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कितनी बार हम भटकेंगे संवैधानिक मान्यता के मुद्दे से, झांसों व बहरूपियों के सामने तनते क्यों नहीं ??

आरएनई,बीकानेर।

यूं तो इतिहास इस बात की साख भरता है कि हम राजस्थानी झुझारू हैं, वीर है, संघर्षशील हैं। इसके किस्से, कहानियां भी खूब सुनी और सुनाई जाती है। राजस्थान का इतिहास कहीं भी ये तो नहीं बताता कि हम भोले हैं, झांसों में आ जाते हैं। हमें तो सहनशील, समझदार और संवेदनशील ही परिभाषित किया गया है। फिर कैसे हमारा स्वभाव, व्यवहार और चरित्र बदल गया। हमारा झांसे देने का कोई इतिहास ही नहीं है, फिर हम क्यों झांसों में आना शुरू हो गये हैं। हमने अस्मिता पर सोचना, लड़ना और उसकी रक्षा के लिए मिटना, क्यों छोड़ दिया। झांसों के जाल में कैसे उलझ रहे हैं हम।

हमारी पहचान हमारी राजस्थानी भाषा है, हमारी संस्कृति है और हमारे संस्कार है। इन तीनों की घोर उपेक्षा हो रही है, फिर भी हम मौन है। साजिशन सत्ता, नेता और उनके छुटभय्ये आते हैं और हमें झांसों के जाल में फंसाकर चले जाते हैं। जाल से निकलने में वक़्त लगता है और तब तक सत्ता का चेहरा बदल जाता है। हम फिर नये झांसे की तरफ आकर्षित हो जाते हैं और खुद को, खुद की चाह को भूल जाते हैं।

हमारे अंग्रजों ने सोच समझकर राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता देने का आंदोलन शुरू किया था। उसी के जतन में कई साल खपा दिए। बड़ा काम संवैधानिक मान्यता मिलना है, दूसरा कोई लॉलीपॉप नहीं। मगर सत्ताओं की साजिश के चलते मान्यता के लिए खड़ा हुआ बड़ा आंदोलन कब दो टुकड़ों में बंट गया, किसी को पता ही नहीं चला। अचानक से संवैधानिक मान्यता के साथ साथ राजस्थानी को दूसरी राजभाषा बनाने की बात खड़ी हो गई। कोई उस वक़्त ये सोचने को मजबूर ही नहीं हुआ कि संवैधानिक मान्यता मिलने के बाद दूसरी राजभाषा बनना तो सहज प्रक्रिया है जिसे मामूली से प्रयासों से पूरा कराया जा सकता है। राजस्थानी दूसरी राजभाषा बने, इससे शायद ही कोई भाषा प्रेमी असहमत हो। मगर देखना चाहिए था कि इस नई मांग को क्यों खड़ा किया जा रहा है, क्या ध्येय है, इसमें कहाँ राजनीति है।

उस आंदोलन के साथ तन, मन और धन से जुड़ने वाले लोगों को शायद इस बात का इल्म ही नहीं होगा कि उस मांग के लिए जो संस्था बनी वो भंग भी हो गई है। कौन कर गया राजस्थानी भाषा के साथ राजनीति ? ये सवाल हमारे मन में क्यों नहीं उठा ? जाहिर है, इतनी बड़ी राजनीति भाषा के साथ वो ही करेगा जिसे इस बात का पता हो कि ये लोग आगे जाकर हमारे लिए चुनोती बनेंगे। विश्व का इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी भी राष्ट्र, समाज की अस्मिता यदि समाप्त की गई तो सबसे पहले उसकी भाषा को समाप्त किया गया। भाषा समाप्त होते ही संस्कृति व संस्कार तो स्वतः समाप्त हो जाते हैं।

हम किसी राजनीति के झांसे में आ गये और संवैधानिक मान्यता की मांग से अधिक जोर दूसरी राजभाषा के मुद्दे पर लगा दिया, दोनों की केंद्रीय राजनीतिक सत्ता अलग अलग थी ये समझ ही नहीं पाये और भावुक मन से संवैधानिक मान्यता के बड़े आंदोलन को हाशिये पर डाल दिया और नई मांग पर शक्ति लगा दी। यदि वो भी पूरी हो जाती तो संतोष मिलता, मगर वो परिदृश्य, लोग तो सत्ताओं के बदलाव के साथ ओझल हो गये।

अब फिर से संवैधानिक मान्यता के आंदोलन को खड़ा करने में कितनी मुश्किल आयेगी, ये सहज में ही समझा जा सकता है। सत्ता आराम से हार नहीं मानती, वो नये नये पैंतरे लाती रहती है। अब दूसरी राजभाषा की बात नहीं हो रही, क्षेत्रीय बोलियों के आधार पर अकादमियां बनाने की बात हो रही है। ताकि हम फिर से मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी, हाड़ौती आदि की बात करने लगें। भाषा की बजाय बोलियों पर आ जायें। यही तो राजनीति थी, हम बोलियों को मिलाकर एक भाषा तक की यात्रा कर चुके थे और उसे संवैधानिक मान्यता देने की मांग कर रहे थे।

हमें ये कहकर ही तो रोका जा रहा था कि कौनसी राजस्थानी, ये कहकर बोलियां गिनाते थे विरोधी। हम जवाब देते थे वो राजस्थानी जो मीरा की है, तेजा की है, गोगा की है, सूर्यमल मीसण की है। बमुश्किल हम अपनी भाषा को भाषा साबित कर पाये थे। मगर एक झांसे ने हमें नीचे ला दिया और अब वापस हमें बोलियों की तरफ धकेलने का प्रयास किया जा रहा है ताकि संवैधानिक मान्यता की मांग के लिए हमें नये सिरे से बारखडी शुरू करनी पड़े।

हे राजस्थानियो! हे भाषा प्रेमियों ! हे झुझारू राज्य के बेटों ! यदि इस बार झांसे में आ गये। प्रलोभन में फंस गये। तो मायड़ भाषा, मां, माटी, अग्रज पीढ़ी और हमारा भविष्य हमें कभी माफ नहीं करेगा। संघर्ष नहीं किया तो झांसों के जाल में न चाहते हुए भी फंस जाओगे। चेतो, अब भी समय है। अभी नहीं तो कभी नहीं।


— मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