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हाथीगाथा : रोड़े अड़ाने वाले विपक्ष को कान की पंखी से उड़ाता बहुमत का हाथी

पंचायत का हाथी

डॉ.मंगत बादल


‘पंचायत’ लोगों के द्वारा, लोगों की, लोगों के लिए चुनी हुई संस्था का नाम है। यह गाँव की संसद है तथा देश की संसद के लिए चुने जाने वाले माननीय सदस्यों का सबसे छोटा प्रशिक्षण केन्द्र भी कहलाती है। इन पंचायतों में जो व्यक्ति जितना अधिक सक्रिय होता है और कामयाब होकर उभरता है, वह उतनी ही जल्दी राजनीति में ऊपर चला जाता है (यहाँ ऊपर से तात्पर्य स्वर्ग से नहीं बल्कि राजनीति में शीर्ष स्थान से है।) जो कार्य संसद में राष्ट्रीय-स्तर पर किए जाते हैं गाँव में पंचायत-स्तर पर भी किए जा सकते हैं।

इस मामले में हमारे गाँव सादावाला की ग्राम पंचायत को आदर्श पंचायत कहा जा सकता है। गत वर्ष राज्य की विधान सभा में सदस्यों ने कुर्सियाँ तोड़ डालीं तथा अध्यक्ष की कुर्सी पर कब्जा कर लिया था। उस घटना के दो माह बाद हमारी ग्राम पंचायत के माननीय पंच महोदय ने पंचायत घर में पड़ी एक चारपाई तोड़ डाली तथा सरपंच साहब को कार्यालय से उठकार बाहर फेंक दिया। यह तो भला हो प्रजातंत्र के प्रति घोर आस्थावान सरपंच साहब के बडे़ सुपुत्र का जिन्होंने पंच साहब के उसी हाथ को जिससे उन्होने चारपाई तोड़ी थी, तोड़कर, उसी टूटी चारपाई पर अस्पताल पहुँचाया। तब से गाँव में शांति है।

आदर्श गांव : यहां सभी एक ठेके पर पीते हैं

सादावाला एक आदर्श गाँव है, इसलिए यहाँ की पंचायत भी एक आदर्श पंचायत है। गाँव में देशी और अंग्रेजी शराब के ठेके हैं। पुलिस चौकी तथा एक मिडिल स्कूल भी है। गाँव वालों में परस्पर इतना प्रेम है कि शाम के समय शराब के ठेके पर सरपंच, पंच, पुलिस वाले और अध्यापक सभी एक साथ अपनी-अपनी मंडलियों में बैठकर शराब पीते देखे जा सकते हैं। (आज के युग में जबकि व्यक्ति निरन्तर एकाकी होता जा रहा है, ऐसी सामुदायिक भावना के दर्शन मेरे गाँव में किए जा सकते हैं।) कभी-कभार यदि किसी का परस्पर झगड़ा हो भी जाता है तो वहाँ उपस्थित पुलिस वाले दोनों पार्टियों का समझौता करवा देते हैं। सुलह की खुशी में दोनों पार्टियों में फिर शराब का दौर चलता है। इस प्रकार शराब से शुरू होकर झगड़ा शराब पर ही समाप्त हो जाता है। इस बीच यदि एक दो पुलिस वाले कुछ दिहाड़ी बना लेते हैं तो यह पंचायत-निर्णय की विशेष सफलता कहलाएगी।

समानता : सब पर अंगुली उठ सकती है 

बोफोर्स कांड, हवाला कांड को लेकर संसद में हंगामा हुआ। पक्ष, विपक्ष के नेताओं पर जमकर कीचड़ उछाला गया। दुनिया के सामने हमारे नेताओं के कारनामे उजागर हुए। इस सब के पीछे प्रसन्नता की बात तो यही है कि इससे प्रजातंत्र के प्रति हमारी आस्था और गहरी हो गई। हम इतना तो समझ ही गए कि आरोपों के घेरे में किसी को भी लिया जा सकता है। प्रजातंत्र में सब बराबर हैं अब र्काइे व्यक्ति ऐसा नहीं बचा जिसकी आरे हम अंगुली न उठा सके। हमारे गाँव की पंचायत में भी समय-समय पर छोटे रूपों में किसी न किसी प्रकार के काण्ड घटित होते रहते हैं।

प्रतिभावान : शेर के भाई बघेरे 

जैसे चार वर्ष पूर्व पंचायती भूमि की ठेका राशि जो हजारों रूपए की थी, पूर्व सरपंच डकार गए। इसका मुकदमा कोर्ट में चल रहा है। एक पंच महोदय ने पंचायत के टीवी पर अपना कब्जा जमा लिया। पुलिस ने अपनी रीति, नीति से उसे बरामद किया। मेरा यह सब बतलाने का यही आशय है कि हमारे छोटे-छोटे गाँवों में भी महान् प्रतिभाएँ भरी पड़ी हैं। उन्हें यदि सही समय और स्थान पर अवसर दिया जाए तो वे देश का नाम ऊँचा कर सकती हैं। मुझे बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि हमारे यहाँ इस प्रकार की प्रतिभाओं को उभरने नहीं दिया जाता। इस मामले में वर्तमान, निवर्तमान या भूतपूर्व, सभी एक जैसे हैं। मुहावरों में बात कहें तो एक ही ‘थैली के चट्टे-बट्टे कह सकते हैं। वैसे हमारे ग्रामीण वातावरण में इसके लिए कहा जाता है-शेर का भाई बघेरा, वो कूदे तो नौ तो वो तेहरा(तेरह) अर्थात् एक से बढ़कर एक हैं।

