मलाल : मायड़ भाषा में वोट मांगने वाले किसी भी प्रत्याशी ने नहीं कहा-भाषा को मान्यता दिलाऊँगा
राजस्थान में तो लोकसभा का चुनाव हो गया। वोट पड़ गये। अब केवल 4 जून को परिणाम आने बाकी है। देश में भले ही वोट पड़ने बाकी है, मगर हम राजस्थानियों के तो आम चुनाव की प्रक्रिया पूरी हो गई। मजेदार बात हुई। चाहे कोई सा भी दल हो, उसके उम्मीदवार ने मायड़ भाषा यानी राजस्थानी में आकर वोट मांगे। उनके राज्य के नेता समर्थन में आये, उन्होंने भी मायड़ भाषा का सहारा वोट मांगने में लिया।
ह्रदय उतरने वाली राजस्थानी में हमको रिझाया। हमने भी वोट दे दिये। भले ही किसी उम्मीदवार को वोट दिया, उसने वोट तो मायड़ भाषा मे ही मांगा था। हम फिर गफलत में आ गये। किसी भी दल के किसी भी उम्मीदवार ने मायड़ भाषा मे बोलते हुवै भी ये नहीं कहा कि मैं हमारी राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता दिलाऊंगा, या दूसरी राजभाषा बनवाऊंगा। भाषा बोली जरूर मगर ये बात नहीं की।
तरस तो हमें खुद पर भी आना चाहिए। साहित्यिक मंचों पर दहाड़ते हैं हम अपनी राजस्थानी के लिए। इस भाषा के पुरस्कार लेने के लिए घुड़दौड़ लगाते हैं। किताबें छपवा इतराते हैं। सम्मान करवातें हैं। उठापटक करते हैं। राजस्थानी के नाम पर अपनी दुकान चलाते हैं। ग्रुप बना एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं। अखबारों में मान्यता के पेटे हर हफ्ते एक खबर छपवा शहर को मायड़ का हिमायती बताते हैं। मगर अफसोस ! जब चुनाव का अवसर आया और माननीय हमारे द्वार आये तो हमने राजस्थानी को लेकर उनसे तल्ख सवाल नहीं किये। उनको उलाहना नहीं दी। विरोध नहीं जताया। भाषा को मान्यता न मिलने पर हम गुस्से में है, ये भी अहसास नहीं कराया। दुःख तो इस बात का है कि इन माननीयों का स्वागत किया। मालाएं पहनाई। जय जयकार की, अधिकतर ने। सबकी बात मैं नहीं कहता।
अब माननीयों का तो काम निकल गया। वोट तो 5 साल बाद आयेंगे। हमें तब तक तो सहन ही करना पड़ेगा। अपनी पहले से अगर माननीयों को मान्यता देनी होती, दूसरी राजभाषा बनाना होता तो ये काम तो वे कब का कर चुके होते। दुःख इस बात का भी है कि हमने कोंकणी, बोड़ो, असमी, कन्नड़, तमिल भाषा के लाडलों से भी कुछ नहीं सीखा। उन्होंने अपनी भाषा को जिस तरह मान्यता दिलाई उससे सीख लेकर हम भी राजस्थानी तरीके से अपनी भाषा की वकालत तो कर ही सकते थे। वाजिब सवाल है, उन लोगों से जिन्होंने इस बार माननीयों से सवाल नहीं किया उनसे, क्या उनको अब इस मसले पर बोलने, पुरस्कार पाने, किताब छपवाने, अखबारों में खबर छपवाने आदि का हक है क्या ? अपने भीतर वे झांके और खुद ही इसका जवाब तलाश करें। बाकी मायड़ के हेताळुओं को तो लिखना ही है, संघर्ष करते रहना है, सहन भी करते रहना है। हे भाषा के नाममात्र के मठाधीशों !! जरा तो अस्मिता के इस सवाल पर सोचो।
-मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