मंगत कथन : बड़े लोगों के साथ फोटो खिंचवाने के तरीके और फायदे!
RNE Special
मैं आजकल दुःखी चल रहा हूँ। सोशल मीडिया से जुड़ने के बाद, वहाँ दूसरों की पोस्ट देख-देख कर परेशान हो जाता है। मुझे ईर्ष्या होने लगती है कि लोग मेरे देखते ही देखते कितने महान हो गये हैं और एक मैं हूँ कि वहीं का वहीं पड़ा हूँ। सावन हरा न भादो सूखा। सोशल मीडिया में आने के बाद वे इतनी जल्दी शक्कर बन गये कि हमें अपने गुड़ बने रहने पर भी सन्देह होने लगा है। में आज तक स्वयं को तीसमार खां समझता रहा किन्तु जब सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पर आया तो पता चला कि ऊँट पहाड़ के पास जाकर कैसा अनुभव करता होगा। यहाँ आकर मुझे लगा कि मैं कितना अदना इन्सान हूँ। आज सुबह फेस बुक खोली तो पता चला कि आज हिन्दी के एक महान कवि की जयन्ती है। जिसने यह पोस्ट लगाई है लोग उसे बधाइयों और न जाने क्या-क्या दे रहे हैं। आज वे जीवित होते तो पिच्यानवें वर्ष के होते और फेस बुक देखते तो कितना प्रसन्न होते। मेरे कई मित्रों ने उनके साथ खिंचवाये गये अपने-अपने छाया चित्र भी लगा रखे हैं।
ये चित्र देखकर तो लगता है कि मेरे मित्र भी उन महान साहित्यकार से इक्कीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं हैं। में ऐसी फोटो कला का कायल हो गया। मुझे गर्व होता है अपने मित्रों पर किन्तु जब स्वयं की ओर देखता हूँ तो उसी प्रकार शर्म आने लगती है जैसे मोर को अपने पैर देखकर। मेरा किसी भी महान साहित्यकार के साथ एक भी फोटो नहीं है। यदि होता तो आज मैं भी उनके समकक्ष बड़ा हो सकता था। वैसे ये लोग किसी न किसी बड़े आदमी के साथ अपना फोटो लगाकर अपने महान होने का रुतबा फैलाकर मेरे जैसे लोगों को आतंकित करने में लगे रहते हैं।
आजकल लोग कुछ ज्यादा ही सकारात्मक सोचने लगे हैं। सामने वाला चाहे कैसा भी हो किन्तु यदि किसी बड़े पद पर है तो दस-बीस मिनट की बात के बाद चलने से पहले कहेंगे, ‘सर। प्लीज आपके साथ एक सेल्फी हो जाये। आपकी यह याद जिन्दगी भर हमारे साथ जुड़ी रहेगी। में इसे सहेज कर रखूंगा। इस प्रकार राजनेताओं, कलाकारों, समाज सेवकों आदि के साथ उनके पास एक अच्छा खासा संग्रह हो जाता है तथा वक्त जरूरत उसे भूनवाते भी रहते हैं। जिसके साथ उनका चित्र होता है वह चाहे उन्हें दुबारा पहचानने से इनकार करदे। इससे उन्हें कोई अन्तर इसलिये भी नहीं पड़ता क्योंकि उनके पास तो सबसे बड़ा सबूत जो है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि किसी बड़ी हस्ती की फोटो किसी अपराधी के साथ होती है। जब यह बात जगजाहिर होने लगती है तो तथाकथित हस्ती बड़ी कायरता से इनकार कर देती है कि उसे क्या पता कौन अपराधी है और कौन शरीफ यदि अपराधी था तो उस वक्त पुलिस ने पकड़ा क्यों नहीं? लगता है कि पुलिस और प्रशासन अपनी कमजोरी छिपाने के लिये उन पर इल्जाम थोप रहे हैं। असलियत जबकि यह होती है कि दोनों कारोबार में गुप्त साझेदार होते हैं।
बड़े लोगों के साथ फोटो खिंचवाने का फैशन नया नहीं है। यह सब पुराने जमाने में भी प्रचलित था। वास्तव में बड़े लोगों के साथ फोटो खिंचवाकर अपना कद बढ़ाकर दिखलाने का प्रयास है। उससे देखने वाला धौंस में आ जाये तो क्या बुरा है। कभी फोटो खिंचवाने का शौक पैसे वालों के लिये था। इसके लिये व्यक्ति को या तो स्टूडियों पर जाना पड़ता या फोटोग्राफर को अपने घर बुलाना पड़ता था। यह एक महंगा शौक था इसलिये आम आदमी इससे दूर ही रहता था। आम लोग किसी विशेष कार्य के लिये और विद्यार्थी परीक्षा फार्म भरते समय फोटो खिंचवाया करते थे किन्तु जब तकनीक का विकास हुआ तो बहुत से फोटोग्राफरों की दुकानों पर ताले लग गये। वे कोई दूसरा काम-धंधा करने लगे। मोबाइल क्रान्ति ने छोटे-छोटे बच्चों और गरीबों के हाथों में भी मोबाइल के माध्यम से कैमरे थमा दिये ताकि वे सारे कष्ट भूलकर अपनी ही छवि निहारते हुये खुद पर मुग्ध होते रहें। वैसे भी भारत अध्यात्म में संसार का अग्रणी है। उसके अनुसार सबसे पहले स्वयं को जानना आवश्यक है। फिर तो आत्मा के परमात्मा तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त हो ही जाता है। इस प्रकार मोबाइल क्रान्ति अध्यात्म की दिशा में बढ़ा हुआ एक ठोस एवं सकारात्मक कदम कहा जा सकता है।
मोबाइल कैमरे के माध्यम से वीडियो बनाकर आजकल छोटे से छोटा व्यक्ति भी प्रसिद्धि के सोपानों पर चढ़ रहा है। पहले लोग अपने जीवन में एक बार अखबार में नाम देखने के लिये तरस जाते थे किन्तु आजकल जब किसी का कोई फोटो आदि वायरल होता है तो उस पर सैकड़ो लाइक और कमेंट्स आ जाते हैं। इस प्रकार उस व्यक्ति को कितनी आत्म-तृप्ति मिलती होगी। उसका आनन्द तो कोई प्राप्तकर्ता ही बता सकता है। कोई छोटी सी दो-तीन मिनट की वीडियो क्लिप बनाकर आजकल सोशल मीडिया पर डालना आम फैशन हो गया है। इससे वे अपने भीतर के कलाकार के दर्शन लोगों को करवाते ही है साथ ही अपेक्षा करते हैं कि कोई बालीवुड का निर्माता इसे देख लेगा तो उसे सीधा मुंबई से बुलावा आयेगा। इस प्रकार अनगिनत गायक, संगीतकार, चित्रकार, कलाकार, गीतकार, लेखक आज सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। हरेक हाथ को यहाँ चाहे काम न मिले किन्तु हरेक हाथ में मोबाइल जरूर होना चाहिये। इसके लिये हरेक राजनीतिक पार्टी की मौजूदा एवं आने वाली सरकारें कृत संकल्प है। चुनावी वायदों में एक यह भी होता है कि उनकी सरकार आ गई तो वह हरेक हाथ को निःशुल्क मोबाइल उपलब्ध करवायेगी। जहाँ तक रोटी का सवाल है वह तो जिसने चोंच दी है चुग्गा देगा ही। इसमें चिन्ता की कौनसी बात है, चुग्गा देना भगवान के कर्तव्यों में शामिल है।
फोटो खींचना ही नहीं बल्कि खिंचवाना भी एक कला है। जो व्यक्ति इस कला से अनभिज्ञ है वह कभी अच्छा फोटो खिंचवा भी नहीं सकता। मैंने ऐसे लोग भी देखे है जो प्रत्यक्षतः तो प्रभावित नहीं कर पाये किन्तु जब उनको फोटो में देखा तो मैं चमत्कृत हो गया। ऐसे लोगों के चेहरे को फोटोजनिक कहा जाता है। अधिकतर फिल्मी अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के चेहरे फोटोजनिक होते हैं। वे अपने चेहरे से इतना प्रेम करते हैं कि आत्म सम्मोहन के शिकार हो जाते हैं। ये लोग अपने चेहरों का बड़ा ध्यान रखते हैं क्योंकि वह उनकी कमाई का साधन है। पहले चेहरा पसन्द आयेगा तभी तो अभिनय देखा जायेगा। आजकल हमारे युवा वर्ग के आदर्श भी यही लोग हैं इस कारण उनके जीवन में भी यही कृत्रिमता प्रवेश कर गई है। वैसे आज समाज में ऐसे बहुत कम चेहरे हैं जिन्हें हम आदर्श मानकर उनका अनुकरण कर सकें। किसी ने फिल्म अभिनेता को, किसी ने नेता को आदर्श माना लेकिन अन्ततः उनका मोह भंग हो जाता है। कवि धूमिल के शब्दों में कहूँ तो “जिसकी भी पूंछ उठाकर देखा मादा निकला।”
राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनीति, धर्म या समाज में कोई ऐसा आदर्श नजर ही नहीं आता जिसके चेहरे पर कोई दाग न हो। फिर हम नई पीढ़ी को क्या दे रहे हैं। क्या देंगे? वही चेहरे जो बार-बार उनके सामने आते हैं उन में से ही वह अपने लिये कोई आदर्श चुनेगा। वह चाहे राजनीति से हो या फिल्म जगत से। वे अपने आदर्शों के पद चिह्नों पर चलते हुये उनके जैसा बनने का ही प्रयास करेंगे।