परोपकारी : जनहित में अकाल राहत डकारी

आजकल हमारे गाँव में ताजा चर्चा ‘हाथी-कांड‘ की है। जिस प्रकार देश में अन्तर राष्ट्रीय खेल स्पर्धाएँ करवाकर देश की सरकार देश का नाम चमकाती है अथवा जनहितार्थ विभिन्न कल्याण-योजनाओं का शुभारंभ करती है; उसी प्रकार हमारे गाँव में भी पंचायत-स्तर पर पंच, सरपंच गाँव की प्रगति के लिए नित्य नवीन योजनाओं का क्रियान्वन करते हैं इसी प्रक्रिया में दो वर्ष पूर्व हमारे सरपंच साहब ने एक हाथी पंचायत की ओर से खरीद लिया जो आजकल चर्चा का विषय है। इससे पूर्व अकाल-राहत के चर्चों ने भी ग्राम्य-वातावरण में काफी सरसता उत्पन्न की थी जिनका चलते-चलते जिक्र करना मैं जरूरी समझता हूँ। प्रकृति के प्रकोप से जब क्षेत्र में सूखा पड़ गया तो सरकार ने बड़े पैमाने पर राहत कार्यक्रम प्रारम्भ किए। जन सेवा में हमारे सरपंच साहब का मन इतना रमा कि वे दो-दो, तीन-तीन दिन तक घर भी नहीं पधारते
थे। ऐसे कर्मठ और पर-दुःख कातर लोगों पर लक्ष्मी भी अपनी कृपा दृष्टि की वृष्टि करती रहती हैं अकाल राहत कार्यक्रमों के दौरान सरपंच साहब ने भी गाँव में अपने लिए एक कोठी बनवाली। उन्होंने जन सेवा को अपना धर्म मानते हुए भविष्य में भी इसी प्रकार की सेवा का संकल्प लिया। वे सेवा को ही मेवा समझते थे।

“हाथी प्रस्ताव” के शुभकार्य में रोड़े अटकाने का धर्म :

सरपंच साहब चूंकि जन सेवा का संकल्प ले चुके थे इसलिए वे ‘अकाल राहत’ कार्यक्रम के बाद स्वयं को ‘खाली-खाली’ महसूस करने लगे। उन्होने अपनी स्थिति पंचायत सचिव को बतलाई। पंचायत सचिव पहले कई पंचायतों में काम करके अपने काम में दक्षता हासिल कर चुका था। इसलिए प्रत्येक सरपंच यही चाहता था कि ऐसा मेधावी, कर्तव्यनिष्ठ और परिश्रमी कर्मचारी उसके साथ रहे। यह हमारे गाँव और सरपंच साहब को सौभाग्य था कि ऐसा सेवाभावी व्यक्ति उन्हें मिला। सचिव ने सरपंच साहब को सुझाव दिया कि हमारी ग्राम पंचायत में हाथी खरीदा जाए। हाथी विवाह-शादी के अवसर पर शोभा बढ़ाएगा तथा इससे पंचायत की आय भी बढे़गी, जिससे गाँव की प्रगति में तेजी आएगी। जिस प्रकार पहचानने वाले पूत के पाँवों को पालने में ही पहचान लेते हैं उसी प्रकार सरपंच साहब योजना सुनते ही भाँप गए कि यह योजना भविष्य में गाँव के लिए बड़ी कारगर सिद्ध होगी। जो लोग यह जानते हैं कि शेर और बकरी एक घाट पर पानी पी सकते हैं, वे यह भी जानते है कि सबल विपक्ष स्वस्थ प्रजातंत्र की निशानी है।

हमारे गाँव के लोग इस बात के पक्षधर हैं कि बात चाहे कोई हो, विरोध के लिए विरोध जरूरी है। इसी कारण हाथी खरीदने जैसे शुभ और प्रगतिशील कार्य के सम्पन्न होने में  विपक्षी सदस्यों ने खूब रोड़े अटकार अपने धर्म की पालना की। इसी प्रकार पक्ष ने भी इस मुद्दे पर अडे़ रहकर अपनी दृढ़ता का सबूत दिया। प्रजातंत्र में एक यह सहुलियत है कि आप में यदि भीड़ को पीछे लगा लेने की क्षमता है तो आप बहुमत के नाम पर सूर्य को पश्चिम में उदित होना भी सिद्ध कर सकते हैं। सरपंच साहब ने पंचायत की बैठक में हाथी खरीदने का प्रस्ताव बहुमत के बलबूते पर पारित करवा लिया। इसके लिए सरपंच साहब की कार्यशैली और पंचायत सचिव की कार्य कुशलता की दाद देनी पडे़गी।

