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आनंद का ‘सरदार’: घटाओं को अंतराल देने से बनती है स्मृतियां, आनंद की ‘सरदार’ बुद्ध की सम्यक स्मृतियों का अंश

RNE Bikaner.

लगभग पांच साल चली खोज के बाद आखिरकार एक हस्तलिखित पांडुलिपि मिल गई। लेखकों, निर्देशकों, रंगकर्मियों से लेकर प्रकाशकों तक से इस पर चर्चा हुई। सबने एक कहा, यह ऐतिहासिक कथानक पर लिखा बेहतरीन नाटक है। इस कृति पर बात होती रही। वाचन भी हुआ लेकिन प्रकाशन और मंचन तक नहीं पहुंच सका। इस बीच आनंदजी इस दुनिया से कूच कर गये। अब इसे पुस्तक रूप में सामने आना चाहिये। इसका मंचन होना चाहिये। बस, प्रयास शुरू हुए और यह कृति शुक्रवार शाम को एक पुस्तक के रूप में सबके सामने थी जिसका लोकार्पण ख्यातनाम लेखक, निर्देशक, समीक्षक डा.अर्जुनदेव चारण की मौजूदगी में बीकानेर के टाउन हॉल में हुआ।

दरअसल यहां बात हो रही है शायर, रंगकर्मी, कवि स्व.आनंद वि.आचार्य के नाटक ‘सरदार’ की। बार-बार रंगकर्मी बताते थे कि ऐसा नाटक आनंदजी लिखा था। उसका वाचन भी हुआ था। बस, तभी से उनके पुत्र और रंगकर्मी ने इस पांडुलिपि की खोज शुरू कर दी। जिन-जिन के साथ वाचन हुआ था। उन तक पहुंचा और आखिरकार पांडुलिपि मिल गई। इसे पढ़ने के साथ ही लेखक, पत्रकार और आनंदजी के अनुज मधु आचार्य ‘आशावादी’ ने प्रकाशित करवाने की ठानी जिसे अभिषेक आचार्य ने अमली जामा पहनाया। नतीजा, आनंद वि.आचार्य की स्मृति में पांच दिन चले रंगआनंद समारोह के पांचवें और आखिरी दिन शुक्रवार शाम को टाउन हॉल में इस कृति का लोकार्पण हुआ।

कृति और रचना प्रक्रिया पर यह बोले डा.अर्जुनदेव:

लोकार्पण समारोह में मुख्य अतिथि डा.अर्जुनदेव चारण ने कहा, जब हम स्मृति को समझने की प्रक्रिया में जाते हैं तब बुद्ध याद आते हैं जो कहते हैं कि सम्यक स्मृति होनी चाहिये। यह जो नाटक लिखा गया है उसमें उसी सम्यक स्मृति का अंश उपस्थित है। सम्यक स्मृति का मतलब है वह स्मृति जिसका आप खुद चयन करते हैं। घटनाओं को स्मृति में बदलने के लिये अंतराल चाहिये। ऐसा नहीं होता है तो वह घटना हादसा बनकर विस्मृत हो जाती है। बुद्ध जिसे सम्यक स्मृति कहते हैं। इसमें रचनाकार घटनाओं की एक श्रृंखला का चयन करता है। इस चयन से ही यह नाटक भारत की आजादी की यात्रा के संघर्ष का नाटक बन गया।

इन वॉलंटियरी मेमोरी यानी आनंद के कई रंगों की याद:

डा.चारण बोले एक स्मृति और होती है वह है, इन वॉलंटियरी मेमोरी यानी अनिच्छुक स्मृति। यानी जिस स्मृति के लिए आपकी इच्छा नहीं थी और वह आ गई। यह ऐसा है कि आप किसी एक घटना पर विचार करते हैं और अचानक ऐसा सूत्र आता है कि आस-पास की कई स्मृतियां आ जाती है। रचनाकार जिस वक्त इतिहास के तथ्यों को लेकर रचना का आधार बनाने की कोशिश करता है तो उस वक्त बहुत संभावना है कि अनिच्छुक स्मृति के तत्व शामिल हो जाते हैं। वे उप कथाओं के रूप में आपको निर्देशित करते हैं क्योंकि इतिहास की इस प्रक्रिया में जो मूल है उसे भाषा के बीच में प्रतिष्ठित करने का काम रचनाकार करता है। आनंद ने वही काम अपने इस नाटक में किया है। इस नाटक के विमोचन के बहाने हमारे मन में चेतना में, वही अनिच्छुक स्मृति और आनंद की कई छवियां श्रोताओं को चेते करने का काम करती है।

आनंद को सच्ची श्रद्धांजलि रंग आनंद:

पांच दिन से हम उसकी (आनंद वि.आचार्य) याद में ही रोज एकत्रित हो रहे हैं। किसी भी रचनाकार की याद का इससे अच्छा कोई उपक्रम नहीं हो सकता। जिस काम को वो करता था आप उस काम की कंटीन्यूटी बनाये रख रहे है। उसको सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि वह नाटक करता था तो आप उसकी याद में नाटक करते रहो। वह आदमी स्मृतियों में जीवित रह जाएगा। राजस्थानी में कहावत है कि दो चीजें स्मृतियों में रहती हैं ‘गीतड़ा अर भीतड़ा’। आनंद खुद रचनाकार थे और रचनाओं में वह लोगों की चेतना जागृत करने का काम जीवनभर करता रहा। यह पूरा आयोजन उसको अमरता प्रदान करता है जिसकी अभिलाषा हर मनुष्य अपने जीवन में करता है।

इससे पूर्व आचार्य के अनुज व लेखक-पत्रकार मधु आचार्य आशावादी ने आनंद वि. आचार्य के जीवन और रचनाकर्म का जिक्र करने के साथ ही खुद पर उनके प्रभाव का जिक्र किया। सरदार नाटक पर पाठकीय, निर्देशकीय टिप्पणी रंगकर्मी रोहित बोड़ा ने की। वरिष्ठ रंगकर्मी प्रदीप भटनागर ने आनंद वि आचार्य के रंगकर्म का जिक्र किया। संचालन लेखक संजय पुरोहित ने किया।