राजस्थान उप-चुनाव 2024 : भाजपा ने पांच सीटें जीतीं, छठी मात्र 2300 से हारी, 7वीं में हार का अंतर 45 हजार घटाया
- जिन सात सीटों पर चुनाव हुआ उनमें से एक ही थी भाजपा के पास, कांग्रेस ने 03, आरएलपी ने इकलौती सीट खोई
धीरेन्द्र आचार्य
राजस्थान में हुए विधानसभा उपचुनाव के नतीजों ने जबरदस्त चौंकाया है। चौंकना इसलिये क्योंकि जिन सात सीटों पर उपचुनाव हुए उनमें से पहले भाजपा ने एक पर ही जीत दर्ज की थी। वह थी सलूंबर। लोकसभा चुनाव में प्रदेश की 25 में से 11 सीटें जीतकर कांग्रेस-विपक्ष उत्साह में था। दूसरे जिन सात सीटों पर चुनाव हुए उनमें सात में से चार कांग्रेस जीत चुकी थी। कांग्रेस के एक विधायक का निधन और तीन सांसद बन जाने से ये सीटें खाली हुई। ऐेसे में कांग्रेस की स्वाभाविक बढ़त वहां लग रही थी। भाजपा ने इन चार में से तीन सीटें हथिया ली। एक सीट दौसा रह गई जो मंत्री किरोड़ीलाल मीणा के भाई जगमोहन मीणा लगभग 2300 वोटों से हारे। इसी एक सीट पर कांग्रेस को जीत मिली। मतलब यह कि बाजी वहां भी पलटने जैसी ही रही।
हर सीट की खास कहानी: 21 साल बाद झुंझुनूं में जीत
झुंझुनूं में भाजपा को बड़ी जीत मिली है। भाजपा प्रत्याशी राजेन्द्र भांभू ने कांग्रेस के अमित ओला को लगभग 43 हजार वोटों से हराया है।
इस जीत में जहां एक बड़ी बात यह है कि ओला परिवार के राजनीतिक वारिस और सांसद बृजेन्द्र ओला के बेटे को हराकर भांभू ने चौंकाया। यह सीट भी कांग्रेस के बृजेन्द्र ओला के सांसद बनने से खाली हुई थी। उनके बेटे मैदान में थे, ऐसे में उनकी जीत के आसार ज्यादा लग रहे थे। इस लिहाज से जहां भाजपा की जीत ने चौंकाया, वहीं दूसरी बड़ी बात यह है कि झुंझुनूं सीट पर भाजपा को 21 साल बाद जीत मिली है। इस सीट पर आखिरी बार भाजपा ने 2003 में जीत दर्ज की थी। तब भाजपा प्रत्याशी सुमित्रा सिंह थी।
खींवसर में 05 चुनाव हनुमान-परिवार ने जीते:
खींवसर विधानसभा सीट 2008 में बनी और पहली बार इस सीट से हनुमान बेनीवाल भाजपा से जीते। तब से अब तक इस उप चुनाव सहित छठा चुनाव हुआ है। इनमें से चार बार हनुमान बेनीवाल और एक बार उनके भाई नारायण बेनीवाल जीते। मतलब यह कि पांच चुनाव में बेनीवाल परिवार से बाहर कोई नहीं जीता। छठी बार भी हनुमान बेनीवाल की पत्नी कनिका बेनीवाल मैदान में थी लेकिन इस बार भाजपा के रेवंतराम डांगा ने उन्हें 13901 वोटों से हरा दिया।
दरअसल वर्ष 2023 का विधानसभा आमचुनाव भाजपा प्रत्याशी के रूप में डांगा ने लड़ा था लेकिन काफी कम अंतर से हार गये थे। अभी नागौर की खींवसर सीट रालोपा सुप्रीमो हनुमान बेनीवाल के सांसद बनने से खाली हुई थी। ऐसे में बेनीवाल की यह एक तरह से परंपरागत सीट बन चुकी थी। बेनीवाल की पत्नी कनिका मैदान में होने से जीत के लिए ज्यादा जोर-आजमाइश हो रही थी।
यहां कांग्रेस ने रतन चौधरी को मैदान में उतारा। लगता था कि मुकाबला त्रिकोण होगा, लेकिन कांग्रेस प्रत्याशी की जमानत जब्त हो गई। रतन चौधरी को मात्र 5454 ईवीएम वोट मिले।
दौसा: कांग्रेस ने सात में से यह इकलौती सीट जीती
दौसा विधानसभा में उप चुनाव के नतीजे भी चौंकाने वाले के साथ ही राजस्थान की भजनलाल सरकार के लिए एक अलग संदेश देने वाले हैं। दरअसल इस सीट पर भाजपा ने जगमोहन मीणा को उतारा। जगमोहन मीणा भाजपा के कद्दावर नेता किरोड़ीलाल मीणा के भाई हैं।
