
हिंदी पत्रकारिता दिवस : पत्रकारिता के सामने साख बचाने का सवाल, तभी बचेगा अस्तित्त्व
- लोगों की पत्रकारिता व पत्रकार को लेकर बनी नई धारणाएं चिंताजनक
- मीडिया के नए उपनाम घटा रहे साख लगातार
- पत्रकार को तय करने होंगे मानदंड, जिन पर चलना भी होगा जरूरी
अभिषेक पुरोहित
RNE Special.
आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है और यह दिन रस्मी नहीं बने। इसको लेकर हरेक पत्रकार व समाचार पत्र समूह के प्रबंधन को गहन चिंतन करना चाहिए। इस बात से कोई इंकार नहीं कि आजादी से पहले हिंदी पत्रकारिता एक मिशन थी, सबका लक्ष्य भारत को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराना था।
सेल्युट के लायक थी ये कहानी:
उस समय अखबार निकालना तलवार की धार पर चलने के समान था। एक तरफ अंग्रेजी राज और दूसरी तरफ उनके अधीन का सामंत राज। इन दोनों के बीच जनता को तो पिसना ही था। जनता के हित की बात पत्रकार और पत्रकारिता को करनी थी, जो पहाड़ सी चुनोती से कम नहीं थी। इस काम को वही कर सकता था, जो इसे मिशन माने। उस समय अखबार में संपादक या पत्रकार पद के लिये जब वैकेंसी निकलती तो उसमें लिखा होता था– एक अदद पत्रकार चाहिए। वेतन — सुखी रोटी, नमक व पानी, हो सकता है वो भी भरपेट नहीं। अन्य — जेल जाने की भी गारंटी।
ये जानकर आज के पत्रकारों को आश्चर्य होगा कि इस स्थिति के बाद भी संपादक, पत्रकार के लिए आवेदन करने वालों की संख्या कम नहीं रहती थी।
समय तो बदलना ही था:
देश को आजादी मिली और समय के बदलाव का आभास हुआ। भारत की आजादी में जितना बड़ा योगदान हमारे महान स्वतंत्रता सेनानियों का है, उससे कम पत्रकारों का भी नही है। अनेक पत्रकार जेल गए, कष्ट सहे, काला पानी की सजा भुगती।आजादी के बाद एक और आजादी का लक्ष्य पत्रकारिता के सामने आ गया। जब विभाजन हुआ तो धर्म के नाम पर दंगे हुए। भारत को एक रखने के लिए उसे थामना जरूरी था। पत्रकारिता ने यहां भी धर्म निभाया। समाज, सत्ता, व्यवस्था की विसंगतियों से आजादी पाना हिंदी पत्रकारिता का प्रथम लक्ष्य बन गया और वो इसमें समर्पित भी हो गई।
ये किस्सा स्वाभिमान का:
देश आजाद हुआ, उसमें गांधी का भी बड़ा योगदान था। आजादी के बाद बीबीसी ने अपने भारत के संवाददाता को गांधी के इंटरव्यू का आदेश दिया। गांधी उस समय बंगाल में थे।
बीबीसी पत्रकार जब उनके पास पहुंचा तो चल रहे थे, उनका चलना भी दौड़ने के बराबर था। उसने आवाज लगाई अंग्रेजी में बोला “मिस्टर गांधी, प्लीज”
गांधी अनसुना कर चलते गये। फिर उस पत्रकार ने हिंदी में आवाज लगाई “गांधी, मुझे आपसे बात करनी है।”
गांधी के पांव थम गये। उसने आजादी पर उनकी प्रतिक्रिया पूछी तो गांधी ने छोटा सा जवाब दिया– दुनिया को बता देना, गांधी अंग्रेजी भूल गया। ये कहकर वे चल दिये। जबकि सब जानते थे वे अंग्रेजी के ज्ञाता थे और विदेशों में वकालत की थी। हिंदी के प्रति मोह दिखाना, स्वदेशी व देश के प्रति मोह दिखाना था। आज उसी नींव पर हिंदी पत्रकारिता का विशाल रूप हमें दिख रहा है।
बदल गये हालात, मीडिया के नाम:
मगर लोकतंत्रीय शासन में धीरे धीरे बुराईयां आई। सत्ता की चाह ने राजनीति को भी भटकाया। हालांकि ये होने में काफी वर्ष लगे, मगर ये हो गया। सत्ताओं ने पत्रकारिता व पत्रकारों को साथ लेने का काम किया ताकि उनकी गलतियां उजागर न हो। ये कहने में गुरेज नहीं करना चाहिए कि कई पत्रकार उनके साथ भी हुवै। कुछ समूह भी सत्ताओं के साथ हुए। क्योंकि अब पत्रकारिता मिशन नहीं व्यवसाय हो गया था। एक बार डॉ अर्जुनदेव चारण ने पत्रकारों के एक आयोजन में कहा था कि भले ही पत्रकारिता व्यवसाय हो गया, मगर व्यवसाय के अपने इथीक होते है, उसकी तो वो पालना करे। अब पीत पत्रकारिता, पत्रकार नहीं थानेदार, अखबार नहीं प्रोडक्ट, गोदी मीडिया जैसे कई शब्द प्रचलन में है। उनसे हिंदी पत्रकारिता व पत्रकार की साख घटी है। ये दिन उसी पर चिंतन का है। यदि चिंतन व बदलाव नहीं हुआ तो पत्रकार व पत्रकारिता बची हुई साख भी जाती रहेगी।
- आओ, एक नई राह बनाएं
- उस पर चलें, शब्द संजोये
- अपनी खोई हुई बड़ी साख
- फिर से हम मेहनत से पायें