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राजस्थान बनने का तो बड़ा सुख, मगर राजस्थानी भाषा को मान्यता न मिलने का अब भी मलाल

RNE, BIKANER .

आज राजस्थान स्थापना दिवस है और ये हर राजस्थानी के लिए गौरव की बात है। वीरों, शूरवीरों, त्याग, तपस्या, संघर्ष के प्रयाय इस प्रदेश की संस्कृति अनूठी है। जिसके कारण देश में हर राजस्थानी खास मान पाता है और भीड़ में भी अलग से पहचाना जाता है। समृद्ध साहित्य, आकर्षित करने वाली संस्कृति के कारण ये प्रदेश हर देशवासी को प्रिय है। जीवन में संघर्ष क्या होता है, ये राजस्थान से सीखते हैं लोग। अपनी बात पर कायम रहने के लिए त्याग देखने भी यहीं आते हैं लोग। हरहाल में खुश रहकर खुशी बांटने का गुण राजस्थानी में ही मिलता है। इस प्रदेश के लोगों का फैलाव पूरे भारत में है। व्यापार के जरिये उन्होंने हर प्रदेश में अपनी संस्कृति की जड़े जमाई। साहित्य, संस्कृति से पूरे देश में मान पाया। उस प्रदेश की स्थापना का दिन यहां के हर व्यक्ति के लिए बड़े त्यौहार से कम नहीं।


मगर जब भी राजस्थान का स्थापना दिवस आता है तब हर राजस्थानी के मन में एक कसक रहती है, मलाल रहता है। उसकी वजह है, राजस्थान की मातृभाषा राजस्थानी को अब तक मान्यता न मिलना। पंजाब में पंजाबी को, कर्नाटक में कन्नड़ को, महाराष्ट्र में मराठी को, बंगाल में बंगाली भाषा को मान्यता है मगर राजस्थान में मायड़ भाषा राजस्थानी को मान्यता नहीं है। 12 करोड़ लोगों की इस भाषा को न तो केंद्र सरकार ने संवैधानिक मान्यता दी है और न ही राज्य सरकार ने दूसरी राजभाषा बनाया है। ये कसक, मलाल जायज भी है। दुनिया मे ऐसा कौन होगा जिसे अपनी मां बोली से प्रेम नहीं होगा।

ऐसा भी नहीं है कि अपनी मातृभाषा के लिए यहां के लोग बोल नहीं रहे। लगातार अपनी मांग हर सरकार के सामने रख रहे हैं मगर बात सुनी नहीं जा रही। हर सत्ता सुनती है मगर करती कुछ नहीं। उसी से लगता है सत्ताओं का मूल स्वभाव निष्ठुरता का ही होता है। अब राजस्थानी लोग अन्य भाषाओं के लोगों की तरह अलग तरह का आंदोलन करके सरकारों को दबाव में तो ला नहीं सकते। कई भाषाओं के लोगों ने आंदोलनों के जरिये बोलने वालों की कम संख्या होने के बाद भी केंद्र सरकार से मान्यता ले ली।
राजस्थान की संस्कृति प्रेम, स्नेह की है, जिसमें हिंसात्मक कामों को कोई स्थान नहीं। वे शालीनता से अपनी बात रखते हैं, रख रहे हैं मगर उसे सुना नहीं जा रहा। मगर सत्ताओं को ये भी नहीं भूलना चाहिए कि राजस्थानी संघर्ष व शौर्य का भी गुण रखते हैं। जिस दिन हारकर उसे अंगीकार कर लिया तो उनके सामने संकट खड़ा हो जायेगा। राजस्थानियों के इस गुण को वे अभी तक भी पहचान नहीं पा रहे हैं।


दुःख तो उन माननीयों से भी होता है जो लोकसभा, राज्यसभा व विधानसभा में चुनकर जाते हैं। वे अपने घर में, समाज में, शहर में जिस भाषा को बोलते हैं, उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहे। जिस भाषा का सहारा लेकर जीतने के लिए वोट मांगते हैं, उस भाषा को ही जीतने के बाद भुला देते हैं। उस पर बोलने से भी कतराते हैं। यदि राज्य के 25 सांसद लोकसभा के, राज्यसभा के सांसद व 200 विधायक ठान ले कि हमें हमारी मातृभाषा को मान्यता दिलानी है तो कौनसी सत्ता है जो नहीं झुकेगी। मगर ऐसा वे करते ही नहीं। चुनाव के समय आते हैं, भाषा में बोलकर उस भाषा के पक्ष की बात करते हैं, मगर दिल्ली या जयपुर जाने के बाद सबसे पहले किसी चीज को विस्मृत करते हैं तो अपनी मातृभाषा को। ये दुखद सच है। आज राजस्थान का स्थापना दिवस है। हर राजस्थानी को संकल्प लेना चाहिए कि वो अपनी मायड़ भाषा राजस्थानी की मान्यता के लिए सरकारों के सामने खड़ा होगा, माननीयों को मजबूर करेगा और संघर्ष की जरूरत पड़े तो संघर्ष करेगा। ये ही संकल्प इस दिवस को सार्थक करेगा।
 मधु आचार्य ‘ आशावादी