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Reel से Real में लाने के लिए Reading ही सबसे श्रेष्ठ तरीका, जानिये कैसे!

RNE Special Desk.

रील की बातें:

अभी कुछ दिनों पूर्व रेल में यात्रा कर रहा था। पास के कुप्पे से रील की तेज आवाज रही थी। रील की आवाज रूकते ही बच्चे की रोने की आवाज आने लगती थी। मैंने उस तरफ देखा तो पाया कि एक छोटा सा बच्चा जो शायद एक या दो साल का रहा होगा। अपनी मम्मी के मोबाइल पर अपनी नन्हीं-नन्हीं अंगुलियों से स्क्रीन को लगातार ऊपर की ओर चलाते हुए रील देख रहा था। उसकी मम्मी जैसे ही मोबाइल उसके हाथ से खींचती तो वह रोने लगता।
बहरहाल यह एक नजारा था। छोटे-छोटे बच्चों के साथ आप लोगों ने ऐसे नजारे देखे ही होंगे। मैंने बच्चे से ध्यान हटाया तो देखा सभी लोग अपनी-अपनी सीट में मोबाइल की स्क्रीन पर कमोबेश बच्चे जैसी हरकतों में ही मशगूल थे। इसमें मैं भी सम्मिलित था। फर्क इतना ही था कि बच्चा छोटा था इसलिए ईयरफोन का प्रयोग नहीं कर रहा था।


डिजिटल युग में बच्चे से लेकर बूढों तक में मोबाइल का जबर्दस्त क्रेज है। कोरोना के बाद आई औनलाईन कक्षाओं के प्रचलन से यह क्रेज अब विद्यार्थियों में बहुत बढ़ गया है। दरअस्ल कुछ सेकेंड का वीडियो देखने में कैसे समय गुजर जाता है, किसी को कुछ पता नहीं चलता है। बात सिर्फ रील देखने की ही नहीं है। रील बनाने का जुनून भी लोगों के सर चढ़कर बोलने लगा है। ऐसे मैं जब कुएं भांग पड़ी है तो विद्यार्थी कैसे बच सकता है? आज छोटे-छोटे बच्चों की रील्स बनाकर मां-बाप चैनल मोनेटाइज कर पैसे कमा रहे हैं। बच्चें कहीं डांसर बन रहें, कहीं एक्टर, कहीं एन्फलुएंसर तो कहीं तो बाबा भी बन रहे है। कुल मिलाकर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह रिएक्शन टू फस्र्टेशन है। होता यूं है कि जब हम अपने जीवन में कोई काम नहीं कर पाते तो इससे फस्र्टेशन उत्पन्न होती इसी के रिएक्शन मे हम अपने बच्चों के माध्यम से उसी काम को होते हुए देखना चाहते हैं।

दिल मांगे रील तो विद्यार्थी भी क्यो ना करें फीलः

हम जो चीज देखना चाहता है हमारी सर्च के माध्यम से उसी तरह की रील्स हमें मिल जाती है। देखते समय ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत पड़ती नहीं है। 30 सेकेण्ड की रील में हमे कनक्लूजन मिल जाता है। फिर दोस्तों के साथ ही रील की बातें कुल मिलाकर रील हमें रीयल से दूर ले जाकर एक फेंटेसी दुनिया में ले जाती हैं जहां सब कुछ अच्छा और चमकदार होता है। इसे देखते ही लगने लगता है कि हम भी कुछ ऐसा करें की रातों -रात सोशल मीडिया के हीरो बन जाएं। हमारे फाॅलोअर बढ़ें और हम भी अमीर हो जाएं। कुछ लोग रील बनाने में मस्त हैं तो कुछ लोग उन्हें देखकर रील्स बनाने का सुनहरा सपना लिए रील देखने में मस्त हैं।

ऐसे में घर पर बैठा बच्चा जो विद्यार्थी है क्या इससे दूर रह सकता है। उत्तर होगा बिल्कुल नहीं।तो क्या होगा? वह समय निकालेगा और रील देखेगा। यदि उसे समय नहीं मिलेगा तो देर रात पढ़ने के बाद रील देखेगा। कहना गलत नहीं होगा कि जब सब का दिल मांगे रील तो विद्यार्थी भी क्यो ना करें फील।

