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अदब की बातें : नाटक को अहमियत तो मिली आखिर

 
नाटक को अहमियत तो मिली आखिर एक समय में बीकानेर को उत्तर भारत की नाट्य राजधानी कहा जाता था। उस समय कई रंग संस्थाएं समान रूप से गतिशील थी और हर अभिनव रंग प्रयोग बीकानेर में होते थे। बीकानेर का पूरा रंगमंच अव्यावसायिक था, इस कारण पवित्र भी था। अदब की बातें : नाटक को अहमियत तो मिली आखिर मगर धीरे धीरे इसकी निष्ठा में कमी आई। कुछ लोग छोड़ गए तो कुछ निष्क्रिय हो गये। मगर सबसे ज्यादा नुकसान किया अनुदान लेने की वृत्ति ने। सभी सरकार से पोषित संस्थानों के अनुदान के पीछे दौड़ने लगे। नाटक के प्रति समर्पण व प्रतिबद्धता खत्म सी हो गई। अब तो हालत और भी ज्यादा खराब हो गई। कईयों ने तो नाटक को फास्ट फूड बना लिया है। रिहर्सल से लेकर प्रदर्शन तक यही होता है। मगर ऐसा भी नहीं है, कुछ लोग अब भी गम्भीरता से थियेटर करते हैं। पूरा श्रम लगाते हैं और बेहतर प्रदर्शन के लिए जी तोड़ प्रयास करते हैं। अदब की बातें : नाटक को अहमियत तो मिली आखिर नाटक को दर्शक कम मिलने लग गये, ये भी बड़ी सच्चाई है। ये हाल तो हर बड़े शहर का है। इस बीच बीते रविवार को एक सुखद अहसास यहां के रंगकर्मियों व रंगमंच को जरूर हुआ। जब अजीत फाउंडेशन ने ' हिंदी रंगमंच में बीकानेर का योगदान ' विषय पर संवाद रखा। अजीत फाउंडेशन ही इस तरह के गंभीर प्रयास कर सकता है, उसी से उम्मीद बची है। उसने इससे पहले लघुकथा पर भी संवाद किया था। नही तो आजकल लोग 3 - 4 कवि बुलाते हैं। श्रोता 10 भी नहीं होते और खबर में भी कवियों की, मुख्य अथिति की या टिप्पणीकार की बात नहीं अपनी बात लिखते हैं। ताकि अखबार में खबर छप जाये, उनकी वाहवाही हो जाये और वे आत्ममुग्ध हो खुद को बड़ा साहित्यकार मानने लग जाये। बेचारे कवि, मुख्य अतिथि या टिप्पणीकार खबरें देख सोचते भर रह जाते हैं। मगर अजीत फाउंडेशन ने नाटक पर चर्चा कर एक पुनीत कार्य किया। अदब की बातें : नाटक को अहमियत तो मिली आखिर सबसे अधिक श्रम साध्य काम किया मुख्य वक्ता दयानन्द शर्मा ने। उन्होंने बीकानेर के 100 साल से अधिक के नाट्य इतिहास का संकलन किया। सबके रंग अवदान को रेखांकित किया। एक ऐसी सूची बनाई जिसमें बीकानेर के नाट्य लेखक, निर्देशक, अभिनेता, अभिनेत्रियां, रंग संस्थाएं आदि थे। ये काम बीकानेर में पहली बार हुआ है जिसके लिए दयानन्द जी का रंगमंच को अहसानमंद होना चाहिए। नाटक पर बात की, उसके लिए अजीत फाउंडेशन को भी सेल्यूट बनता है। काश, बीकानेर रंगमंच के सुनहरे दिन वापस लौंटे। आमीन....! अदब की बातें : नाटक को अहमियत तो मिली आखिर नागरी भंडार ने निभाई फिर परंपरा शरद पूर्णिमा पर एक समय मे स्व गोपाल जोशी जी अपनी होटल की छत पर साहित्यिक आयोजन करते थे। जिसका हिस्सा शहर का हर छोटा बड़ा साहित्यकार बनता था। उनका कला, साहित्य से गहरा अनुराग था। वे इसी कारण इस शहर के लाडले विधायक भी थे, वो भी 3 बार। अब तो वो आयोजन होता नहीं। अदब की बातें : नाटक को अहमियत तो मिली आखिर शरद पूर्णिमा पर काव्य धारा बहाने की परंपरा को अंगेजा श्री