व्यथा उस लेखक की जो आज तक कर्फ्यू से रूबरू नहीं हुआ
कर्फ्यू के अभाव में
डॉ. मंगत बादल
आदमी की प्रसिद्धि के लिए उसके स्वयं के कर्मों, कठिन परिश्रम और लग्न का महत्त्व तो है ही किन्तु स्थान का भी कम महत्त्व नहीं होता। आदमी चाहे कितना ही बड़ा हो किन्तु कई बार अपने स्थान के कारण भी वह स्वयं को हेठा समझने लगता है। बनारस पवित्र एवं धार्मिक नगरी है किन्तु वहाँ के ठगों को अधिक प्रसिद्धि मिली है। कोई व्यक्ति अपने परिचय में स्वयं को बनारस का बतलाता है तो आपका सावधान होना स्वाभाविक है। जोधपुर में अक्खड़ बोलने वालों की कमी नहीं किन्तु बदनाम इसके लिए हरियाणा का रोहतक है। लखनऊ भी फूहड़ लोगों से भरा है किन्तु जाना नजाकत के लिए जाता है अर्थात् आप जिस स्थान पर रहते हैं वह भी आपके परिचय को प्रभावित करता है। जैसे ही आपने बतलाया कि आप अमुक स्थान के रहने वाले हैं और सुनकर सामने वाला मन्द-मन्द मुस्कराने लगे तो समझ लीजिए अवश्य ही दाल में कुछ काला है।
गत वर्षों में साम्प्रदायिक दंगों की दृष्टि से हमारे देश ने जितनी उन्नति की है उसका यदि ग्राफ बनाया जाए तो उत्तरोत्तर ऊपर की ओर जाता दिखाई पड़ेगा। इस मामले में हमारा देश संसार में अग्रणी है। साम्प्रदायिक विद्वेष को लेकर हमारा देश कश्मीर से कन्या कुमारी तक तथा आसाम से लेकर गुजरात तक भावात्मक रूप से जुड़ा है। आजादी के बाद कानपुर, अलीगढ़, हैदाराबाद, अहमदाबाद, राँची देश की राजधानी दिल्ली तथा मायानगरी मुम्बई ने खूब नाम कमाया। इस दृष्टि से एक प्रदेश दूसरे से आगे निकलने को सदैव प्रयासरत रहता है। इन साम्प्रदायिक दंगों ने हमारी धार्मिक कट्टरता की जड़ों को मजबूत बनाया है। हमने बता दिया कि, हे दुनिया वालो ! हम स्पूतनिक युग में रहकर भी सोलहवीं सदी में जी सकते हैं। हमारा कमाल देखिए कि हमारी एक टांग आगामी सदी की ओर बढ़ रही है तो दूसरी उसी परम्परागत अंधविश्वास, धर्मान्धता और जाहिलपन की जमीन पर टिकी है। हम अन्तरिक्ष में रॉकेट दागने से पूर्व मुहूर्त निकलवाते हैं और नारियल तोड़ते हैं। हम धन्य हैं। इसीलिए हम कह सकते हैं कि हमारा भारत महान् है। हम चार कदम आगे बढ़े हैं क्योंकि हमारी परम्पराएँ महान् हैं। कहते हैं जहाँ चाह वहाँ राह अंग्रेजी के हिन्दी अनुवाद के अनुसार आवश्यकता आविष्कार की जननी है। अतः दंगों को रोकने के लिए ही आविष्कार हुआ कर्फ्यू का।
