थोड़ी देर बाद यह चाय और एक थैला लेकर बैठक में आया। थैले में से उसने वैसी ही अपने नाम की उपाधि और पत्र मेरे हाथ में थमा दिये और जोर से हँसकर बोला, ‘यह पिछले वर्ष का है। किसी और के पास मत चले जाना हमाम में कई नंगे दिखलाई पड़ेंगे। मूर्खता का ढिंढोरा पीटने से हम खुद ही बेइज्जत होंगे। पहले बता देते तो मैं तुम्हें फंसने नहीं देता। हम दोनों हनीट्रैप हो चुके हैं।

मुझे लगा जैसे किसी ने हवा भरे टायर में एकदम कील चुभो दी हो। मैं दूसरी बार चपेट में आते-आते तब बचा जब मेरी एक कहानी राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका में प्रकाशित हुई। एक पाठक का सुदूर ओडीशा से अंग्रेजी में लिखा पत्र मुझे मिला। उसने मेरी कहानी की प्रशंसा करते हुये लिखा था कि मैं आपकी कहानियों  को प्रायः पढ़ता रहता हूँ। इस कहानी का अनुवाद में अंग्रेजी में करना चाहता हूँ। आप चाहें तो आपकी अन्य कहानियों का अनुवाद भी कर दूँगा। अंग्रेजी में प्रकाशित होने के बाद आप स्टार लेखक बन जायेंगे। अब तो मैं खुशी से फूल गया। मैंने उसे लिखा कृपया अपना बायोडाटा तो भिजवायें। उसने ‘एशियन हूज हू’ की एक कटिंग भेज दी। उसकी अंग्रेजी में कई पुस्तकें प्रकाशित थीं। इनाम-इकराम भी मिले थे।

एक बार तो मैंने सोचा हो सकता है यह उसके किसी हमनाम का परिचय हो जिससे यह लाभ उठा रहा है किन्तु मन चाहे धन के लालच से प्रभावित हो या यश के,वह एक दायरे से बाहर सोचने ही नहीं देता। इसलिये मैंने उसे अपनी कहानियों की तीन पुस्तकें तथा अनुवाद की अनुमति का पत्र भी भेज दिया। कुछ दिनों बाद उसका पत्र आया कि वह मेरी कहानियों का अनुवाद करने में लग चुका है। इसके बाद वहाँ की गर्मी का रोना रोया और बाद में लिखा कि यह एक छोटा-सा कस्बा है जहाँ ढंग की चीजें ही नहीं मिलतीं। मुझे दो फुल एक्सल के कमीज और दो ट्राउजर भिजवा दें। बिल भी साथ लगा देना। मैं पैसे भिजवा दूँगा। पत्र पड़ते ही मुझे उसमें मुझे चूने की बू आने लगी। मैं समझ गया कि यह हनी चटया चुका है। अब मुझे सजग हो कर सोचना चाहिये कि मैं उसके कुड़के (ट्रैप) में फंसूं या नहीं। यदि उसने मुझ से मुफ्त पुस्तकें मंगवाकर पढ़नी होतीं तो इस प्रकार की माँग न करता। हालांकि हिन्दी और क्षेत्रिय भाषाओं के बहुत कम लेखक ऐसे मिलेंगे जो खरीद कर पुस्तकें पढ़ते हैं। अधिकतर यही सोचते हैं कि मुफ्त मिल जाये तो ठीक है। उसका मन्तव्य स्पष्ट था इसलिये मैंने उसे पत्र में लिखा में एक छोटी सी नौकरी करता हूँ। इन चारों कपड़ों के कम से कम सात-आठ हजार रुपये लग जायेंगे। इतने पैसे मेरे पास नहीं है। आप सच में मंगवाना चाहते हैं तो अपना नाप और पैसे भिजवा दें। मैं कपड़े भिजवा दूंगा। इसके बाद उसे पता चल गया कि इन तिलों में तेल नाम के पदार्थ का अभाव है इसलिये अनुवाद कार्यक्रम वहीं खत्म हो गया तथा मैं स्टार लेखक होने से वंचित।

