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कोटगेट क्रॉसिंग पर खड़ा बीकानेर आज भी महेन्द्रसिंह जैसे सांसद का कर रहा इंतजार

  • फिर आई इक याद पुरानी : महेन्द्रसिंह भाटी  बोलता गया, दिल्ली चुपचाप सुनती रही
  • कमलेश कंवर, रवींद्रसिंह भाटी, महेन्द्रसिंह भाटी और नरेंद्र पांडे की याद में रक्तदान 
  • उस दर्द का अब तक इलाज नहीं हुआ जो महेन्द्रसिंह ने  दिल्ली की पंचायत में पांव रखते ही बयां किया

  • धीरेन्द्र आचार्य

शुरूआत एक निजी संस्मरण से..

उन दिनों बीकानेर के नाल गांव से जो गुजरता वह इकलौती ‘बाबोसा सुराणा की चाय की दुकान’ पर जरूर ठहरता। वे मनुहार कर चाय पिलाते। आने-जाने का कारण पूछते। चूंकि बाबोसा हमारे परिवार का हिस्सा थे इसलिये शैलेष आचार्य के साथ बाइक पर कोलायत से आते हुए वहां रूका ही था कि आगे से तेज रफ्तार गाड़ियों का काफिला निकला। स्पीड इतनी तेज कि गाड़ियों की महज गिनती ही हो सकती थी। कुछ ही दूरी पर जाकर गाड़ियां रूक गई। एक गाड़ी की खिड़की में से युवक ने झांका तो चाय की होटल पर मौजूद हर शख्स के मुंह से निकला-हनी बन्ना! यानी महेन्द्रसिंह भाटी। वही महेन्द्रसिंह भाटी जिसने बीकानेर लोकसभा क्षेत्र से पहली बार बीजेपी को जीत दिलाई और 11वीं लोकसभा में पहुंचे।

अपणायत : 

गाड़ी की खिड़की में से झांकते पूछा ‘आज अठै कियां बैठा हो?’ मैंने कोलायत से लौटते हुए ठहरने की बात कही। बाकी बातों के बीच उनसे इस रफ्तार में काफिला दौड़ाने की वजह पूछी तो जो जवाब मिला वह आज तक मेरे जेहन में तो घूम ही रहा है, आज के नेताओं को भी उसे जरूर जानना, सुनना, समझना चाहिए। हो सके तो वैसा ही अपना आचरण रखना चाहिए।

चिंता अपनों की :

वह जवाब कुछ यूं था, ‘शाम होने वाली है। रोजे चल रहे हैं। रोजेदार दूर बॉर्डर तक बैठे हैं। वहां खाने-पीने को ज्यादा कुछ मिलता नहीं है। रोजे खुलवाने कुछ सामान ले जा रहा हूं। कई गांवों तक पहुंचना है। चलता हूं।‘ मैंने देखा उनके काफिले की गाड़ियां, फलों सहित खाने-पीने के सामान से लदी थी काफिला फिर धूल उड़ाता निकल गया।

परिवार-से संबंधों का खबरी प्रदर्शन नहीं : 

पता चला कि रमजान के महीने में लगभग हर दिन कुछ यूं ही रोजेदारों के लिये इंतजाम होता है। बड़ी बात यह है कि पावभर खजूर खिलाकर रोजा अफ्तारी की बड़ी-बड़ी खबरें छपवाने वाले दौर मे कभी यह बात नहीं आई कि भाटी परिवार ने किसी को रोजा अफ्तारी करवाई। यह उनकी रोजमर्रा की पारिवारिक जिम्मेदारी जैसा काम हो गया था। इस तरह किसी को देखकर रूक जाना, बतलावण करना महेन्द्रसिंह भाटी को अपने समकालीन बाकी नेताओं से अलग करता था। शायद यही वजह है कि देवीसिंह भाटी के एक बुलावे पर हजारों की भीड़ जुटती है।

जीवन छोटा था, रफ्तार तेज रखनी ही थी : 

