…इसलिए कहता हूं कि नाटक कलाकार का माध्यम, निर्देशक का नहीं!
अभिषेक आचार्य
RNE Bikaner
विष्णुकांतजी के आदेश वाली चाय आ गई और सब उसकी चुस्कियां लेने लगे। इस चाय में कोई भी ज्यादा आनंद नहीं ले रहा था क्योंकि सबको उस दूसरे सवाल और उसके जवाब को जानने की उत्सुकता थी। अब चाय समाप्त होने तक की प्रतीक्षा तो करनी थी। प्रतीक्षा में छोटा समय भी कितना लंबा लगता है, ये अभी सबको अहसास हो रहा था। मगर उसे कोई भी व्यक्त नहीं कर रहा था।
चाय उस समय सबसे पहले प्रदीपजी ने खत्म की, जबकि वो अक्सर तो अंतिम व्यक्तियों में होते थे जो चाय खत्म करते थे। मंगलजी उनके कौतूहल को पहचान भी गये थे।
क्या बात है प्रदीपजी। आज आपने सबसे पहले चाय कैसे खत्म कर दी। बड़ी जल्दी की।
सर, वो दूसरा सवाल और उसके जवाब की बात है ना।
समझ सकता हूं मैं।
थोड़ी देर चुप्पी रहने के बाद अब मंगलजी ने अपनी बात कहनी शुरू की।
सबसे पहले तो मैं आपसे ये कहना चाहता हूं कि जहां कहीं भी बैठो, वहां अपने कान, आंख और दिमाग को सदा खुला रखो। ताकि छोटी से छोटी बात भी आप तक आसानी से पहुंच सके। एक रंगकर्मी की सबसे बड़ी ताकत यही होती है कि वो सब देखता है, सब सुनता है और सब समझता है। तभी तो जरूरत पड़ने पर वो उसमें से अपने काम की चीज निकालकर अभिनय या निर्देशन के समय काम ले सकता है, जो दर्शक को सहज भी लगती है। इसलिए कह रहा हूं।
चौहान साहब ने तुरंत टिप्पणी की, इसे ही तो ऑब्जर्वेशन कहते हैं सर। वो ही तो एक्टर को मजबूत बनाता है। इस बात का तो सबसे ज्यादा ख्याल रखना चाहिए। ऑब्जर्वेशन जितना सटीक, अभिनय उतना ही श्रेष्ठ होता है।
सही कहा आपने चौहान साहब। बात इससे आगे की भी है। जिसका ऑब्जर्वेशन मजबूत होता है वही नाटक में सबसे सटीक इम्प्रोवाइजेशन भी कर सकता है। एक कलाकार को इम्प्रोवाइजेशन का सबसे ज्यादा अभ्यास होना चाहिए। मंच पर चलते नाटक के मध्य पता नहीं किस समय क्या स्थिति आ जाये, उसे संभालना एक्टर को पड़ता है। उस समय यही इम्प्रोवाइजेशन काम आता है। सह अभिनेता संवाद भूल जाये तो अच्छा एक्टर इम्प्रोवाइजेशन से उसे ट्रेक पर ला देता है, या फिर क्यू दे देता है। इसलिए अभिनय सीखने में सबसे पहले एक अच्छे अभिनेता को ऑब्जर्वेशन व इम्प्रोवाइजेशन पर ही मेहनत करनी चाहिए।
मंगलजी की बात सुनकर सभी विस्मित थे। ऑब्जर्वेशन व इम्प्रोवाइजेशन की इतनी सहज व सरल व्याख्या उन्होंने की थी कि बात पूरी समझ मे आ गई।
ये बातें मैंने इसलिए कही थी कि आपको भान हो, आपने प्रदीपजी की बात को गौर से नहीं सुना। अगर सुनते, यदि आंख, कान और दिमाग खुला होता तो मेरे पूछते ही बता देते कि उन्होंने क्या-क्या कहा था। मगर आप लोगों का ऑब्जर्वेशन सही नहीं था, इस कारण बता नहीं पाये।
चांदजी, बुलाकी भोजक जी, विष्णुकांतजी, जगदीश जी आदि ने उनकी बात सुनकर हां में सिर हिलाया।
अब आगे से इस बात का ख्याल रखना। अपने साथी रंगकर्मी की हर बात को गौर से सुनना। चलो, अब हम मूल सवाल पर आते हैं।
प्रदीपजी ने सहज में एक बात कही थी कि जब हम रिहर्सल करते हैं तो कई बार हम लेखक का लिखा संवाद, शब्द बदलते हैं। सीन को भी तब्दील कर लेते हैं। सीक्वेंस बदल देते हैं। कहा था ना ?
