मंगल सक्सेना के प्रशिक्षण शिविर से पहले ही नये रंगकर्मियों की संभावना बढ़ी
आरएनई, बीकानेर।
इंडिया रेस्टोरेंट में प्रदीप भटनागर जी व विष्णुकांत जी बाकी लोगों की प्रतीक्षा कर रहे थे और दोनों ही वर्तमान स्थितियों पर गम्भीर मंथन भी कर रहे थे। दोनों ने तय किया कि शिविर से कुछ नये लोगों को जोड़ा जायेगा ताकि रंगकर्मियों का कुनबा भी बड़ा हो और साथ में शिविर के लिए भी किसी तरह की समस्याएं न खड़ी हो।
उन दोनों को थोड़ी देर में जगदीश शर्मा जी, मनोहर पुरोहित जी ने भी जॉइन कर लिया। उनसे भी नये लोगों पर बात हुई और वे भी सहमत हुए। तब प्रदीप जी का सुझाव था कि पहली कड़ी में उन लोगों से बात की जाये जिन्होंने एक – दो नाटक में शौकिया तौर पर काम किया है। या जो पहले सक्रिय थे और अब काफी समय से निष्क्रिय है। ऐसे नामों पर चर्चा करने में ही चांद रजनीकर, आशुतोष कुठारी, बुलाकी शर्मा आदि के नाम आये।
फिर विष्णुकांत जी ने अपने तीन पुत्रों राजीव लोचन, अनुभव व संयोग के साथ अविनाश व्यास, कैलाश वैष्णव का नाम बताया। हरीश भादानी जी ने अपने पुत्र शैलेष व पुत्री कविता का नाम दिया था। सरल विशारद जी ने अपने पुत्र अरुण व पुत्री अणिमा का नाम दिया। विद्यासागर जी ने अपने पुत्रों आनंद व मधु आचार्य का नाम दिया।
इस तरह शिविर के लिए एक अच्छी और हेल्दी टीम बन गयी थी। सीनियर लोगों में विष्णुकांत जी, प्रदीप जी, जगदीश जी, एल एन सोनी जी, मनोहर जी, छलिया जी, यासीन जी, हनुमान पारीक जी, चांद रजनीकर जी आदि थे और बाकी नये लोग थे। अब प्रदीप जी व कांत जी आश्वस्त थे कि बीकानेर में एक अच्छा और उपयोगी नाट्य प्रशिक्षण शिविर हो जायेगा। स्थान के लिए सब मोहता भवन के पीछे के हिस्से पर पहले ही सहमत हो चुके थे।मोहन शर्मा जी व ज्ञान जी से मंगल सक्सेना जी को लेकर आने की उस दिन की बात थी और धीरे धीरे रंगकर्मी जुट गये थे। उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। इंडिया रेस्टोरेंट और उसको चलाने मेघू जी का भी बीकानेर के रंगकर्म में कम योगदान नहीं है। वे इन रंगकर्मियों का बहुत सम्मान करते थे और उनकी सुविधाओं का भी पूरा ख्याल रखते थे। यहां चाय पीने में भी सामूहिकता की भावना थी। सब सक्षम थे मगर किसी एक पर बोझ नहीं डालते थे।प्रदीप जी खड़े होते। दोनों हाथों को बंद करके मुट्ठी बनाते और सबके सामने ले जाते। जिसकी जितनी ईच्छा या सामर्थ्य हो वो उतने पैसे उस मुट्ठी में चुपके से डाल देता था। किसी को पता नहीं चलता कि किसने कितने पैसे डाले। बंद मुट्ठी को खोला जाता। चाय के पैसे अलग किये जाते और बचे हुए पैसों से मोटे भूजिये खरीद लिए जाते। फिर सब मिलकर इन दोनों चीजों के बराबरी के हिस्सेदार बनते। ये भी सामूहिकता की भावना का एक बड़ा उदाहरण था। कई लोग कम आय वाले होते तो कुछ बेरोजगार, किसी को भी इसका अहसास नहीं होने दिया जाता था। ये भावना ही तो रंगकर्म का मूल आधार है जिसे प्रदीप जी करीने से सबको सहज में ही सीखा देते थे।
मोटे भूजिये और चाय के साथ फिर रंगकर्म पर गंभीर चर्चा आरम्भ होती। कई बार तो चर्चा काफी गर्म हो जाती और दो लोग तेज तेज आवाज में बहस करने लग जाते। ऐसा लगने लगता जैसे उनके बीच झगड़ा हो गया हो। वास्तव में वो झगड़ा ही होता था मगर व्यक्तिगत नहीं। किसी बात का, किसी विचार का झगड़ा होता। थोड़ी देर बाद झगड़ने वाले साथ साथ बैठे हंस रहे होते। मेघू पूछता कि अभी तो आप झगड़ रहे थे और अब आप प्रेम से बात कर रहे हो।
प्रदीप जी उस समय अक्सर कहा करते थे कि हमारे बीच किसी नाटक या प्रस्तुति को लेकर मतभेद होते हैं, मनभेद नहीं। इसलिए जो ये समझता है कि हम झगड़ते हैं, वो मूर्ख है। हमें व्यक्तिगत तो कुछ बांटना है ही नहीं, नाटक की बात है। उसमें राय भिन्न भिन्न हो सकती है। मगर उसमें भिन्न राय व्यक्त करने वाले का व्यक्तिगत कोई सरोकार नहीं होता। भिन्न भिन्न राय होने पर ही तो हम सुधार के रास्ते पर चलते हैं। इतना सब सुनकर सभी हंसने लगते और प्रदीप जी की बंद मुट्ठी एक बार फिर घुमने लग जाती। यानी एक और चाय की तैयारी।
वर्जन
नाटक के मंचन पर निर्देशक या कलाकार पर कोई भी दर्शक जो भी टिप्पणी करे उसे ध्यान से सुनना चाहिए। खासकर जब कोई रंगकर्मी करे तो। क्योंकि उसके पास अपना एक व्यावहारिक अनुभव भी होता है। उसकी टिप्पणी से असहमत हुआ जा सकता है मगर उसको लेकर मन में कोई कुंठा नहीं पालनी चाहिए। इससे हमारा ही नुकसान होता है। मतभेद हो, मनभेद नहीं। तभी आगे बढ़ने के रास्ते खुलते हैं। दुर्भाग्य है कि आज के रंगकर्मियों में सुनने की क्षमता बहुत कम है, तुरंत मनभेद कर बैठते हैं।