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पत्रकार-साहित्यकार हरीश बी. शर्मा की माता कुसुमलता को उनके ज्येष्ठ पुत्र कदम शर्मा ने मुखाग्नि दी

  • अंतिम यात्रा में देशभर से पहुंचे रिश्तेदार-स्नेहीजन, नेता, अभिनेता, अधिवक्ता, डॉक्टर

आरएनई, बीकानेर।

छरहरा बदन। आंखों पर चश्मा और होठों पर स्थायी मुस्कान। आने वाला पांव छूता, प्रणाम करता तब तक तो खुद ही बोल पड़ती ‘लो, मेरा बेटा आ गया। लूण-मिर्ची की पूड़ी तो इसके लिए बनानी ही पड़ेगी। भरपेट खाना खाकर आने वाला भी उस पूड़ी का मोह नहीं छोड़ पाता और सर्दी की रात हो या गर्मी की दुपहरी हाथों हाथ पूड़ी बनती। स्वाद का तो जवाब ही नहीं और जब एक बार तवा गर्म हो जाता तो बात सिर्फ पूड़ी तक नहीं रूकती। खाने वाले बेटों की तादाद बढ़ती जाती और थाली में पूड़ी के साथ अचार, सब्जी, रोटी, भुजिया शामिल होते जाते। साथ ही काम में जुट जाते बहू गायत्री से लेकर बच्चे अहर्निश, सौरम तक सभी।

कदमकुमार शर्मा, मीनाक्षी शर्मा और हरीश बी.शर्मा को जन्म देने वाली उस मां का नाम कुसुमलता शर्मा है ये शायद इन तीन के अलावा उन बाकी लोगों को पता ही नहीं होगा जिनका इस चूल्हे पर साझा हक था। नाम से मतलब ही नहीं था, सबकी जुबां पर एक ही संबोधन था ‘मम्मी’। बीकानेर के बीसियों साहित्यकारों, पत्रकारों, रंगकर्मियों से लेकर हॉकर और रेहड़ी वाले तक उसके बेटे थे जिनके लिये किसी भी वक्त बन सकती थी ‘पूड़ी’। वास्तुविद आर.के.सुतार, अंकशास्त्री कुमार गणेश, रंगकर्मी अनिशा, कांट्रेक्टर राकेश राजन, शायर इरशाद अजीज, कवि संजय आचार्य ‘वरूण’ पत्रकार बृजमोहन रामावत, नालंदा स्कूल के संचालक राजेश रंगा, गिरिराज खैरिवाल, मीडिया ग्रुप के मार्केटिंग मैनेजर सुकांत किराड़ू, साहित्यकार नगेन्द्रनारायण किराड़ू, रंगकर्मी रामसहाय हर्ष, अजीत राज, पत्रकार-साहित्यकार आशीष पुरोहित, संजय स्वामी, कलाधर्मी गोविंद रामावत, राजेश ओझा, उदय व्यास जैसे बीसियों नाम है जिनकी अनौपचारिक गोष्ठियां जाने कब कुसुम कुंज में जुट जाती।

बात नाटक, कविता, खबर, आयोजन को लेकर होती लेकिन समापन ‘मम्मी की पूड़ियों’ से होता। कभी-कभार इस समापन में एक घुड़की शामिल होती मधु आचार्य ‘आशावादी’ की जो पूड़ी मंे तो सीर करवाते लेकिन अधिकांश दफा इन अनौपचारिक गोष्ठियों से निकले कच्चे-पक्के विचारों को सिरे से खारिज कर देते। हैरानी की बात यह कि खारिज होने वाले इस बात पर खुश होते ‘चलो एक बार फिर विचार करने बैठेंगे। बात बने न बने, पूड़ियां तो बनेगी ही।’

पीपे में मौजूद आटे के आखिरी दाने तक सबका बराबर सीर मानने वाली साहित्यकारों, पत्रकारों, कलाकारों की इस ‘मम्मी’ की देह शनिवार को पंचतत्व में विलीन हो गई। सेवगों की बगीची के श्मशाम गृह में शनिवार को जब देह लपटों में लिपट धुआं होते हुए आकाशगामी हो रही थी तब वहां मौजूद हर आंख में एक अलग तस्वीर बन रही थी। हर शख्स के साथ कोई याद जुड़ी थी। कोई संघर्ष की गाथा सुनाता तो किसी को जज्बे पर सलाम करते हुए देखा जा रहा था। कोई इस बात पर हैरान कि लगभग छह महीने बीमार रहने के दौरान भी असह्य पीड़ा को पीते हुए हमेशा चेहरे पर मुस्कान और होठों पर ये शब्द रखे ‘मैं बिलकुल ठीक, सब आनंद है।’ आखिरी दिन बोली ‘उत्सव की तैयारी करो।

’ लगा चिंतक-लेखक डा.नंदकिशोर आचार्य ने गहन अध्ययन के बाद मृत्यु को लेकर पाश्चात्य और भारतीय दर्शन में जो भेद बताते हुए भारतीय दर्शन में मृत्यु को उत्सव की तरह माना उसे ‘मम्मी’ ने अनुभूत किया। अंगीकार किया। मौत को महोत्सव की तरह मनाने की नसीहत देकर देह छोड़ गई।
‘मम्मी’ नहीं रही यह बात एक दिन पहले ही पूरे बीकानेर में वायरल हो गई थी। शनिवार सुबह अंतिम यात्रा रवाना हुई तो शहर के लगभग हर वर्ग के प्रतिनिधि इनमें मौजूद दिखे।

भाजपा नेता नंदकिशोर सोलंकी, साहित्यकार-पत्रकार मधु आचार्य ‘आशावादी’, साहित्यकार संजय पुरोहित, एडवोकेट शिवचंद भोजक, एडवोकेट जगदीश सेवग, सामाजिक प्रतिनिधि आर.के.शर्मा, विप्र समाज के भंवरपुरोहित, पार्षद किशोर आचार्य, विश्व हिन्दू परिषद से जुड़े मुकेश शर्मा, मजदूर नेता प्रसन्नकुमार, कांग्रेस नेता नितिन वत्सस, प्रेस क्लब के अध्यक्ष भवानी जोशी, पत्रकार प्रमोद आचार्य, रमेश बिस्सा, सुमित व्यास, रंगकर्मी अभिषेक आचार्य, आरजे रोहित, जिला उद्योग संघ के प्रतिनिधि वीरेन्द्र किराड़ू आदि शामिल रहे।

‘मम्मी’ लेखक नहीं थी लेकिन सजग पाठक थी। वे सिर्फ हरीश बी.शर्मा के लिखे की पहली पाठक ही नहीं वरन सभी लेखकों की किताबें पढ़तीं। हिन्दी, राजस्थानी, बंगाली, गुजराती भाषाओं पर पूरे अधिकार ने उनका शब्दकोश इतना बढा़ दिया कि कई लेखकों की रचनाओं की हंसते-हंसते ही समीक्षा कर जाती, रचनाओं को समृद्ध कर देती।
हरीश बी.शर्मा के लेखन में शायद इसका साफ प्रभाव भी है। उन हाथों से बनी पूड़ियों में लपेटकर दी गई प्रेरणा से अपना सृजन समृद्ध कर चुके बीसियों रचनाकार शायद

निदा फाजली की तरह याद कर रहेे हैं:
‘बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी मां
याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुंकना जैसी मां।।