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…इसलिए कबाड़ी का दर्जा साहित्यकार से ऊंचा होता है!

कबाड़ी और साहित्यकार

कबीर ने साधु के स्वभाव की व्याख्या करते हुए उसे छाज की उपमा से अभिहित किया था जो केवल सार ही ग्रहण करता है और थोथा उड़ा देता है। लेकिन जब मैं एक व्यक्ति को देखता हूँ जो प्रत्येक वस्तु में केवल सार ही देखता है, तो मेरा मस्तक उस व्यक्ति के समक्ष श्रद्धा से झुक जाता है। वह महान् व्यक्ति है-कबाड़ी ! कबाड़ी में भेद -बुद्धि नहीं होती। उसके लिए गले-सड़े कागज, काँच की टूटी बोतलों अथवा बेकार लोहे की भी उतनी ही कीमत होती है जितनी कि नए कागज, काँच के बर्तनों और लोहे के सामान की।

उसके कबाड़खाने में इन सब को सम्माननीय स्थान मिलता है। मैं सोचता हूँ इतने समदर्शी तो स्वयं पारब्रह्म परमेश्वर भी नहीं होंगे वे भी अपने भक्तों को कम व अधिक प्रिय के श्रेणि-क्रम में रखते होंगे। लेकिन कबाड़ी, मजाल है कि किसी वस्तु को भेद-बुद्धि से देखे। उसकी दुकान (कबाड़खाने) में सभी वस्तुएं बेतरतीबी से शोभायमान दिखलाई पडे़ंगी। यदि वस्तु जगत् में कहीं समाजवाद के दर्शन हो सकते हैं तो वह है-कबाड़खाना। कबाड़ी चाहे छोटा हो या बड़ा, वह कबाड़ी ही होता है। उसमें किसी प्रकार का वर्गीकरण नहीं होता। यदि कोई अधिक धन वाला है तो छोटे कबाड़ी उस की शाखाएँ-प्रशाखाएँ हैं। वे साइकिलों से गाँव-गाँव और गली-गली में आवाज देकर उन सब वस्तुओं को बटोरते रहते हैं जो हम लोगों के लिए बेकार होती हैं अर्थात् निःसारता में सार खोजने वाला प्राणी कबाड़ी है। कबाड़ी सडे़-गले कपड़ों या कागजों से उतना ही प्रेम करता है जितना कि दूसरे लोग नए सामान से। कबाड़ी के लिए यह भौतिक संसार ‘‘कबाड़खाना’’ और दिखलाई पड़ने वाला सब कुछ ‘‘कबाड़’’ है।

कबाड़ी को साहित्यकार कहना तो उसके साथ ज्यादती ही होगी क्योंकि यह एकांगी दृष्टि है। जबकि कबाड़ी ऐसा बहुमुखी व्यक्तित्व केवल साहित्यकार’ नहीं हो सकता । हाँ,दोनों में कुछ समता अवश्य है। जिस प्रकार कबाड़ी निम्न से निम्न वर्ग से भी अपना संबंध स्थापित कर वहाँ से सार तत्त्व ग्रहण करने का प्रयास करता है; साहित्यकार भी तो निम्न, पिछडे़ और उच्चादि सभी वर्गों से संवेदना ग्रहण कर साहित्य जगत को ‘कुछ’ देने की चेष्टा करता है। इस प्रकार हम यह भी कह सकते हैं कि प्रत्येक कबाड़ी में एक साहित्यकार और प्रत्येक साहित्यकार में एक कबाड़ी छुपा होता है जो निम्न से निम्नतर और निःसार में से सार ग्रहण करता है। शोधार्थी तो ‘कबाड़ी’ का पर्यायवाची शब्द ही है। जिस प्रकार कबाड़ी निरर्थक में से भी सार्थक (अर्थ प्रदान करने वाला) खोज लेता है उसी प्रकार शोधार्थी भी साहित्य रूपी मलबे को बिखेरता हुआ उसमें से नई अवधारणाएं खोजने की चेष्ठा करता है।