दरअसल हनी खिलाकर ट्रैप करनेवाले सदैव अपने पास ‘हनी’ की बोतल रखते हैं। अवसर मिलते ही शिकार के सामने रख देते हैं। इस में से दस-बीस भी यदि उनके कुड़के में फंस गये तो वे अपना ‘टारगेट’ पूरा कर लेते हैं। उनकी यह सेवा रात-दिन बराबर (अहर्निश सेवामहे) चलती रहती है।

जो लोग रंगीन मिजाज के होते हैं वे लोग पत्नी और बच्चों के सो जाने के बाद एकान्त में अश्लील वीडियो देखते हैं। ऐसे लोग कभी न कभी अवश्य चपेट में आते हैं। मेरे एक मित्र ने बताया कि उनके एक पड़ौसी ‘हनी ट्रैप’ प्रकरण में फंसकर चार लाख रुपये लुटवा चुके हैं। बेचारे न तो बच्चों के सामने बोल सकते हैं तथा न ही समाज के सामने मुँह खोल सकते हैं। वह तो एक प्रभावशाली व्यक्ति ने गुपचुप साथ जाकर पुलिस में शिकायत की किन्तु तब तक वे काफी पैसा गंवा चुके थे। ऐसे मामले आजकल आपको गाँवों, शहरों आदि में सैंकड़ों की संख्या में मिल जायेंगे। अधिकतर लोग मारे शर्म के चुप होकर बैठ जाते हैं। नौजवान पीढ़ी भी इस दलदल में फंसती जा रही है लेकिन में तो यहाँ महज साहित्य में ही ‘हनीट्रैप’ की बात कर रहा हूँ।

साहित्य में हनीट्रैप करने वाले साहित्यिक सूचनाओं से ‘अपडेट’ रहते हैं इसलिये वे वहीं से अपने लिये कोई ‘सॉफ्ट टारगेट’ ढूंढते रहते हैं और इस प्रकार मुझे भी एक दिन ढूंढ़ लिया गया। वैसे में यहीं एक बात स्पष्ट करहूं कि साहित्य में हनीट्रैप करनेवालों की स्थिति बड़े शिकारियों में चिड़ीमारों जैसी ही होती है। एक दिन मुझे राजीव फाउण्डेशन नाम की संस्था की ओर से एक पत्र मिला। जिसमें लिखा था, विभिन्न रचनाकारों की गत वर्ष में प्रकाशित रचनाओं के आधार पर आपकी रचनाओं को श्रेष्ठ पाकर आपको गत वर्ष का राजीव फाउंडेशन पुरस्कार घोषित किया जा रहा है, बधाई। कृपया आप अपना बायोडाटा भेज दें ताकि हम आगामी कार्यवाही कर सकें।

अब तो मैं फूले नहीं समा रहा था। पत्र को कई कोणों से पढ़ा लेकिन वह मुझे सच लग रहा था। मित्रों को दिखाने पहुँचा। उन्हें भी उसमें कोई ऐसी बात नहीं लगी जिससे कोई सन्देह किया जा सके। मैंने अपना बायोडाटा भेज दिया और उनके पत्र की प्रतीक्षा करने लगा। चौथे दिन वहाँ से फोन आया। कोई कह रहा था कि आपको अगले महीने की बीस तारीख को एक भव्य समारोह में यह पुरस्कार प्रदान किया जायेगा। अगले सप्ताह में आपको पत्र मिल जायेगा तब तक आप एक आवश्यक कार्यवाही पूरी कर लें। ‘अब कौनसी आवश्यक कार्यवाही शेष रह गई?” मैंने चौंकते हुये पूछा। वे कहने लगे, ‘आपको फाइव स्टार होटल में ठहराया जायेगा। उसके एक दिन का खर्च लगभग आठ हजार रुपये हैं। आप हमारा खाता नम्बर लिख लें तथा उसमें यह रकम जमा करवायें।