जिस रफ्तार से काफिला गुजरा उसी रफ्तार से जीवन को जीकर यह नौजवान नेता दुनिया को अलविदा कह गया। महेन्द्र सिंह भाटी अपने खास मित्र नरेन्द्र पांडे के साथ एक दुर्घटना का शिकार होकर दुनिया को अलविदा कह गए। रोजा अफ्तारी जैसी बहुत-सारी सौगातें, यादें देकर। उनके छोटे भाई रवीन्द्रसिंह, मां कमलेश कंवर इससे चार साल पहले ऐसे ही सड़क हादसे में दुनिया छोड़ गए थे। आज इन चारों की याद में ब्लड डोनेशन कैंप हो रहा है। आयोजक है महेन्द्रसिंह भाटी के बेटे विधायक अंशुमानसिंह। मतलब यह कि दादा देवीसिंह और पिता महेन्द्रसिंह के रास्ते पर ही एक और पीढ़ी जनसेवा को अपना कर्तव्य मानकर चल पड़ी है।

भैरोंसिंह ने टास्क दी, देवीसिंह ने कबूली, महेन्द्रसिंह मैदान में:

मई 1996 में 11वीं लोकसभा के चुनाव हुए। प्रदेश में भैरोसिंह शेखावत सरकार थी और राज्य में कद्दावर मंत्री थे देवीसिंह भाटी। उन्हें भैरोसिंह जी से टास्क मिला, कुछ भी हो जाए इस बार बीकानेर के लोकसभा चुनाव में कमल खिलाना है। भाटी ने चैलेंज स्वीकार, प्रतिष्ठा के रूप में बेटे महेन्द्रसिंह को मैदान में उतारा। पुराने लोकसभा क्षेत्र से परिचित लोग जानते हैं कि यहां चुनाव लड़ना आसान न था। आधा श्रीगंगानगर-हनुमानगढ जिला, पूरा बीकानेर और नागौर के दूरस्थ जायल तक बीकानेर लोकसभा क्षेत्र।

पहले पांच चुनाव बीकानेर के महाराजा करणीसिंहजी ने जीते। उसके बाद के पांच चुनाव में से तीन मनफूलसिंह भादू, एक-एक हरिराम और उनके बेटे श्योपतसिंह। यानी एक खास वर्ग के लिए सीट लगभग तय मानी जाती थी। सामने वही मनफूलसिंह जो तीन बार जीत चुके थे। जितना जी-जान देवीसिंह भाटी ने लगाया हैरानी की बात यह है कि प्रत्याशी महेन्द्रसिंह भी उससे कम नहीं रहे। पहले ही चुनाव में उन्होंने सैकड़ों ऐसे कार्यकर्ता तैयार कर लिये जो उन्हें ‘भायला’ मानने लगे थे। बुलाकी गहलोत, गोपाल गहलोत, गुमानसिंह राजपुरोहित, हिम्मतसिंह, दौलतसिंह, सुनील बांठिया, उमाशंकर आचार्य, नरेन्द्र पांडे जैसे बीसियों नाम अब भी अंगुलियों पर गिनाये जा सकते हैं जो खुद प्रत्याशी बनकर गली-गली घूमे। नतीजा-16 लाख 74हजार 836 में से 07 लाख 72 हजार 212 वोट पड़े और इनमें से 340632 वोट लेकर महेन्द्रसिंह भाटी ने बीकानेर लोकसभा क्षेत्र में पहली बार कमल खिलाया।

दो साल कार्यकाल:

भारत के संसदीय इतिहास में 11वीं लोकसभा को अगर हमेशा यााद किया जाता है तो वह है अटलबिहारी वाजपेयी के बतौर प्रधानमंत्री सबसे छोटे कार्यकाल वाली सरकार के रूप में। यह सरकार 16 मई से 01 जून तक चली। बहुमत नहीं मिला। पहले देवेगौड़ा फिर इंद्र कुमार गुजरात प्रधानमंत्री बने और मार्च 1998 में सरकार गिर गई। पार्टियां चुनाव मैदान में आ गई। यही दो साल का कार्यकाल रहा महेन्द्रसिंह भाटी के पास बतौर सांसद अपनी प्रतिभा दिखाने का।