जुबिली नागरी भंडार ने। सबसे पुरानी इस साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था ने अब अपनी छत पर शरद पूर्णिमा पर काव्य निशा आयोजित करनी आरम्भ की है। ये स्वस्थ परंपरा भंडार से जुड़े नंदकिशोर सोलंकी के व्यक्तिगत प्रयासों का प्रतिफल है। वे इस संस्था के गौरवमयी इतिहास के अनुरूप वर्तमान में भी वही स्वरूप बनाने के लिए प्रयासरत है। इस बार भी छत पर कवि सम्मेलन हुआ। हिंदी, राजस्थानी व उर्दू के दर्जनों कवियों ने रचना पाठ किया। श्रोताओं ने सुनकर आनन्द लिया। ये परंपरा बीकानेर जैसे शहर और नागरी भंडार जैसी संस्था से ही सम्भव है। अदब की बातें : नाटक को अहमियत तो मिली आखिर बीकानेर में हर भाषा के अच्छे कवि हैं और लिखते भी खूब हैं। मगर सबको एक साथ पढ़ने के लिए बुलाना थोड़ा सुनने वालों के लिए मुश्किल खड़ी कर देता है। अगर इसमें वरिष्ठ व युवाओं का समिश्रण कर संख्या कम कर दी जाए तो और बेहतर हो जायेगा। जो रोज सुनाते ही रहते हैं, उनको छोड़ा भी जा सकता है। नई प्रतिभावान पौध को अधिक अवसर मिले तो सकारात्मक परिणाम भी मिल सकते हैं। बहरहाल, नागरी भंडार व नंदकिशोर सोलंकी इस बेहतरीन परंपरा के लिए साधुवाद के पात्र तो है ही। अदब की बातें : नाटक को अहमियत तो मिली आखिर हूं लाडे री भूवा हूं बीकानेर के साहित्य जगत में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आयोजनों में जाते नहीं, ये भी है कि उनको कोई बुलाता नहीं। अब उपस्थिति कैसे दर्ज हो, इसकी तो जुगत वो ढूंढते ही है। उस आयोजन पर सोशल मीडिया में टिप्पणी कर बैठते हैं, जिसे देखा नहीं, सुना नहीं। वो भी व्यंग्य में, क्योंकि अपने आपको इस विधा में तुररमखां समझने का वहम जो पाले हुए हैं। अब जिनको बड़ा छपास रोग हो वो कैसे चुप रहते। खुद जो जुर्म करते हैं वे भी उसी जुर्म की खिलाफत करते सोशल मीडिया पर नजर आए। वो भी खुद को पूरा दागदार होने के बाद भी दागरहित दिखने की नाकाम कोशिश करते। अब जमात में सिक्का तो जमाना ही था तो झूठ ही सही, लिख डाला। भगवान बचाये इन ' हूं लाडे री भूवा ' से।

मधु आचार्य ' आशावादी ' के बारे में  अदब की बातें : नाटक को अहमियत तो मिली आखिर
मधु आचार्य ‘आशावादी‘ देश के नामचीन पत्रकार है लगभग 25 वर्ष तक दैनिक भास्कर में चीफ रिपोर्टर से लेकर कार्यकारी संपादक पदों पर रहे। इससे पहले राष्ट्रदूत में सेवाएं दीं। देश की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में आचार्य के आलेख छपते रहे हैं। हिन्दी-राजस्थानी के लेखक जिनकी 108 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। साहित्य अकादमी, दिल्ली के राजस्थानी परामर्श मंडल संयोजक रहे आचार्य को  अकादमी के राजस्थानी भाषा में दिये जाने वाले सर्वोच्च सम्मान से नवाजा जा चुका हैं। राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के सर्वोच्च सूर्यमल मीसण शिखर पुरस्कार सहित देशभर के कई प्रतिष्ठित सम्मान आचार्य को प्रदान किये गये हैं। Rudra News Express.in के लिए वे समसामयिक विषयों पर लगातार विचार रख रहे हैं।
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