सबने हांमी भरी।
दूसरा सवाल इसी बात से खड़ा होता है और वो समूचे रंगकर्म का मूलभूत सवाल है। उसी पर रंगमंच की अवधारणा टिकी हुई है।
सब इस बात को सुनकर गंभीर हो गए और एकटक उनकी तरफ देखने लगे। सबके भीतर की जिज्ञासा बहुत बढ़ गई थी।
यहां से बेसिक सवाल शुरू होता है कि नाटक किसका माध्यम है, एक्टर का या डायरेक्टर का। यदि डायरेक्टर का होता तो कलाकार के भीतर की सोच को वो कैसे पकड़ते कि शब्द और वाक्य सही नहीं। या मंच पर सहयोगी एक्टर संवाद भूल जाये तो वहां कैसे वो डायरेक्टर की बात का इंतजार करे। उसे तो वहीं तत्काल अपनी उकत से कुछ न कुछ करना पड़ता है ताकि दर्शक को गलती का अहसास ही न हो। सही है ना ये बात।
सबने स्वीकृति दी।
ये तो हुई सरलीकृत बात। मूल बात ये है कि एक निर्देशक तो एक स्क्रिप्ट पर पूरी परिकल्पना करता है। उसके मूवमेंट, कम्पोजिशन, गतियां तय करता है। पात्र की मानसिकता अभिनेता को समझाता है। सभी कलाकारों को कथ्य समझाता है। यही सब तो करता है?
फिर सबने हां में स्वीकृति दी।
मगर इन सबको मंच पर साकार अभिनेता करता है। वो जो करता है मंच पर, वही फाइनल होता है। उसके एक्सप्रेशन, डायलॉग, गतियों, भावों से ही दर्शक नाटक के कथानक को पकड़ता है। मंच उसी के पास होता है। मंचन के समय निर्देशक गौण हो जाता है। इसी कारण नाट्य शास्त्र व नाटक के विद्वान कहते हैं कि नाटक अभिनेता का माध्यम है, निर्देशक का नहीं। इस अनूठी बात को सुनकर सब हैरान थे। इतनी सहजता से उन्होंने बता दिया कि नाटक आखिर किसका माध्यम है। इस व्याख्या को सुनकर सभी मन ही मन हर्षित थे।
मगर ये दुर्भाग्य है कि हिंदी रंगमंच को निर्देशक का रंगमंच बना दिया गया है। उसके अनुसार ही मंचन चले, यह किया जा रहा है। नाट्य मंचन के प्रचार में भी निर्देशक को ही प्रमुखता दी जाती है। जो गलत है। नाटक की पहचान उसके अभिनेताओं से होनी चाहिए। निर्देशक के हाथों की कठपुतली नहीं अभिनेता, उसका अपना वजूद है। प्रदीपजी की बातों से ये बात निकली तो मैंने आपको माध्यम के बारे में बता दिया।
प्रदीपजी की बात के बहाने दो बड़े सवाल व उनके जवाब समझकर बैठे सभी लोग आज अपने को काफी रिच मान रहे थे। रंगमंच को लेकर इतनी गम्भीरता से उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था। बातचीत उनके लिए अनमोल हो गई।
वर्जन
प्रदीप भटनागर
एक मुक्कमिल कलाकार वो होता है जो ऑब्जरवेशन व इम्प्रोवाइजेशन का भी अनवरत अभ्यास करे। इनके अभ्यास के बिना कोई अच्छा अभिनय कर भी लेता है तो वो तुक्का है। रंगमंच की बारीकियों को समझे बिना हम अभिनय या निर्देशन करते है तो उसकी उम्र लंबी नहीं होती। आज तो स्थिति बहुत खराब है। कई निर्देशक तो कलाकार से अपनी तरह की चाल, हंसी, डायलॉग डिलीवरी तक चाहते हैं। उस पर लादते है। ये कलाकार के साथ अन्याय है। कलाकार भी उनकी नकल को श्रेष्ठता मानते हैं। अपनी तरफ से कुछ नया करके दिखाने की कोशिश भी नहीं करते। माफ करें, अधिकतर कलाकार अपने अभिनय पर कभी होमवर्क ही नहीं करते। तभी तो अभिनय का स्तर गिरा है और निर्देशक हावी हुआ है।