मंगत कथन : .. जिसका हाथ थाम साहित्य सागर में पुरस्कारी गोता लगाएं, वही डुबा दें तो..!
RNE Special
मैं आज तक साहित्य रूपी समुद्र के किनारे पर ही बैठा रहा, कभी गहरे तक नहीं पैठा। इसलिये अभी तक में पुरस्कार रूपी मोती प्राप्त नहीं कर सका। मुझे तैरना भी नहीं आता इसीलिये बैठा इन्तजार कर रहा हूँ कि कभी तो कोई लहर आयेगी और मुझे सराबोर कर जायेगी। इस प्रकार में साहित्य में भी भाग्यवाद के सहारे बैठा रहा। मैंने सुना तो यही था कि यहाँ आनेवाला शीघ्र ही मोती, मूंगे आदि प्राप्त करने लगता है। अब मुझे लगने लगा है कि मैंने यहाँ आकर भी भाड़ ही झोंका है। कई लोगों ने मुझे गहरे तक उतरने की सलाह दी तो कई समझदार लोगों ने यह भी कहा कि किसी के बहकावे में मत आ जाना। अपने स्वाभाविक स्वरूप में बैठे रहो। ये वे लोग हैं जो आपको बन्दर बनाकर खुद भी तमाशा देखेंगे और दूसरों का भी मनोरंजन करेंगे। मैं उनकी बात मानकर किनारे पर ही बैठा रहा तो दूसरे कहने लगे, ‘यदि अन्दर ही नहीं उतरना तो यहीं क्या झख मारने आये हो? कोई दूसरा धंधा करो! देखी! हम तो गहरे पैठकर मोती ले भी आये। इसके बावजूद मेरी हिम्मत ही नहीं हुई। हालांकि वे खूब उकसाया दे रहे थे किन्तु में वहीं अड़ा रहा। किनारे ही पड़ा रहा। मैं समझ रहा था। वे वास्तव में मेरा उपयोग करना चाहते हैं। मुझे आगे करके स्वयं कोई पुरस्कार हस्तगत करके मुझे लतिया देंगे। मैं सावधान था।
साहित्यकारों के साथ रहने से इतना तो मैं समझ ही चुका था कि किनारे पर बैठे रहने में एक सुविधा है। वह यह कि आप जब चाहें जिसका चाहे दामन थाम सकते हैं या कहीं खिसक भी सकते हैं। जबकि मझधार में तो केवल एक को ही मजबूती से थामे रखना पड़ता है। यही माई-बाप है। बहुत सावधान रहना पड़ता है मझधार में। यदि वह डूबेगा तो साथ ही आपको भी ले डूबेगा। यह भी हो सकता है कि दामन थमाने वाला कब आप से ऊब जाये या निरर्थक समझले और धक्का दे दे। एक बार यदि उसने धक्का दे दिया तो आप तिनके के लिये भी ताकते ही रह जायेंगे। वहीं तो तिनका भी, तिनका नहीं बल्कि शहतीर होता है। जो आप को धक्का देता है वह इतना ताकतवर होता है कि उस तिनके तक भी आप को नहीं पहुँचने देता। वैसे इस विषय में पहले ज्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। यह सब आपकी तत्परता और चातुर्य पर भी निर्भर करता है।
किसी का दामन थामकर आप मझधार में स्वतंत्र नहीं हो सकते। राजनीति में भी कई लोग सालों साल मझधार में जिनको अपना आका मानकर उनका दामन थामकर बैठे रहे। वे अभी तक दरियां ही बिछा रहे हैं जबकि उनके बाद आनेवाले कई बहादुरलाल वक्ता भी हो चुके हैं। अन्ततः जब उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि इनके साथ मझधार में भी कुछ नहीं मिलनेवाला तो उनसे किनारा करके किनारे पर आकर अपना खुद का बेड़ा चलाने की ठान ली। वे अब कहते हैं सागर न सही, झील ही सही। यहाँ पर अपना साम्राज्य तो है। पिछला अनुभव काम आया। अब लोग उनकी कृपा कटाक्ष प्राप्त करने के लिये तरस रहे हैं। आज राजनीति हो या साहित्य सभी जगह यही होता है तथा जो यह कुछ करता है वही सफल होता है। वही आगे बढ़ता है। जो ऐसा नहीं कर पाते वे गहरे पानी में उतरकर भी ऐसे पैठते हैं कि कभी उबर ही नहीं पाते। डूब जाते हैं। यहाँ प्रोत्साहित करने वाले आपको अवसर देखकर आपका हाथ मझधार में छोड़ आप की स्थिति ‘माया मिली न राम’ जैसी करते हुये स्वयं किनारे पर बैठकर आपके डूबने के नजारे का आनन्द प्राप्त करते हैं। यहाँ आप को बचाने के लिये कोई नहीं आयेगा सब लोग किनारे पर खड़े-खड़े तमाशा देखते रहेंगे। मेरा किनारे पर बैठे रहने का वास्तविक कारण यही था।