सब जानते हैं कि राजस्थान में भाजपा की भजनलाल सरकार कि किरकिरी किसी एक मुद्दे पर हो रही है तो वह है मंत्री किरोड़ीलाल का इस्तीफा। किरोड़ीलाल मीणा लोकसभा चुनाव के बाद से ही इस्तीफा दिये बैठे हैं जिसे मुख्यमंत्री ने स्वीकार नहीं किया है। इस बीच उनके भाई को टिकट देने से यह माना गया कि सरकार, पार्टी और किरोड़ीलाल मीणा के बीच सबकुछ सैटल हो रहा है। अब उनके भाई की हार के बाद किरोड़ीलाल संभवतया उतनी ताकत से अपनी बात या इस्तीफे को लेकर दिये जा रहे बयान नहीं दे पाएं।
इतना ही नहीं, सात में से पांच सीटें जीतने के बाद एकबारगी सीएम को फ्री-हैंड भी मिलता दिख रहा है। ऐसे में सरकार या मुख्यमंत्री पर एक बड़ा दबाव कम हुआ है। हालांकि इस सीट पर कांग्रेस के दीनदयाल बैरवा महज 2300 वोटों से जीते हैं लेकिन सात में से यही एक सीट है जहां कांग्रेस की नाक बची है। ऐसे में यह सीट कांग्रेस के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण बन गई है।
देवली-उनियारा: थप्पड़ वाली सीट
देवली-उनियारा देशभर में चर्चित सीट हो चुकी है। यहां वोटिंग के दिन निर्दलीय नरेश मीणा ने एसडीएम अमित चौधरी को सरेआम थप्पड़ जड़ दिया।
आरएएस अधिकारी हड़ताल पर चले गये। खूब बवाल हुआ। गाड़ियां फूंकी गई। पत्थर-लाठियां चले। पुलिस पर भी आरोप लगे और थप्पड़ लगाने वाले निर्दलीय नरेश मीणा को गिरफ्तार जेल में डाल दिया गया। वे अभी भी वहीं है। यहां भाजपा के राजेन्द्र गुर्जर 41 हजार से अधिक वोटों से चुनाव जीते हैं। प्रतिद्वंद्वी निर्दलीय नरेश मीणा ही रहे हैं। कांग्रेस ने जिस कस्तूरचंद मीणा को टिकट दिया वे 31385 वोट लेकर तीसरे स्थान पर हैं।
यहां कांग्रेस को टिकट वितरण में रही चूक पर भी अफसोस जरूर होगा। वजह, नरेश मीणा कांग्रेस नेता हैं और टिकट के बड़े दावेदार थे। बागी तेवर दिखाये तो नेताओं ने उन्हें मनाया, लेकिन नहीं माने और मैदान में उतर गये। नतीजा भले ही खुद नहीं जीते लेकिन कांग्रेस को वह सीट हरा दी जो पिछले दो चुनाव से उसके पास थी। मतलब यह कि इस सीट पर 2018 और 2023 दोनों चुनाव कांग्रेस के हरीश मीणा जीते थे। हरीश मीणा के सांसद बनने से यह सीट खाली हुई और कांग्रेस के हाथ से जाती रही। भाजपा के जो राजेन्द्र गुर्जर यहां से चुनाव जीते हैं वे पहले 2013 में इसी सीट से विधायक रह चुके हैं।
सलूंबर: बाल-बाल बची सीट
सलूंबर सीट से भाजपा की शांता अमृतलाल मीणा महज 1285 सीट से जीती है। जिन सात सीटों पर उप चुनाव हो रहे हैं उसमें महज यही एक सीट पहले भाजपा के पास थी। भाजपा के विधायक अमृतलाल मीणा का निधन होने से यह सीट खाली हुई। दरअसल इसे भाजपा की परंपरागत सीट कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वजह, इस सीट पर 2013 से 2023 तक हुए तीनों विधानसभा चुनाव भाजपा के अमृतलाल मीणा ने जीते। उनके निधन पर भाजपा ने उनकी पत्नी शांता मीणा को मैदान में उतारा। भारत आदिवासी पार्टी (बीएपी) ने यहां जितेश कुमार कटारा को प्रत्याशी बना दिया।
उपचुनाव में गठबंधन नहीं हो पाया तो कांग्रेस ने भी महिला प्रत्याशी रेशमा मीणा को उतारा। इस बार भाजपा के लिये यह सीट जीत पाना काफी मुश्किल लग रहा था। हुआ भी कमोबेश ऐसा ही। मतगणना के आखिरी राउंड में ही भाजपा प्रत्याशी शांता मीणा ने लीड ली और मात्र 1285 वोटों से चुनाव जीता। मतलब यह कि भाजपा ने अपनी यह सीट बाल-बाल बचाई।
रामगढ़: 25 साल से जुबैर खान-ज्ञानदेव आहुजा की कुश्ती में आखिर हो गई सुखवंतसिंह की एंट्री
रामगढ़ सीट के नतीजे समझने से पहले इस सीट का बैक ग्राउंड जानना ज्यादा जरूरी है। दरअसल इस सीट पर 1990 से 2023 तक भाजपा के कद्दावर नेता ज्ञानदेव आहुजा-परिवार और कांग्रेस के जुबेर खान-परिवार के बीच कुश्ती चल रही है। बीते 23 सालों में हुए 08 चुनावों में से चार बार जुबैर खान विधायक रहे। एक बार उनकी पत्नी शफिया जुबैर विधायक बनी।