वो बोलता रहा, सदन सुनता रहा:

लोकसभा में रेलवे बजट के बाद ग्रांट पर सप्लीमेंट्री डिमांड चल रही थी। रामविलास पासवान रेलमंत्री थे। जो बोलता, उसे बीच में टोकते और कुछ जवाब बीच मंे ही दे देते। मसलन, अरूणकुमार शर्मा ने पूर्वोत्तर के रेलवे स्टेशनों पर सुविधाओं की बात उठाई तो पासवान बीच में बोले, पूर्वोत्तर में गुवाहाटी से आगे रेल लाइन ही नहीं है।’ इसके बाद महेन्द्रंिसह की बारी आई। यहां भी कोलायत देश का आखिरी स्टेशन था इससे आगे रेल लाइन नहीं जाती थी। रेल के मसलों पर बोलना शुरू किया तो समय लगभग पांच मिनट दिया गया था। आसन पर पी.सी.चाको मौजूद थे। धाराप्रवाह बोलते भाटी को टोकना भूल गए और 12 मिनट बाद टोकना याद आया। इसके बाद भी महेन्द्रसिह लगभग तीन मिनट और बोले। उस भाषण का अभी जिक्र बहुत लंबा हो जाएगा लेकिन जो रूचि रखते हैं उन्हें 11 अगस्त 1997 की वह प्रोसिडिंग पढ़नी चाहिए शायद आज की अधिकांश रेल समस्याओं का देश की सबसे बड़ी पंचायत में पहली बार इस तरह प्रस्तुतिकरण हुआ।

कोलायत के माथे से आखिरी स्टेशन का दाग हटा…

इस भाषण के बाद ही कोलायत के माथे पर से देश के आखिरी रेलवे स्टेशन का दाग हटा और फलौदी तक लाइन बनी। हालांकि इसके लिये बाद में रक्षामंत्री जसवंतसिंह ने देवीसिंह भाटी के हस्तक्षेप से काफी सहयोग किया। महेन्द्रसिंह के सदन में उस भाषण में कोटगेट रेलवे क्रॉसिंग का मसला पुरजोर तरीके से उठाया गया। रेलमंत्री सी.के.जाफर शरीफ और मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत की ओर से मौका मुआयना किये जाने का जिक्र हुआ। राज्य सरकार की ओर से जमीन और आधी लागत देने की बात कही। जल्द समाधान की मांग उठी। अफसोस, बाद में इस मसले पर दूसरे सांसद इतना प्रखर फॉलोअप नहीं कर पाये और समस्या अब घाव की जगह नासूर बनी, महेन्द्रसिंह भाटी जैसे किसी सांसद के बोलने का इंतजार कर रही है। नियम 377 में अपनी बात रखते हुए बीकानेर से हावड़ा के बीच सीधी ट्रेन चलाने का जिक्र पहली बार महेन्द्रसिंह भाटी ने लोकसभा में किया। मेड़ता से बीकानेर की इंटरसिटी रोके जाने और जयपुर पहुंचने में हो रही देरी को दूर करते, अजमेर के लिये सीधी ट्रेन चलाने सहित कई महत्वपूर्ण मुद्दे भाटी ने रखे।

प्रधानमंत्री गुजराल को गिना दिया आटे-दाल का भाव:

