मेरी काव्य साधना सौदा या व्यापार नही… कहां रहे ये कहने वाले कवि
स्मृति शेष- बुलाकी दास ‘ बावरा ‘
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अभिषेक पुरोहित/ मनोज आचार्य
RNE, Bikaner.
सच कि बावरा हूं
लेकिन
मैं मद का हथियार नहीं
जिसमें लक्ष्मी का अर्जन हो
मैं उस वीणा का तार नहीं
मेरी काव्य साधना
कोई सौदा या व्यापार नहीं
मेरा परिचय पौरुष सा
जो हार गया
पर लाचार नहीं
मैं किसी सिकन्दर के आगे
झुकने को तैयार नहीं
बेबाकी से इस तरह अपना परिचय वही कवि दे सकता है जो शब्द की साधना करता हो। जिसके लिए कविता जीने का सलीका हो। जो हक की हर लड़ाई का सिपाही हो। जो आम आदमी की बात आम आदमी की भाषा में करता हो। इस तरह की कविता करने वाला ही जन कवि होता है। क्योंकि न केवल वो जन की बात करता है अपितु जन के मन में भी बसा रहता है। बीकानेर जैसी साहित्यिक नगरी में ये दर्जा गिने चुने कवियों को ही हासिल हुआ है। उन्हीं में से एक थे बुलाकी दास ‘ बावरा ‘।
साहित्य में सबसे कठिन विधा काव्य होती है और वो बिना साधना के सम्भव नहीं। साधना करने वाला ही विधा के अतीत को जानता है और वर्तमान में रचकर भविष्य के लिए लोगों को संदेश देता है। ये कर्म ऋषि कर्म भी है। बावरा कवि के रूप में ऋषि थे। तभी तो जन जन के प्यारे थे।
मंचों से जब वे अपनी बुलंद आवाज के साथ कविता पढ़ने के लिए खड़े होते थे तो सामने की श्रोताओं की बड़ी भीड़ की सांसे थम सी जाती थी। उनको पता होता था कि अब उनकी बात होगी, उनकी भाषा में बात होगी और नई बात होगी। शब्दों की जुगाली नहीं होगी। न अति बौद्धिकता होगी। जो कहा जायेगा वह सहज, सरल और सीधा सीधा होगा। इसी कारण तो बावरा के गीत लोग साथ में गुनगुनाते थे। बाद में याद करके गाते थे। एक कवि को जीवन में इससे बड़ा पुरस्कार क्या चाहिए कि उसके लिखे गीत लोग गायें, कविता सुनाये। तभी तो वो जन कवि बनता है। ये सुख बुलाकी दास ‘ बावरा ‘ को मिला था, मिला हुआ है।
सृजन की दिशा दे
ह्र्दय गाती मिरहर
मुझे ज्ञान दे मां
मैं जड़ हूं, निरक्षर
आज ये सरस्वती वंदना अनेक सांस्कृतिक, साहित्यिक आयोजनों में गाई जाती है। अनेक स्कूल, कॉलेजों में बच्चे तन्मयता से गाते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि मां सरस्वती की ये आराधना, वंदना बावरा ने लिखी है। बावरा की इस वंदना का एक एक शब्द मन से निकला है। तभी तो छोटा या बड़ा जब इसे गाता है तो आंखे बंद हो जाती है, हाथ स्वतः जुड़ जाते हैं और मन से एक एक शब्द उच्चारित होता है। ये रचना व रचनाकार की शक्ति होती है जो गाने वाले के भीतर उतर जाती है। बावरा के पास भाषा का वैशिष्ट्य था। वे आम आदमी की भाषा से लेकर अकादमिक स्तर तक की भाषा को बहुत सहजता से लिखते थे। इसी वजह से हिंदी साहित्य में उनका विशिष्ट स्थान था।
स्व हरीश भादानी तभी तो अपने अंदाज में कहते थे कि बावरा होना हरेक के बस की बात नहीं। भादानी उनको समकालीन कविता का मजबूत हस्ताक्षर कहते थे।