वर्ष 1998, 2008 और 2013 ये तीन चुनाव ज्ञानदेव आहुजा ने जीते। वर्ष 2018 में भाजपा ने ज्ञानदेव आहुजा का टिकट काटा और सुखवंतसिंह को दिया। हालांकि सुखवंतसिंह वह चुनाव हार गये लेकिन मजबूत स्थिति दर्शा दी। इस बीच नौवें चुनाव के रूप में वर्ष 2023 में जुबैर खान कांग्रेस से मैदान में आये। सुखवंतसिंह ने टिकट का दावा किया। भाजपा ने टिकट नहीं दिया तो बागी हो गये और असपा नामक पार्टी से मैदान में उतर गये। भाजपा ने यहां ज्ञानदेव आहुजा के भतीजे जय आहुजा को टिकट दिया। वे चुनाव हार गये और तीसरे नंबर पर रहे। कांग्रेस के जुबैर खान विधायक बन गये।
दुर्भाग्य से जुबैर खान के निधन से यह सीट खाली हुई ता उपचुनाव में कांग्रेस ने उनके बेटे आर्यन खान को इमोशनल कार्ड के तौर पर मैदान में उतारा। भाजपा ने इस बार अपने पिछले बागी सुखवंतसिंह की परफॉर्मेंस देखते हुए उन पर दांव खेला और यह दांव चल गया। इमोशनल कार्ड वर्सेज ध्रुवीकरण में सुखवंतसिंह ने 13636 वोटों से आर्यन जुबैर खान को हरा दिया। इसके साथ ही 1990 से दो परिवारों के बीच ही चल रही कुश्ती में सफल एंट्री ली।
चौरासी: क्या एक साल में बीएपी के 45 हजार वोटर बदल गये !
राजस्थान के डूंगरपुर जिले की आदिवासी सीट चौरासी से इस उप चुनाव में बीजेपी-कांग्रेस दोनों को ही कोई उम्मीद नहीं थी। यहां के बीएपी विधायक राजकुमार रोत सांसद बन गये और ऊंट पर बैठकर गाजे-बाजे से लोकसभा पहुंचे।
विधानसभा सीट खाली हुई तो बीएपी ने अपने नये प्रत्याशी अनिल कुमार कटारा को मैदान में उतारा। भाजपा यहां कारीलाल ननोमा को मैदान में लाई। कांग्रेस ने महेश रोत को टिकट दिया। नतीजा जैसा संभावित था वैसा ही रहा। मतलब यह कि भारत आदिवासी पार्टी (बीएपी) के अनिल कटारा चुनाव जीत गये। भाजपा के कारीलाल ननोमा दूसरे स्थान पर और कांग्रेस के महेश रोत ने बमुश्किल 16 हजार वोट लेकर तीसरे स्थान पर रहे। इस सीट पर सोचने वाली बात हार-जीत से परे दूसरी है। यहां वर्ष 2013 में भाजपा के सुशील कटारा विधायक बने। इसके बाद 2018 और 2023 के दोनों विधानसभा चुनाव बीएपी के राजकुमार रोत ने जीते। वर्ष 2023 के चुनाव में उन्होंने सुशील कटारा को 69166 यानी लगभग 70 हजार वोटों से हराया। इसके लगभग एक साल बाद ही यानी अभी हुए विधानसभा उपचुनाव में बीएपी ने फिर जीत दर्ज की है लेकिन जीत का अंतर इस बार 24370 यान लगभग 25 हजार रह गया। ऐसे में बीएपी के लिय यह उपलब्धि है कि जिस उप चुनाव में कांग्रेस ने तीन और रालोपा ने अपनी इकलौती सीट खो दी, वहां यह आदिवासी पार्टी सीट बचाने में कामयाब रही। इसके साथ ही ध्यान देने वाली एक बात यह भी है कि इस आदिवासी इलाके में बीएपी की लीड लगभग 45 हजार कम हो गई और जो भाजपा पिछला चुनाव यहां लगभग 70 हजार वोटों से हारी थी वह हार इस बार 25 हजार से भी कम में आ गई। शायद यह बीएपी के लिए भी संभलने के संकेत हैं।
ऐसे में कहा जा सकता है कि भाजपा ने हर सीट के अलग-अलग समीकरणों को समझते हुए उसके हिसाब से ही स्थानीय रणनीति पर जोर दिया। दिल्ली या देशभर से बड़े नेताओं के दौरे, मीटिंगें करवाने की बजाय अपने मंत्रियों, स्थानीय प्रभावी नेताओं को मैदान में उतार वहीं रखते हुए जिम्मेदारी दी। इसमें यह भी ध्यान रखा गया कि कई नेताओं को कुछ खास क्षेत्रों से दूर भी रखा गया, इनमें झुंझुनूं भी शामिल है। यही वजह है कि मुख्यमंत्री भजनलाल और प्रदेशाध्यक्ष मदनसिंह राठौड़ की जोड़ी के सिर जीत का यह सेहरा बंधा है।