SAHITYA AKADEMI : विद्यानिवास मिश्र जी के कलाचिंतन, लोक संस्कृति और आलोचना साहित्य पर हुई चर्चा
विद्यानिवास मिश्र की जन्मशतवार्षिकी के अवसर पर आयोजित दो-दिवसीय संगोष्ठी का समापन

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साहित्य अकादेमी द्वारा विद्यानिवास मिश्र की जन्मशतवार्षिकी के अवसर पर आयोजित दो-दिवसीय संगोष्ठी का आज समापन हुआ। आज का प्रथम सत्र ‘विद्यानिवास मिश्र का कला चिंतन’ विषय पर था जो नर्मदा प्रसाद उपाध्याय की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ।
इसमें माधव हाडा एवं ज्योतिष जोशी ने अपने विचार व्यक्त किए। सर्वप्रथम बोलते हुए श्री जोशी ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र की कला दृष्टि बहुत ही व्यापक और अपूर्व थी। उन्होंने अपने विशलेषण में पारंपरिक कला दृष्टि का पक्ष लिया। वे कला को संपूर्णता को मापने का पैमाना मानते थे। विद्यानिवास मिश्र की दृष्टि में कला भारतीय समाज की सामूहिकता को प्रदर्शित करने वाली थी। उन्होंने आधुनिक भारतीय कला को भी नैतिकता और भारतीय मनीषा तथा उसकी चिंतन के परिप्रेक्ष्य में देखा और विवेचित किया।
माधव हाडा ने कहा कि भारतीय कला की निर्भरता मिथकों पर है और वे निरंतर रूपांतरित होते रहते हैं। मिश्र जी की दृष्टि में भारतीय कला में एकरूपता का कोई नियम नहीं है। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में नर्मदा प्रसाद उपाध्याय ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र भारतीय कला के जीवंत अधिवक्ता थे। वे कला में इतने रम चुके थे कि कला उनमें स्वयं मूर्तिगत हो चुकी थी। उन्होंने जीवन और कला को एक-दूसरे से अलग नहीं समझा। उन्होंने खजुराहो के शिल्पों को संभावना के शिल्प में देखा। उन्होंने कालिदास के माध्यम से भारतीय कला को समझा और उसी की उदार परंपरा को अपने विवेचन का आधार बनाया।
अगला सत्र भारतीय परंपरा के संवाहक विद्यानिवास मिश्र पर केंद्रित था, जो नंदकिशोर आचार्य की अध्यक्षता में संपन्न हुआ और इसमें चित्तरंजन मिश्र, राधावल्लभ त्रिपाठी और वागीश शुक्ल ने अपने आलेख प्रस्तुत किए।
ऑनलाइन जुड़े वागीश शुक्ल ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र संस्कृत के विद्वान होते हुए भी पश्चिमी धारणाओं के गहरे अध्येता था और उनके साथ उनका लंबा संवाद भी रहा। उन्होंने वेद, संस्कृत, हिंदी साहित्य, लोक साहित्य और भारतीय संस्कृति को एक ही नजर से देखा और परखा।
चित्तरंजन मिश्र ने कहा कि उन्होंने औपनिवेशिक पंरपराओं के बरक्स भारतीय परंपरा को अपने लिखने पढ़ने का आधार बनाया। उनके लिखे को गहराई से समझने के बाद ही हम उनको अच्छी तरह जान समझ सकते हैं। विद्यानिवास मिश्र की नजर में भारतीय संस्कृति ‘सबकी ओर से सबको देखने का उपक्रम है’ विद्यानिवास मिश्र जी का मानना था कि हम ही केवल लोक को नहीं देखते बल्कि लोक भी हमें देखता है।
राधावल्लभ त्रिपाठी ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र अपने लोक शास्त्र के लिए तीन प्रमाण लोक, वेद और अध्यात्म पर निर्भर होते हैं। वे मानते हैं कि लोक पर ही सारा जीवन टिका है। विद्यानिवास मिश्र हमेशा परंपराओं को नवीन बनाने का संकल्प लेते हैं और उसे उसी तरह व्याख्यायित करते है।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में नंद किशोर आचार्य ने कहा कि भारत की परंपरा मूलतः ऋत् परंपरा है। प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी रूप में पूरे विश्व से जुड़ा है। विद्यानिवास मिश्र पाँच ऋण और पाँच महायज्ञ की बात करते हैं। वे मानते हैं कि ऋण चुकाने का भाव समाज से जुड़ने का प्रयास है। उन्होंने भारतीय परंपरा में जैन और बौद्ध धर्म की परंपराओं को शामिल न करने पर भी सवाल उठाया।
विद्यानिवास मिश्र की लोक संस्कृति और आलोचना साहित्य पर रामदेव शुक्ल की अध्यक्षता में हुए अंतिम सत्र में सुरेंद्र दुबे, कृष्ण कुमार सिंह, विद्याबिंदु सिंह, अनुराधा गुप्ता ने अपने आलेख प्रस्तुत किए।
कृष्ण कुमार सिंह ने कहा कि विद्यानिवास मिश्र जी का गद्य देश के सबसे बेहतरीन गद्य का नमूना है। पंडितजी के निबंध भारतेंदु मिश्र, हजारी प्रसाद द्विवेदी की परंपरा में आते हैं और उन्हें हसमुख गद्य कहा जाता है। उनकी भाषा से हजारों लोगों ने सुघड़ भाषा को पढ़ने का आनंद उठाया है।
विद्याबिंदु सिंह ने विद्यानिवास मिश्र जी द्वारा शिष्य पंरपरा को पोषित करने के कई उदाहरण देते हुए कहा कि वे बहुत सहृदयता के साथ अपने शिष्यों का ध्यान रखते हैं और उनके लोकगीतों और लेखों में लोकचरित्र को बेहद मिठास के साथ याद किया।
सुरेंद्र दुबे ने कहा कि उनका साहित्य लोक और संस्कृति दोनों से बेहद समृद्ध है। उनका लोक पुरातन/इतिहास या अतीत नहीं बल्कि सतत् और गतिमान है। इसीलिए वह लंबी यात्रा तय करता है। उनका लोक शास्त्र और उनका शास्त्र लोक से उदाहरण लेता है। अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में रामदेव शुक्ल ने विद्यानिवास मिश्र के व्यक्तित्व निर्माण में जिन लोगों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही उनका उल्लेख करते हुए बताया कि उन्होंने कभी भी विद्वता पर कोई दंभ नहीं पाला और निरंतर अपने कार्य में संलग्न रहे। उन्होंने अपने साहित्य को स्वदेश के रूप में देश के कोने-कोने तक पहुँचाया। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में लेखक, विद्वान, छात्र-छात्राएँ, शोधार्थी और पत्रकार उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन अकादेमी के उपसचिव देवेंद्र कुमार देवेश ने किया।