हर ताले की चाबी “चरणदास” :

जो लोग यह मानते हैं कि बालू रेत में से तेल नहीं निकाला जा सकता या हथेली पर सरसों नहीं जम सकती, वे लोग हमारे पंचायत सचिव चरणदास को नहीं जानते। मेरा दावा है कि यदि वे चरणदास को नहीं जानते तो कुछ भी नहीं जानते। चरणदास जी का वास्तविक नाम कुछ भी हो किन्तु लोक में वे इसी संज्ञा से प्रसिद्ध हैं। वास्तविक नाम तो सरकारी कागजात और स्कूल, कॉलिज के प्रमाण-पत्रों में सुशोभित है अथवा उनके बच्चों की वल्दियत के काम आता है। इस असार संसार में उन्होने जो कुछ भी प्राप्त किया है वह ‘चरण दास’ बन कर ही किया है।

यदि यह बात सत्य है कि एक झूठ को छिपाने के लिए व्यक्ति को कई और झूठ बोलने पड़ते हैं तो यह भी सत्य है कि हाथी खरीदने का प्रस्ताव पारित करवाना ही काफी नहीं था। हाथी खरीदने के लिए धन की व्यवस्था किस प्रकार की जाए ? उसे कहाँ रखा जाए ? उसकी देखभाल के लिए नौकर की व्यवस्था ? नौकर का वेतन ? हाथी के खान-पान का व्यय ? किन्तु जैसा कि कहा जाता है- हाथी निकल गया, पूंछ रह गई, उसी प्रकार हाथी खरीदने का प्रस्ताव पारित होते ही शेष प्रस्ताव एक के बाद एक करके पारित हो गए। विरोधियों की जैसे बोलती बन्द हो गई। वे ‘वाक्-आउट’ इसलिए भी नहीं कर सकते थे क्यों कि उन्हें भय था कि उनकी अनुपस्थिति में न जाने क्या-क्या प्रस्ताव पारित कर लिए जायें। उन्हें जब तक पता चले ‘चिड़ियाँ खेत चुग चुकी’ हों।

प्रतिपक्ष की छाती पर बहुमत का हाथी : 

गाँव में हाथी आ गया। आम आदमी ने इस निर्णय पर सरपंच साहब की प्रशंसा की क्योंकि सादा वाला गाँव अब ‘सादा’ न रहकर ‘हाथी वाला’ गाँव बन चुका था। पंचायत की पहचान अब हाथी के रूप में की जाने लगी। गाँव का गौरव बढ़ा किन्तु विरोधियों को यह फूटी आँखों नहीं सुहाया। उन्हे लगता था जैसे हाथी उनकी छाती पर पाँव रख कर चल रहा है। उसके बडे-़ बड़े कान जब पंखों की भांति हिलते तो उनकी हवा से विरोधियों को अपने इरादे उड़ते नजर आते। इसी कारण से उन्होने हाथी सम्बन्धी शिकायतें सरकार और उच्च अधिकारियों तक पहुँचाईं। मैं यह तो नहीं जानता कि एक खरबूजा दूसरे खरबूजे को किस प्रकार देखकर अपना रंग बदल लेता है तथा खरबूजे की आँखें कहाँ होती हैं, यह भी मैं नहीं जानता किन्तु सादावाला ग्राम पंचायत की देखादेखी कई अन्य ग्राम पंचायतों ने भी हाथी खरीद लिए। अधिकतर हाथी सफेद थे। प्रातः स्मरणीय पंचायत सचिव चरण दास अब ‘हाथी विशेषज्ञ’ के रूप में भी प्रसिद्धि पा चुके थे।

उन्होंने प्रत्येक पंचायत में व्यक्तिगत रूप से जाकर हाथी संबंधी अपनी जानकारी का लाभ लोगों को तक पहुँचाया। उनके इस परोपकारी स्वभाव से अन्य पंचायत सचिव भी लाभान्वित हुए। जब प्रत्येक गाँव से हाथी संबंधी शिकयते सरकार तक पहुँचने लगी तो विपक्ष ने अपना मोर्चा संभाला। विधान सभा में प्रश्न उठे। बहसें हुईं और सरकार ने एक ‘जाँच आयोग’ की स्थापना कर दी। जाँच समिति ने जाँच की। तथ्य प्रकट हुए कि हाथियों की खरीद से लेकर उनके रख-रखाव और प्राप्त आय में अनेक घपले हैं जिनमें उच्च अधिकारी भी संलिप्त हैं। जाँच आयोग ने इन पंचायतों को भंग करने तथा अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही की सिफारिश की किन्तु सरकार ऐसा नहीं कर सकती थी। सरकार के सामने दिक्कत थी कि हाथियों का क्या करे ? सरकार को बहुमत की नाराजगी का भी भय था क्योंकि चुनाव सिर पर थे अतः सरकार ने यही उचित समझा कि चुनाव तक जाँच आयोग की रिपोर्ट को ठण्डे बस्ते में पड़ी रहने दे और तब तक पुरानी व्यवस्था चलने दे।


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