‘नीड फॉर स्ट्रीम लाइनिंग द पब्लिक डिस्ट्रीब्युशन सिस्टम’ मोशन पाणिग्रही बहस के लिये लाये थे और नियम 193 में डिस्कशन चल रहा था। गजब की तैयारी के साथ पहुंचे बीकानेर के 28 वर्षीय युवा सांसद महेन्द्रसिंह ने गरीबों को मुफ्त या सस्ता अनाज देने की पीडीएस योजना की परतें उधेड़कर रख दी। राजस्थान के हिस्से में आबंटित से कम अनाज आने के आंकड़े रखे। इतना ही नहीं एक परिवार को 40 किलों गेहूं की दरकार का फार्मूला कुछ इस तरह रखा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री आई.के.गुजराल जो इससे पहले कुछ वक्ताओं के बीच में हस्तक्षेप कर चुके थे अबकी बार तल्लीन होकर सुनते रह गए। भाटी ने योजना में ऐसे सुझाव बताए जो लागू कर दिये जाएं तो अपनी जेब से महज सौ रूपए खर्च कर गरीब परिवार महीनेभर का राशन जुटा सकता था। बाद में इस योजना में खामियां मानी गई। कई सुधार हुए। लगभग दो साल के छोटे-से कार्यकाल में कई बहुत बड़ी बातें हुई जिनका जिक्र फिर कभी।

सामाजिक न्याय की उस लड़ाई ने दिया आज का मुख्यमंत्री भजनलाल:

देवीसिंह भाटी के भाजपा से संबंध बिगड़े तो मुद्दे व्यक्ति से कहीं ज्यादा सामाजिक थे। ‘उपेक्षित को आरक्षण-आरक्षित को संरक्षण’ का नारा दे भाटी ने सामाजिक न्याय मंच के जरिये राजस्थान में अलख जगा दी। महेन्द्रसिंह हरावळ दस्ते के प्रभारी हो गए। पूरे राजस्थान में विचार को पहुंचाय। पत्रकार मधु आचार्य ‘आशावादी’ काफी अंतरंग बातें करते। एक अनौपचारिक हथाई में जब “इस मुद्दे में खास दम नहीं” तंज किया गया तो दृढ़ संकल्प के साथ बोले, ‘देख लेना मधुजी, एक दिन दुनिया को इसे मानना पड़ेगा।’ आज का ईडब्ल्यूएस आरक्षरण कमोबेश उसी मुद्दे की देन है। उस आंदोलन की देन ही माना जाएं कि आज के मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने उसी मुद्दे पर खड़े होकर सामाजिक न्याय मंच से चुनाव लड़ा। इतना ही नहीं आज के विधायक ताराचंद सारस्वत और बाद में दो बार भाजपा से विधायक रह चुके गोपाल जोशी भी उस मंच से प्रत्याशी थे। मतलब यह कि कहीं न कहीं भाजपा से वैचारिक तौर पर काफी नजदीकी थी सामाजिक न्याय के उस विचार की।

बेटे का 8वां जन्मदिन, पिता की अंतिम विदाई, 28 का आंकड़ा:

12 दिसंबर 2003 को जब पूर्व सांसद महेन्द्रसिंह भाटी की दुर्घटना में मौत की खबर आई उस दिन उनके बेटे अंशुमानसिंह आठ साल के हुए थे।  मतलब यह कि बेटे के दूध के दांत झड़े नहीं और 28 साल की उम्र में सांसद बने पिता ने दुनिया को अलविदा कह दिया। यहां 28 के  आंकड़े के भी अजब योग है कि महेन्द्रसिंह भाटी के सांसद बनने के ठीक 28 साल बाद बेटा अंशुमान भी पहली बार विधायक बना।

कुछ ऐसे ही बोला अंशुमान:

महेन्द्रसिंह भाटी फिर उस समय बहुत याद आये जब राजस्थानी मंे शपथ लेते उनके बेटे अंशुमान को टोका गया तो उन्होंने पहली बार विधायक होने की झिझक छोड़ तपाक से विपक्ष को जवाब दिया। डोटासरा ने इस शपथ के दौरान तंज कसा और जोगेश्वर गर्ग ने भाषा के मुद्दे को जायज ठहराया। कुछ ऐसा ही लगा मानो संसद में बोलते भाटी को पी.सी.चाको ने टोका हो और वे तपाक से जवाब देकर उसके बाद लगभग तीन मिनट और बोले हो।