‘मैं तो वहाँ किसी धर्मशाला में ठहर जाऊँगा। मेरे लिये कमरा बुक न करवायें। मैंने कहा, क्योंकि अब मुझे उनका सारा खेल समझ में आ गया था। वह कहने लगा, ‘यह तो नियम है इसलिये जमा करवाना पड़ेगा।’ ‘नियम है तो आप ऐसा करें कि आधा पुरस्कार आप रख लें। मुझे पच्चीस हजार ही दे देना। ‘ऐसा कैसे हो सकता है? नियम तो नियम है।’ सामने वाला कुछ तैश में बोला। ‘मुझे बेवकूफ समझ रखा है क्या ?? मैंने भी उसी लहजे में जवाब दिया। फोन कट गया। इसके बाद मैं उनके पत्र की प्रतीक्षा करता रहा। शायद जिसने आठ हजार रुपये जमा करवा दिये होंगे, उसे भेज दिया गया होगा।

आजकल सुनने में आ रहा है कि पुरस्कार लेनेवाले पुरस्कार दाताओं को ही हनीट्रैप कर रहे हैं। पुरस्कार प्राप्त करने का इच्छुक सज्जन पुरस्कार प्रदाता संस्था के किसी अधिकारी को शहद चटाता है कि आप तो मेरे नाम की बस घोषणा कर दीजिये। मुझे और कुछ नहीं चाहिये। भगवान का दिया सब कुछ है। रचनाकार का नाम यदि ठीक-ठाक है तो बिना हींग फिटकरी लगने वाले काम में आयोजकों को भला क्या आपत्ति हो सकती है।

मैंने यह भी देखा है कि आजकल लोग अपने पूर्वजों का भी हनीट्रैप कर रहे हैं। वे उन्हें स्वर्ग में खुश करने अथवा उनका नाम अमर करने के लिये किसी संस्था के माध्यम से उनके नामों से पुरस्कारों की घोषणा करते हैं। फिर दो-तीन वर्षों बाद इसे फालतू खर्च मानकर अचानक बन्द कर देते हैं। बेचारे पूर्वज । अपने वंशचरों की करतूत पर सिवाय माथा पीटने के क्या करते होंगे। जिनके लिये उन्होंने उल्टे-सीधे काम किये और करोड़ों की कमाई से खजाने भर कर छोड़ गये वे वंशचर उनके लिये वर्ष में दस-बीस हजार भी खर्च नहीं कर सकते। पुरस्कारों के आयोजक वैसे तो लेखकों की रचनाओं की श्रेष्ठता निर्धारित करने के लिये निर्णायक भी चुनते हैं किन्तु यहाँ निर्णायक को भी हनीट्रैप कर लिया जाता है या वे स्वयं जब हनीट्रैप होने को आतुर हों तो कोई क्या कर सकता है। आयोजक को तो मालूम भी नहीं पड़ेगा। कुएँ में घुली भांग का नशा तो सभी को चढ़ता है। निर्णायक कौनसा किसी अन्य ग्रह का प्राणी है।

पुरस्कारों से लेकर पत्र-पत्रिकाओं में रचना प्रकाशित करवाने तक हनीट्रैप होते-करते सुना गया है। किसे दोष दें? साहित्य, समाज का ही तो दर्पण बताया जाता है। यहाँ तो मैंने अपने व्यक्तिगत अनुभव ही बताये हैं किन्तु यदि पूर्ण साहित्य पर नजर डालेंगे तो कई ग्रंथ भर जायेंगे। आजकल कौनसा पुरस्कार बचा है जिस पर अंगुली न उठी हो या उठाई नहीं जा सकती। यदि कोई रचनाकार इन छल-छद्‌मों से दूर रहना भी चाहता है तो वह अकेला पड़ने के लिये अभिशापित है।