हमें ये परम्परा अंग्रेजों से मिली है जिसे हमने अंग्रेजी की भाँति सहर्ष यानी तहे दिल से स्वीकार किया है। मैं स्थान विशेष को लेकर आदमी के परिचय की बात कर रहा था। मुझे इसका कटु अनुभव है। अपने शहर के कारण मुझे कई बार बाहर के दोस्तों के सामने शर्मिन्दा होना पड़ा है। हिसाब लगाकर देखें तो प्रत्येक बड़ा शहर प्रतिवर्ष हड़ताल, बन्द, प्रदर्शन, धार्मिक तनाव आदि को लेकर पन्द्रह-बीस दिन कर्फ्यूग्रस्त रहता है। आजकल यह सुविधा तहसील हैड क्वार्टर और छोटे-छोटे कस्बों में भी प्राप्त होने लगी है। मेरे मित्र परस्पर मिलते हैं तो वे कर्फ्यू के किस्से चटकारे ले-लेकर सुनाते हैं। मैं मूखौँ की भांति उनका मुँह ताकता रहता हूँ। वे बतलाते है कि कर्फ्यू के दौरान बीवी-बच्चों की माँगों को बड़ी आसानी से टाला जा सकता है। मेरे जैसा अनुभवहीन इस विषय में क्या कहे? क्योंकि मेरे शहर को अभी तक कर्फ्यू का सौभाग्य प्राप्त नहीं हो सका है। मेरे मित्र मेरे इस पिछडेपन और अनुभवहीनता पर उसी प्रकार मुस्कराते हैं जैसे दो अनुभवी औरतें किसी नवयौवना कुमारी को देखकर मुस्कराती हैं। मुझे यह जिल्लत अपने शहर के कारण ही तो भोगनी पड़ती है।
कर्फ्यू की घोषणा होते ही पुलिस के वारे-न्यारे हो जाते हैं। वे बाजार जो अपनी भीड़ के लिए प्रसिद्ध होते हैं, उनमें पुलिस कर्फ्यू के अवसर पर नीरवता का आनन्द उठाती है। कर्फ्यू में घंटे दो घंटे की ढील प्रत्येक नागरिक के मन में जिस सुख और सुकून का अनुभव करवाती है वह भला मुझ जैसे भाग्यहीन को कहाँ ? उस समय बाजार में खान-पान की वस्तुएँ आनन-फानन में खरीद ली जाती हैं। उस समय न तो ग्राहक अधिक मोल-भाव करता तथा न ही चीजों की मीन-मेख करता है। उस समय दुकानदार उपभोक्ता कानून से मुक्त होता है। दुकानदार तो अक्सर ऐसे अवसर की ताक में रहते हैं कि कब कर्फ्यू लगे और कब उनके वारे-न्यारे हों ? कर्फ्यूग्रस्त दिनों में न दफ्तर जाने की झंझट तथा न ही किसी अतिथि के आने का भय होता। आराम से पैर पसारे घर में लेटे रहो। मेरे एक मित्र जो कानपुर में रहते हैं, वे अपने साहित्यिक ज्ञान का श्रेय कर्फ्यू को ही देते हैं। उनका कहना है कि जब उन्हें कर्फ्यू लगने का अंदेशा होता है तो पब्लिक लायब्रेरी से पन्द्रह-बीस पुस्तकें ले आते हैं। इस प्रकार आज तक उन्होंने कर्फ्यू के दौरान हजारों पुस्तकें पढ़ डाली हैं।
कर्फ्यू की घोषणा होते ही दंगों का रुक जाना तो इसका प्रत्यक्ष लाभ है ही किन्तु इसके परोक्ष लाभ भी हैं। जैसे पर्यावरण के शुद्धीकरण में सहायता ! जरा सोचिए । जिन महानगरों में बड़े-बड़े उद्योग हैं तथा लाखों की संख्या में वाहनों का आवागमन है वहाँ पाँच-सात रोज कर्फ्यू लग जाने पर वहाँ का वातावरण शुद्ध होगा या नहीं। मेरी राय में तो सरकार को पर्यावरण की शुद्धि के लिए प्रत्येक शहर में माह में सात दिन कर्फ्यू लगाने की अनिवार्यता घोषित कर देनी चाहिए ! हमारे देश का जलवायु कर्फ्यू के लिए बड़ा उपयुक्त है। यहाँ की धरती बड़ी उर्वरा है। जाति, धर्म और सम्प्रदाय तथा भाषाओं की भिन्नता इसके लिए रोज-रोज नई पृष्ठभूमि तैयार करते हैं। अंग्रेजों का विचार था कि हम भारतीय स्वतन्त्रता के काबिल नहीं। आजादी प्राप्ति के बाद हमने इस दिशा में काफी उन्नति की है। हमने कर्फ्यू का उपयोग जिस दक्षता से किया है, अंग्रेज कहीं पीछे छूट गए हैं। आंकड़े उठाकर देख लीजिए कि अंग्रेजी साम्राज्य के दो सौ वर्षों में कर्फ्यू का उतना उपयोग नहीं हुआ जितना हमने चंद वर्षों में कर दिखाया यही तो हमारी दक्षता का प्रमाण है।