बावरा ने आम आदमी की पीड़ा को सदा अपनी रचना के केंद्र में रखा। गरीब, मजदूर, किसान के मन की बात को वे रचनाओं में स्वर देते थे। कहते हैं ना कि रचनाकार बेख़ौफ़ होता है और सच कहने से डरता नहीं है, उसी को अपने जीवन में चरितार्थ किया था बुलाकी दास ‘ बावरा ‘ ने। सत्ता से ख़ौफ़ नहीं, पूंजीपति से डर नहीं, पीड़ित, शोषित व गरीब के पक्ष में ही उनकी कविता सदा खड़ी दिखती रही है। तभी तो इस कवि को जीवन में कभी भी पुरस्कार, पैसे, सम्मान की चाह ही नहीं रही। कविता लिखकर वे अपने श्रोता व पाठक से ही इन सबको पाते थे।
फक्कड़ तबीयत के कवि बावरा के चुनावी गीत तो आज भी लोगों के जेहन में है। कविता चुनाव में बड़ा हथियार हो सकती है, ये स्थापित करने का काम भी बावरा ने ही किया। उस समय की उनकी कविताएं साफ दर्शाती है कि उनको सत्ता व सरकारों से कोई डर नहीं था, वे सच को सच कहने की हिम्मत रखने वाले रचनाकार थे। समाजवादी विचारों का उन पर प्रभाव था और इसी वजह से वो गरीब के हित की सदा बात करते थे।
किसे छलेगी और न जाने किस किस को लालचएगी
जाने किस को ‘ मत की दुल्हन ‘ वरमाला पहनाएगी
ये गीत अब भी लोगों को याद है। जिसमे सहज प्रतीकों के माध्यम से बड़ी राजनीतिक बातें कही इस कवि ने। बड़े राजनीतिक दर्शन की इस श्रृंखला की कविताओं ने जन के मानस को जागृत करने का काम किया और बड़े उलटफेर का आधार भी बनी। ये कविताएं चुनाव आते ही लोगों को स्वतः याद आ जाती है। जन जन में रची बसी है उनकी कविताएं। बावरा ने हिंदी के साथ साथ राजस्थानी में भी सृजन किया। उनकी राजस्थानी कविताओं व गीत में माटी की सुगंध बसी है। ग्रामीण परिवेश व जन जीवन बोलता नजर आता है।
चालो पाणी ल्यावण ने
पणिहारी का उनका गीत वर्षों के बाद भी लोगों को याद है। पानी लेने के लिए जाने वाली युवती के सौंदर्य के साथ रेत, धोरे, तालाब, महिलाओं का पहनावा, उनके आभूषण सहित अनेक चीजों का सुंदर चित्रण इस गीत में हुआ है। बावरा को बेजोड़ कवि बताते हुए डॉ अर्जुन देव चारण कहते हैं कि उनका राजस्थानी काव्य अनुपम है। श्रृंगार का ये रूप मध्यकाल में देखने को मिलता था या फिर बावरा के गीतों में। डॉ चारण ने उनको मायड़ भाषा का लाडला कवि बताया। कवि भवानी शंकर व्यास विनोद, सरल विशारद उनको जनता का कवि कहते हैं। बावरा ने हरिवंश राय बच्चन के साथ उस समय के अनेक कवियों के साथ काव्य पाठ करके ख्याति पाई। बावरा की काव्य विरासत को उनके पुत्र संजय पुरोहित ने संभाला है।
बावरा की ये पंक्तियां उनके काव्य सोच को साफ जता देती है—
दीप से दीप जलाओ
अभी अंधेरा है
अभी रात का पहरा बाकी
दूर सवेरा है…
सच है, कवि तो बहुत बन सकते हैं मगर बावरा बनना नामुमकिन है। आज जिस दौर से व्यक्ति व समाज गुजर रहा है, उसमें बावरा जैसे कवि की जरूरत है। जो बेबाक हो, व्यक्ति के हित में खड़ा होता हो और उसकी बात उसकी भाषा में करता हो।