यहाँ शोधार्थी के प्रयत्नों से प्राप्त फल को हम सन्देह की दृष्टि से भी देख सकतें हैं किन्तु कबाड़ी की उपलब्धता शत्-प्रतिशत् होती है। शोधार्थी की उपलब्धता पर विवाद उठ सकता है किन्तु कबाड़ी की प्राप्ति विवादों से परे होती है। कबाड़ी में शोध बुद्धि’ या ‘विवेचन -वृत्ति’ शोधार्थी से कहीं अधिक होती है। शोधार्थी तो शोध से केवल अपने क्षेत्र में ही मानदण्ड स्थापित करता है लेकिन कबाड़ी तो प्रत्येक क्षेत्र में इस प्रकार के मानदण्ड स्थापित कर सकता है। शोधार्थी के उपकरण कलम, कागज और पुस्तकें होती हैं जबकि कबाड़ी के उपकरणों में तो अन्तरिक्ष उपकरणों से लेकर सिलाई मशीन और टूटी बाल्टी तक शामिल हैं। शोधार्थी का क्षेत्र सीमित है कबाड़ी का असीमित। कबाड़ियों की इस शोध वृति ने साहित्यजगत को भी अनुपम कृतियाँ प्रदान की हैं। वे कृतियाँ जो कभी प्रकाश में नहीं आ सकती थीं, कबाड़ियों ने उन्हे रद्दी के भाव खरीदा।

इससे पहले कि वे उनके हथकंडों पर चढतीं, किसी शोधार्थी (या साहित्यकार) के हाथ लग जाती हैं। यहाँ उसे तथाकथित कृति को प्रकाश में लाने का श्रेय शोधार्थी से अधिक मिलना चाहिए (क्योंकि वह कृति उसी के सद्-प्रयत्नों से ही तो प्रकाश में आ सकी है) लेकिन ऐसा नहीं होता। साहित्यकारों की स्वार्थवृत्ति के कारण कबाड़ी अभी यथोचित सम्मान नहीं प्राप्त कर पाए हैं। कबाड़ी अपने कर्तव्य के प्रति सच्चा होता है। उसकी अपने कार्य में गहन निष्ठा होती है जबकि एक साहित्यकार को ‘सच्चा साहित्यकार’ या ‘केवल साहित्यकार’ कहना लगभग असंभव है। कबाड़ी को जब अवसर मिल जाता है तब वह किसी को भी नहीं बख्शता जबकि एक साहित्यकार की कलम अधिकतर सत्ता की ओर मुड़ी रहती है। इस दृष्टि से कबाड़ी का दर्जा साहित्यकार से ऊँचा है।

मुझे याद आता है एक प्रसंग-जब कबाड़ी ने यमलोक को भी नहीं बख्शा। एक बार एक कबाड़ी की मृत्यु हुई। वह यमलोक में पहुँचा। यमलोक के सिंहद्वार पर प्रहरी बैठा था। जब कबाड़ी ने भीतर जाना चाहा तो प्रहरी ने उसे रोकते हुए कहा-मैं भीतर जाकर यमराज महोदय से पूछ कर आता हूँ कि क्या तुम्हें अन्दर आने दिया जाए ? उनसे आज्ञा मिलने पर ही तुम अन्दर आ सकोगे।’ यह कहकर प्रहरी अन्दर चला गया किन्तु जब लौटकर द्वार पर आया तो हैरान था क्यों कि यमलोक का पुराना लोहे का दरवाजा गायब था और कबाड़ी भी। है कोई ऐसा साहित्यकार ! जो अपने कर्त व्य के प्रति इतना निष्ठावान और जागरूक हो। वैसे भी साहित्य के नाम पर जो लिखा जाता है, उसे समेटने में भी कबाड़ियों का महती योगदान है। अतएव यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि कबाड़ी साहित्य के परिमार्ज न में बडे़ सहायक सिद्ध हुए हैं।

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