रील और समयः

जिन्दगी में बहुत कुछ वापस हो जाता है। पर ये टिक-टिक करती घड़ी में रील्स को अच्छा बनाने के हेतु लिए जाने वाले रीटेक नहीं होते। समय का काम गुजरना होता है। एनडीटीवी में प्रकाशित जाने-माने संपादक श्री अभिषेक शर्मा अपने आलेख में बताते हैं कि ‘‘एक स्टडी कह रही है कि ग्रामीण भारत में रील देखने वालों की संख्या सालाना 12 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है लेकिन उससे भी बड़ी खबर ये है कि प्रति इंटरनेट यूजर अब रील को ज्यादा वक्त दे रहा है। रील की एल्गोरिदम अब ऐसी है कि अगर आपको घर की लड़ाई देखने का शौक लग गया है तो आपके मोबाइल पर इसी किस्म के कंटेट आते रहेंगे। ये कंटेट आपको कुछ इस किस्म से गिरफ्त में लेगा कि आपको पता ही नहीं लगेगा कि कितना वक्त छू मंतर हो गया.।’’ दरअस्ल रील की इस झील में बच्चे, जवान, बूढें महिला पुरूष सभी गोते लगा रहें हैं। इसके कारण कितना समय बरबाद हो रहा है इसका अंदाजा लगाना भी कठिन है। विद्यार्थियों के इस रील प्रेम के कारण वे पुस्तकों से दूर होते जा रहे है। रील के इस दुरूपयोग बाबत आगाह करने वाला कोई सिस्टम ही नहीं है. स्कूल- कालेज में ऐसी कोई ट्रेनिंग नहीं दी जा रही है जहां ये बताया जा सके कि इससे से समय की बर्बादी कैसे रोकें?

रील का विद्यार्थियों पर प्रभावः

रील देखने और बनाने की आदत बच्चों पर कई तरह से नकारात्मक असर डालती है। इससे न केवल समय की बर्बादी के कारण पढ़ाई का समय खराब होता बल्कि लगातार रील्स देखने के कारण उसका ध्यान केन्द्रित नहीं हो पाता। बहुत से विद्यार्थी रात को देर तक रील्स देखते हैं जिसकी वजह से नींद पूरी नहीं हो पाती, इससे शरीर में थकान और चिड़चिड़ा पन जैसे रोग हो सकते हैं। इसमें तो कोई दोराय नहीं हो सकती कि रील्स देखने में समय का पता ही नहीं चलता इसके चलते बच्चा बिना पलक झपके लगातार स्क्रीन को देखता है जिससे आंखों का भारी नुकसान होता है। रील देखने में केवल आंख और दिमाग ही सक्रिय रहते हैं। इसलिए शारीरिक गतिविधि कम होती है, जिससे मोटापा बढ़ता है। रील्स देखने से दिमाग का फोकस बिगड़ता है। वह बहुत अधिक देर तक ध्यान नहीं लगा पाता है।

इसके अतिरिक्त कई मनोसामाजिक विकृतियां पैदा होने की संभावना रहती है मसलन रील्स की चमकदार दुनिया देखने से वह गलत तरीके से तुलना करने लगता है। रील और रियल के बीच सांमजस्य नहीं बैठा पाता है। वह लोगों के बीच रहना सामूहिक रूप से कार्य करने की क्षमता को खो सकता है। इस कारण उसका सामाजिक जीवन प्रभावित होता है। अत्याधिक रील देखने से बच्चे का मनोबल और आत्मविश्वास कम हो सकता है।