मेरा कर्फ्यू सम्बन्धी ज्ञान सैद्धान्तिक और परोक्ष है। मुझे बड़ा दुःख है कि मैं अब तक कर्फ्यू का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सका। इस मामले में मेरा शहर ही पिछड़ा हुआ है तो हम क्या कर सकते हैं सिवाय शर्मिन्दगी उठाने के, सो उठा रहे हैं।
वैसे यह बात नहीं कि यहाँ इस प्रकार के प्रयत्न नहीं हुए बल्कि दो-चार प्रगतिशील कर्फ्यूप्रिय व्यक्तियों ने साम्प्रदायिक दंगे फैलाने की कोशिशें कीं किन्तु दकियानूस और बुजुर्ग किस्म के लोगों ने पुलिस से जाकर तहकीकात करने की प्रार्थना की। पुलिस हरकत में आ गई। सारी कलई खुलने पर ‘कपर्फ्यू हितैषियों को पुलिस ने दबोच लिया। इस प्रकार मेरा शहर मुख्य धारा में आते-आते रह गया। देश में धर्म को लेकर दंगे हुए। भाषा को लेकर तनाव बढ़ा। मन्दिर-मस्जिद को लेकर गर्मागर्म बहसें और सिर फुटौवल भी हुए। जानें गईं किन्तु मेरा शहर निर्लिप्त रहा। दरअसल यहाँ के लोग बड़े ठंडे हैं इसीलिए आज तक कर्फ्यू से वंचित हैं और देशवासियों के समक्ष शर्मसार हैं। मैंने कर्फ्यू को लेकर यह जो कुछ लिखा है, वह सारा काल्पनिक है। कर्फ्यू के अभाव में मेरे नगर के साहित्यकरों में उस यथार्थ चेतना की न्यूनता मिलेगी जो कर्फ्यू की उपस्थिति में होती है। बसों, ट्रेनों, बहस मुबाहिसों या पारस्परिक वार्तालाप में जब-जब लोग कर्फ्यू का जिक्र छेड़ते हैं मेरे शहर के लोग बगलें झांकते लगते हैं। वे नहीं जान सकते कि कर्फ्यू के दौरान आम आदमी किस प्रकार आतंकित अनुभव करता है। भय किस प्रकार लोगों के दिलों में उतर कर सिहरन पैदा करता हुआ एक-दूसरे के प्रति अविश्वास और आशंका की पौध पनपा देता है। यह सब मेरे शहर के लोग नहीं जानते। इसीलिए तो इन्तजार है मुझे उस दिन का जिस दिन मेरे शहर में भी कर्फ्यू लगेगा। आज जब छोटे-छोटे कस्बों तक को यह सुविधा मुहैया करवा दी गई है तो कब तक बचेगा मेरा शहर ? बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी? वैसे तो मेरे शहर में भी कर्फ्यू लगवाने के सभी तत्त्व विद्यमान हैं ही बस फूस को चिंगारी भर दिखलाने की देर है। यह कतई जरूरी नहीं कि अमन पसन्द लोग अब की बार भी आगे आने में सफल हो जायें। कभी तो उन लोगों की भी चलेगी जिन्हें कपर्फ्यू का इन्तजार है क्योंकि बारह वर्ष बाद तो घूरे दिन भी फिर जाते।
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