हम पुराने जमाने की बात कर रहे थे। वे लोग फोटो खिंचवाते वक्त अपने चेहरे को रौबीला एवं प्रभावशाली बनाने की कोशिश करते थे। मूंछों पर ताव देकर अपने हाथ में एक छड़ी पकड़े हुए फोटो खिंचवाने अकड़कर बैठते थे। जो लोग बड़े-बड़े नेताओं आदि के साथ फोटो खिंचवा लेते थे या किसी प्रकार वे फोटो में आ जाते थे तो लोग उसे फ्रेम में जड़वाकर अपनी बैठक (ड्राइंग रूम) में सजाते थे ताकि आने-जाने वालों पर अच्छा प्रभाव पड़े। पुरानी बैठकों में दो-दो कतारें तो इसी प्रकार के फोटुओं से सजी रहती थीं। दस मिनट यदि कोई घर का आदमी न भी आ पाता तो आगन्तुक ये फोटो देखकर ही घरवालों की महानता के बारे में अनुमान लगा लिया करता था। वह उस घर में लगी एक भांति से फोटो प्रदर्शनी ही हुआ करती थी। इन फोटो से आगन्तुक पर एक अच्छा प्रभाव पड़ता था। फोटोग्राफी का धंधा इज्जतवाला और अच्छा कारोबार माना जाता रहा है। विदेश यात्राओं में हमारे मंत्रिगण फोटोग्राफरों को अपने साथ लेकर चलते।
आधुनिक युग में तो इस कला को लोगों ने नये आयाम दिये हैं। किसी भी व्यक्ति की फोटो लेकर उसे इस प्रकार परिवर्तित कर दिया जाता है कि देखने वाला कुछ अनुमान भी नहीं लगा सकता। ट्रिक फोटोग्राफी द्वारा लोगों के अश्लील चित्र या वीडियो बनाकर उन्हें ब्लैक-मेल किया जाता है। बदमाश लोगों ने इसे धन कमाने का एक धंधा बना लिया है। देश-विदेश में ऐसे अपराध करने वाले सैंकड़ों गिरोह हैं। वे कानून और सरकारों की आँखों में धूल झोंककर धन कमा रहे हैं। यहाँ उपभेक्ता केवल खरबूजा बन कर रह जाता है। यह भी हो सकता है कि ऐसे गिरोहों को पुलिस या राजनेताओं का सम्बल प्राप्त हो। मोबाइल बनाने वाली कम्पनियों ने भी कदाचित इनके ऐसे प्रयोग किये जाने के विषय में सोचा ही नहीं होगा। अब भाँति-भाँति की डिवाइस लगाकर ऐसे अपराधों को रोकने के प्रयत्न किये जा रहे हैं किन्तु अपराधियों और पुलिस में तू डाल-डाल मैं पात-पाल का खेल चल रहा है। प्रत्येक देश ने साइबर कानून बनाये हैं। इस प्रकार फोटोग्राफी और बातचीत करने का छोटा सा उपकरण हमें कहाँ ले जाया है? आज कोई व्यक्ति हजारों मील दूर बैठा बड़ी आसानी से मोबाइल के माध्यम से अपराध करके इसलिये बच जाता है क्योंकि हमारी पहुँच वहीं तक नहीं होती। आज छोटे-छोटे बच्चे अश्लील वैबसाइट खोलकर देखते हुये असमय जवान हो रहे हैं। इसे उन्नति कहेंगे या अवनति। तकनीक का विकास जय नैतिक मूल्यों के द्वास की कीमत पर होता है तो मानवता किस दिशा में जायेगी इसकी चिन्ता कीन करेगा ?
बड़े लोगों के साथ फोटो खिंचवाने के मोह के प्रत्यक्ष दर्शन आप को उस समय हो सकते है जब किसी बड़े संस्थान, विश्वविद्यालय, महाविद्यालय अथवा साहित्यिक कार्यक्रम आदि में पुरस्कार वितरण, अलंकार या सम्मान प्रदान किया जाता है। कई बार शातिर अपराधी ऐसे अवसरों का लाभ उठाकर नेताओं, मंत्रियों तक के साथ फोटो खिंचवा लेते हैं जिसका खामियाजा उन्हें अपने राजनीतिक जीवन में उठाना पड़ जाता है। इन अवसरों पर सम्मान प्रतीक तो कम होते हैं किन्तु उन्हें प्रदान करने वाले अनेक। उनकी संख्या पर कोई रोक नहीं और न ही कोई आचार संहिता बनी। कई बार तो सम्मान प्रतीक इतनी दूर रह जाता है कि दो-तीन लोगों के हाथ भी उस तक नहीं पहुँच पाते। वह अपने साथ वाले का हाथ अपने हाथ से छूकर ही संतोष प्राप्त कर लेता है। सम्मान प्रतीक के साथ जो शॉल, नारियल आदि दिये जाते हैं उन्हें भी अलग-अलग व्यक्ति देकर खुद तो धन्य होते ही हैं प्राप्त कर्ता को भी धन्य कर देते हैं। ऐसे फोटो या दृश्य जब मैं देखता हूँ तो सोचता हूँ यहीं कहावत उलट गई लगती है यानी कि “सौ अनार एक बीमार।”