रील और रियल में अंतरः

समस्या यह है की बच्चे से लेकर बूढें तक जब रील की झील में गोता लगा रहे तो यह जरूरी हो जाता है कि ‘रील’ रियल नहीं हैं। रील की आभासी चमक रियल के धुसर रंग पर इस कदर हावि हो जाती है कि वह बच्चों को जिन्दगी की कड़वी सच्चाईयों से दूर करती है। ये समझना जरूरी है कि हर कोई कलाकार नहीं हो सकता है। लेकिन सर्वसुलभ कैमरे ने सबकों बड़ा कलाकार बनने की हसरत में डुबो दिया है। आज प्रत्येक व्यक्ति कलाकार है। हद तो जब हो जाती है कि जब लोग अपने छोटे-छोटे बच्चों को बड़ा कलाकार बनाने के लिए उन्हें रील की दुनिया में खपा देते हैं। दरअस्ल यूं तो रील सभी को ही यथार्थ के कठोर धरातल से दूर करती है। पर इससे सबसे ज्यादा विद्यार्थी प्रभावित हो रहें हैं। वे रील के भ्रमजाल में फंसकर यह भूल जाते हैं कि जीवन चमकदार रील नहीं है। इस आभासी जीवन के प्रभाव में आकर विद्यार्थी वहां नहीं होते जहां वास्तव में वे होते हैं। कल्पना के जादुई लोक में हिंडोले खाते वे वहां पहुंच जाते हैं जहां उनकी जगह नहीं है। इसलिए यह समझाना जरूरी हो जाता हैं कि ‘रील’ ‘रियल’ नहीं है। उसे रील सेरियल में लाना होगा।

रील से रियल में ला सकती है रीडिंगः

दरअस्ल रील से रियल में लाने का कार्य इतना सरल नहीं हैं क्योंकि हम सुनने और देखने के इतने आदि हो चुके हैं कि हम शब्दों को पढ़ने की दुनिया से दूर जाते जा रहें हैं। पढ़ना सिर्फ पढ़ना नहीं होता जब हम पढ़ रहे होते हैं हम लिखे हुए को अपने अनुभवों को जोड़ते हुए संवाद कर रहे होते हैं। हम एक रचनात्मक काम कर रहें होते हैं। पढ़ना मात्र लिखित प्रतीकों को जोड़कर वाक्य में तब्दील कर धारा प्रवाह बोलना मात्र नहीं है। पढ़ना अर्थ निर्माण की जटिल प्रक्रिया है। एक ऐसा कौषल है जिसमें आप और किताबों पर अंकित शब्दों के बीच में बहुत कुछ अनकहा भी समझने लगते हैं। इस प्रकार पढ़ना एक सृजनात्मक प्रक्रिया हो जाती है। दरअस्ल पढ़ना केवल कोर्स की किताब तक सीमित नहीं है। पढ़ना आदत में होना चाहिए। इस आदत के लिए जरूरी है कि विद्यार्थी के पास उसकी रुचि के अनुसार पढ़ने की सामग्री हो। समस्या यह है कि वह सामग्री कैसे प्राप्त करे?

विद्यार्थियों के पास मोबाइल है। मोबाइल में केवल रील ही नहीं है यह रियल भी है। तकनीक जीवन की सुविधा के लिए इसका आवष्यकतानुसार उपयोग जिन्दगी को सुविधा पूर्ण बनाता है। विद्यार्थियों को यह बताना होगा कि जीवन में कितने ही प्रष्नों के उत्तर तुमने गूगल कर के दिये होंगे उनमें से तुम्हें

एक भी याद नहीं रहता। क्योंकि वहां सार्थक पढ़ना नहीं हो पाता है। इसी कारण सार्थक पढ़ना प्रारम्भ करों। गूगल में सर्च कर अपनी रुचि की किताबें ढूंढों। फिर जब समय स्क्रीन या पुस्तक के माध्यम से उसे पढ़े। जिससे वे जीवन को महसुस कर सकें।
इस कार्य में साहित्य बड़ा मददगार सिद्ध हो सकता है। साहित्य हमारी का प्रेरणा स्रोत है। यह जीवन की वास्तविकता को खोलकर दिखाता है। अनेक भाषाएं के अनेक ग्रंथों को खजाना है। इनमें से जो रुचिकर हो उसे अपने जीवन का हिस्सा बनाइए उनके साथ जीवन गुजारिए। किताबों की दुनिया बड़ी ही मजेदार होती है। इन्हंे जब विद्यार्थी पढ़ेंगे तो उनके किरदारों के साथ भावनात्मक रुप से जुड़ेगे। वे हंसेगे तो वे भी हंसेगे वे रोएंगे तो वे भी रोएंगे। जब वे पुस्तकों से जुड़ेगे तो जीवन की अबखाईयों से परिचय प्राप्त होगा। परिचय इतना गहरा होगा कि वास्तविक जीवन में की अबखाईयों को आसानी से पार कर सकेंगे। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि रील से रियल में लाने के लिए रीडिंग बेहतर उपाय हो सकता है।