यह बात नहीं कि मैंने मझधार में जाकर गहरे पानी में पैठने के लिये कभी सोचा नहीं। कभी-कभार सोचा भी तो कोई भरोसेमंद दामन ही नहीं मिला। वैसे किनारे पर बैठना कौन सी कम जिगरे की बात है। मछली पकड़ने वाला भी किनारे पर ही बैठता है और मछली फांस लेता है। मैं भी किनारे पर बैठकर मछली का इन्तजार करता रहा लेकिन कोई नहीं फंसी। किनारे पर बैठे-बैठे ही मोतियों की अपेक्षा करना उसी प्रकार की कवायद है जिस प्रकार आजकल हमारे वीर रस के कवि अखबार पढ़कर वीर रस की कविताएँ लिख देते हैं और कवि सम्मेलनों में उन्हें भुना भी लेते हैं। वे जब किनारे बैठकर मोती प्राप्त कर सकते है तो में क्यों नहीं। वीर रस की कविता लिखने के लिये मध्यकालीन कवियों की भाँति आज युद्ध में जाने की आवश्यकता नहीं। उसी प्रकार यह जरूरी नहीं कि श्रृंगारिक कवि अपनी किसी काल्पनिक प्रेयसि के पास बैठकर रस भरी बातें करे। ऐसे लोग अपना एक ‘कावि सम्मेलनी’ गुट बना लेते हैं और बरस दर बरस दस बीस कविताओं के बूते नाम-दाम कमाते रहते हैं। मैं ने इधर भी घुसपैठ की कोशिश की लेकिन मामला जमा नहीं। यहाँ से भी दुम दबाकर उसी प्रकार भागना पड़ा जैसे कश्मीर बोर्डर पर हमारे सैनिकों को देखकर पाकिस्तानी फौजी भागते हैं।
कवि लोग अपने बेड़े में किसी नये सदस्य को बड़ी अच्छी तरह ठोक-पीटकर और देख-परखकर ही सम्मिलित करते हैं क्योंकि कोई घुसपैठिया उनका जमा-जमाया खेल बिगाड़ सकता है। मैं इस सम्प्रदाय में भी दीक्षित होने से वंचित रह गया। इसका एक कारण यह भी था कि मैं किसी से प्रवंचित नहीं होना चाहता था क्योंकि दल का कैप्टन चाहता था कि मैं अपने मेहनताने की एक निश्चित राशि उसे समर्पित करूँ। यह मुझे स्वीकार्य नहीं था। एक दिन मुझे साहित्य के एक पंडित मिले। मैंने उनसे दीक्षा लेनी चाही। उन्होंने मेरा हाल जान कर कहा, ‘तुम साहित्य में भी अन्ततः पसियारे ही रहे। जाओ पास छोलो! यहाँ आकर भी यदि चाँदी नहीं कूटी तो लानत है। अपनी मास्टरी की तरफ ध्यान दो। ट्यूशने करो और मस्त रहो। तुम जिस ईमानदारी की बात कर रहे हो मुझे किसी भी क्षेत्र में कोई पाँच-सात नाम तो गिनवाओ। अकेले साहित्यकारों के पीछे ही क्यों लड्डु लेकर पड़े हो भाई। यह क्षेत्र तो हमारे लिये छोड़ दो ।’
उन्होंने यह भी कहा कि यदि तुम यह सोचते हो कि किनारे पर बैठकर सुरक्षित हो तो बिलकुल नहीं। तुम बड़ी गलतफहमी पाल रहे हो। बड़े-बड़े मगरमच्छ और हिंसक प्राणी धूप सेकने किनारे तक भी आ जाते हैं। वे एक लहर के साथ आते हैं और तुम्हारे जैसा मूर्ख उनका आसान शिकार होता है। उन्हें और क्या चाहिये। मझधार में डूब रहे व्यक्ति के लिये तो शायद सहायता पहुँच भी सकती है किन्तु किनारे पर बैठने वाले को तो किसी का निवाला बनना ही पड़ता है। अक्सर किश्तियाँ वहीं डूबती हैं जहाँ पानी कम होता है। इस प्रकार मुझे खूब डराया गया। यह भी कहा गया कि अब आपको यह निर्णय कर लेना चाहिये कि आप किस तरफ है अन्यथा आप की स्थिति घोबी के कुत्ते जैसी हो जायेगी।
न घर के रहोगे न घाट के। कहने को तो लोग यह कहते हैं कि हम स्वान्तः सुखाय रचना करते हैं। यदि ऐसा है तो क्यों पुरस्कार और सम्मान पाने के लिये दौड़ते हो ? क्यों उनके लिये प्रविष्टियाँ भेजते हो ? यदि आप किसी की नाव पर सवार हो जाओगे तो यह सब सहजता से मिल जायेगा नहीं तो ताउम्र दूसरों के समारोह में जाकर बजाते रहना तालियाँ। मेरे पास उन्हें कहने के लिये शब्द ही नहीं थे इसलिये चुप ही रहा। वे अपना दर्शन बधारते रहे। मैं उनके साथ बहस नहीं करना चाहता था इसलिये उनसे किनारा करना ही ठीक समझा।
राजनीति में तो मोती प्राप्त करने के लिये व्यक्ति को मझधार (सत्ता केन्द्र) में पहुँचना ही पड़ता है। प्रत्येक राजनेता येन-केन-प्रकारेण दल के नेता या आला कमान का ध्यान आकृष्ट करने के लिये ऐसी कलाबाजी दिखाता है कि उसे मंत्रिमंडल में लेना ही पड़ता है। कई बार जब दल-नायक को ऐसा लगता है कि पार्टी का अमुक व्यक्ति उसके लिये सरदर्दी पैदा कर सकता है तो वह उसे बड़ी सफाई से किनारे कर देता है। राजनीति में जबआलाकमान किसी को किनारे कर देता है तब वह व्यक्ति किसी दूसरे दल अथवा व्यक्ति का दामन थामने का प्रयत्न करता है। किनारे लगाने के बाद व्यक्ति कब गुमनामियों में खो जाये इस बात का पता ही नहीं चलता। तब उसका केवल इतिहास ही शेष रहता है वर्तमान नहीं, चाहे वह जीवित ही क्यों न हो? साहित्य में भी इस बात का खतरा बराबर बना रहता है। मैं अब तक इस बात से अनभिज्ञ था।