बीकानेर की तपती शाम पर बनारस की पूजा ने गिरिजा की ठुमरी छिड़की
- पूजा की ‘ठुमरी’, नेहा की ‘कजरी’, श्रद्धा के ‘शर्मीले नैन..’ ‘दीवारों से बातें..’ करते सागर
- विरासत: देशभर से सुर समेटकर ठुमरी, दादरा, लोक, गजल से सजा दी बीकानेर की शाम
- धीरेन्द्र आचार्य
RNE, बीकानेर।
49 डिग्री तापमान के साथ लू के थपेड़ों से जूझते दिन ने जब बुझी-सी शाम बीकानेर के हवाले की तो न पान की दुकान पर हथाई थी न पिचके वाले ठेले पर भीड़। कुछ चाहत थी तो बस इतनी कि सुलगती शाम जल्द गुजर जाए, रात थोड़ी ठंडी हो जाएं। अगली सुबह सूरज आये तो बाबा के आग बबूला ‘हेले’ सा नहीं, बल्कि ‘मन-पसंद पूड़ी बनाऊगी’ वाले मां के गुनगुने प्रलोभन के साथ जगाएं।
बस, इतना हो जाएं तो कम से कम अगला दिन तो अपने बीकानेरी अंदाज में बितायें। यह ख्वाहिश तो पूरी नहीं हुई लेकिन शहर के एक किनारे बने टीएम ऑडिटोरियम में मौजूद लोगों पर सुरों की बौछार के साथ ताल के झोंकों ने मिलकर कुछ ऐसी सुरीली फुहारें बिखेरी कि भट्टी से तपते नौतपा में भी मन ‘सावन’ हो गया।
बात ठुमरी.. यानी बनारस..यानी गिरिजादेवी की..:
सुरों के मेघ छाएं और ठुमरी की फुहारें आएं तो पलको के दरवाजे खुद-ब-खुद बंद हो जाते हैं। मन दौड़-दौड़ जाता है बनारस के घाटों पर। मचलता है गिरिजादेवी की सुर-गहराइयो में डुबकियां लगाने को। यह तलाश तब भी हुई जब बनारस यानी काशी से आई पूजा राय ने ‘छोटीकाशी’ बीकानेर में गिरिजादेवी की ठुमरी ‘मोरा सैंया बुलावै आधी-आधी रात…’ की तान छेड़ दी। खुली आंख से देखा तो प्रेमी पुकार रहा था और पलक बंद की तो ईश्वर को पाने की ललक थी। दोनों ही हालात में ‘काली आधी रात में अवरोधों की नदी’ पार करने की लालसा, तड़प और असमंजस थी। पूजा ने शब्दों में भरे इन भावों को सुरों पर सवार कर ताल के प्रवाह से श्रोताओ के दिलों तक पहुंचा दिया।
‘चला रे परदेसिया नैना लगाय के…’ और ‘हमरी अटरिया पर आवो सांवरिया..’ को दादरे में ढाल उन्मुक्तता दी वहीं लहरों-से सुरों को बेगम अख्तर की ‘ए मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया..’ गजल की झील पर ले जा ठहरा दिया। गजल की इसी झील में रतनगढ़ के यश कत्थक ने हाकिम हसन शायर की ‘जिंदगी की नाव..’ चलाई। बनारस की ही नेहा यादव ने मिर्जापुरी ‘कजरी..’ से शांत पानी में लोक का ज्वार उभारा वहीं भिलाई की श्रद्धा ने ‘प्यार भरे दो शर्मीले नैन..’ से माहौल को रूमानी कर दिया।
बारी जब खास अदायगी से श्रोताओं बांध लेने वाले रफीक सागर की आई तो उनके साथ ‘दीवारों से बातें करना अच्छा..’ लगा। सागर ने ‘रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिये आ..’ की तड़पभरी पुकार भी अपने अंदाज से पैदा की। संगीत गुरू पंडित पुखराज शर्मा कहां पीछे रहने वाले थे ‘‘क्या तुझपे नज्म लिखूं..’ गाकर उन्हें वाहवाही लूटते देख संचालन करते हेमंत डागा ने तलत महमूद के ‘सीने में सुलगते अरमां…’ श्रोताओं के दिल में सुलगा दिये।
बात फिर सुलगने पर आ गई तो भले ही बीकानेर गहराती रात में भी दिनभर छोड़े गए सूरज के ताप से सुलग रहा था लेकिन टीएम ऑडिटोरियम में यह ताप सुरों की बौछार में धुल चुका था। दरअसल यह सुरमयी शाम उस वर्कशॉप का हिस्सा थी जो बीकानेर में विरासत संवर्द्धन संस्थान की ओर से चल रही है।
सुर-संगम संस्था के साथ हो रही इस कार्यशाला में देश-दुनिया के ख्यातनाम संगीतकार, गायक न केवल अपनी-अपनी विधा की बारीकियां सिखा रहे हैं वरन हर दिन कुछ खास प्रस्तुतियां भी दे रहे हैं। इसी कड़ी में रविवार की शाम ठुमरी, दादरा, गजल जैसी शास्त्रीय, उपशास्त्रीय ‘मिर्जापुरी कजरी’ जैसे लोक संगीत के नाम रही।
हां, बात जब गजल की चली तो विरासत के अध्यक्ष टोडरमल लालानी ने इसकी व्याख्या भी कुछ यूं की ‘शिकारी से बचने भागता हिरण कांटों की बाड़ में उलझ जाये तब जो चीत्कार निकलती है, वह गजल है। मतलब यह कि गजल में दर्द छिपा होता है।
आयोजन से जुड़े जतनलाल दूगड़ ने बताया, इस उच्च स्तरीय भारतीय संगीत प्रशिक्षण कार्यशाला के तीसरे दिन पंडित भवदीप ने भीम पलासी, काफी राग का प्रशिक्षण-अभ्यास करवाया। पंडित पुखराज शर्मा, गुलाम हुसैन इनमें खासतौर पर साथ दे रहे हैं। सुर-संगम के के.सी.मालू का कहना है, यह कार्यशाला बहुत सार्थक और संतुष्टि देने वाली है। प्रस्तुतियों के दौरान सितार एवं सरोद-वादक, गजल गायक जुड़वां भाइयों की संगीतकार जोड़ी असित-अमित गोस्वामी की खास मौजूदगी रही।