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साहित्य, भाषा, संस्कृति ही राज के हाशिये पर क्यों, कैसे होगी सभ्य समाज की रचना

आरएनई, स्टेट ब्यूरो। 

आजादी के आंदोलन में सबसे बड़ी भूमिका जिनकी रही उनमें साहित्य, भाषा और संस्कृति भी थी। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने तो पूरा स्वतंत्रता आंदोलन ही संस्कृति को आधार बनाकर खड़ा किया था। उस समय अपनी जान पर खेलकर साहित्यकारों, कलाकारों, पत्रकारों ने आजादी के लिए चेतना जगाने का कठिन कार्य किया। अंग्रेज शासकों की प्रताड़ना सही। ये लोग तो सामन्तकाल में भी चुप नहीं रहे थे। गरीब व शोषक की आवाज बनते रहे थे। सत्य की पैरोकारी राजनीति थोड़े ही करती है, इसकी पैरोकारी तो साहित्य, भाषा व संस्कृति ही करते हैं। आज भी कर रहे हैं।

आजादी के आंदोलन में महत्ती योगदान था मगर आजादी के बाद सबसे ज्यादा उपेक्षा यदि किसी क्षेत्र की हुई तो, इसी की हुई। आज भी देश के पास सांस्कृतिक नीति नहीं है। संस्कृति को पर्यटन से जोड़ने का अटपटा कार्य जरूर हुआ है। जबकि आधुनिक युग ने व्यक्ति, समाज को अवसाद में पहुंचाया है। जिससे उबारने का काम केवल साहित्य, संस्कृति व भाषा से ही संभव है। संस्कारों की स्थापना भी इसके बिना संभव नहीं।

देश की बात छोड़ें, राज्य की करें तो यहां भी स्थिति अच्छी नहीं। साहित्य, संस्कृति व भाषा जितनी उपेक्षा तो किसी क्षेत्र की नहीं है। राज चाहे किसी भी पार्टी का रहा हो, इनको सदा ही हाशिये पर रखा गया। पहले बात भाषा की। हमारी भाषा राजस्थानी है और दुःख है कि ये विषय प्राथमिक, माध्यमिक, उच्च शिक्षा में यहां के लोगों को अनिवार्य रूप से पढ़ाया ही नहीं जा रहा। भाषा ही तो राज्य, यहां के नागरिक की पहचान होती है।

पंजाब में पंजाबी, बंगाल में बंगाली, कर्नाटक में कन्नड़, महाराष्ट्र में मराठी पढ़ना अनिवार्य है, पर राजस्थान में राजस्थानी अनिवार्य नहीं। स्कूलों व कॉलेजों में अधिकतर जगह कोई पढ़ना चाहे तो विषय ही उपलब्ध नहीं। केंद्र ने 12 करोड़ लोगों की इस भाषा को संवैधानिक मान्यता नहीं दी तो राज्य की किसी भी सरकार ने इसे दूसरी राजभाषा का दर्जा नहीं दिया। भाषा की ऐसी उपेक्षा देश के शायद ही किसी राज्य में हो।

साहित्य के बारे में कहा जाता है कि जब जब सत्ता लड़खड़ाती है तब तब साहित्य उसे कंधा देकर खड़ा करता है। मगर राज्य में इसकी भी घोर उपेक्षा होती है। साहित्य के संवर्धन के लिए अकादमियों का गठन तो हुआ मगर कोई भी राज उसमें पूरे समय अध्यक्ष नहीं बिठाता। पांच साल सरकार के होते हैं मगर अकादमियों में अध्यक्ष डेढ़ साल भी नहीं रहते। इतनी उपेक्षा तो किसी भी राज्य में नहीं।

संस्कृति का तो राज्य सरकार ने उस दिन ही बंटाधार कर दिया जब इसे पर्यटन से जोड़ा। संस्कृति तबसे नुमाइश की चीज बन गई और इसका व्यवसायीकरण कर दिया गया। व्यवसाय के अपने दुर्गुण होते हैं, वे अब इस पर हावी हो गये। कुल मिलाकर सरकारें कब जागेगी और इनके महत्त्व को समझेगी। यदि इनका महत्त्व जान इनको मुख्यधारा में ले आये तो अनेक समस्याओं का स्वतः हल हो जायेगा। मगर कब, ये यक्ष प्रश्न है।


— मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