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राजस्थान में अगर राजस्थानी नहीं पढ़ायेंगे तो कम्बोडिया में तो पढ़ाने से रहे, कब जागेगी सरकारें

आरएनई,स्टेट ब्यूरो। 

आदिकाल से व्यक्ति की पहचान उसकी भाषा और संस्कृति से होती रही है। इन दोनों से व्यक्ति की अस्मिता जुड़ी हुई है और ये दोनों अन्योन्याश्रित है। भाषा बचती है तो संस्कृति बचती है, जब ये दोनों बचते हैं तो आदमी बचता है। इस सार्वभौमिक तथ्य से जरा भी इंकार नहीं किया जा सकता। भारत बहुलवादी देश है। ये अनेक भाषाओं व संस्कृतियों से गूंथा हुआ देश है इसलिए मजबूत भी है।हर प्रदेश की अपनी भाषा है और उससे उस प्रदेशवासी का गहरा लगाव होता है। राजस्थानी पूरे देश में रहते हैं और व्यापार के कारण देश की नीड है। मगर दुखदायी बात ये है कि इन राजस्थानियों के पास अपनी भाषा की मान्यता ही नहीं है। दुनिया में 12 करोड़ से अधिक लोग राजस्थानी भाषा बोलते हैं, मगर न तो राज्य सरकार ने इसे दूसरी राजभाषा बनाया हुआ है और न केंद्र सरकार इसे संवैधानिक मान्यता दे रही है।तीन पीढ़ियां अपनी भाषा को मान्यता देने की गुहार करते करते चल बसी मगर पत्थर दिल सत्ताओं का दिल नहीं पसीजा। राजस्थान के लोगों की जुबान पर लगे ताले को उन्होंने नहीं खोला है। जिस भाषा के पास अपनी लिपि है, समृद्ध साहित्य है, शब्दकोश है, जिस भाषा की अपनी कई बोलियां है, फिर भी वो मान्यता के लिए तरस रही है।
राजस्थान की विधानसभा ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास कर केंद्र सरकार को भेज दिया कि हमारी राजस्थानी को संवैधानिक मान्यता दी जाये, मगर केंद्र सरकार ने उस पर कोई कार्यवाही ही नहीं की।सरकार पहले कांग्रेस की थी फिर भाजपा की आ गई, मगर किसी सरकार ने राजस्थानियों की भावना का सम्मान नहीं किया। यहां के 200 जन प्रतिनिधियों के आग्रह को मान ही नहीं दिया। लोकतंत्र तो इसकी इजाजत नहीं देता। मगर उपेक्षा का व्यवहार राजस्थान व राजस्थानियों के साथ हुआ है, ये बड़ा सत्य है।
जब पंजाब में पंजाबी, कर्नाटक में कन्नड़, बंगाल में बंगाली, महाराष्ट्र में मराठी भाषा है तो राजस्थान में राजस्थानी क्यों नहीं। राजस्थानी तो राजस्थान में ही भाषा बनेगी, कम्बोडिया में तो बनने से रही।संयुक्त राष्ट्र संघ के एक सर्वे में स्पष्ट हुआ है कि बच्चे को यदि उसकी मातृभाषा में शिक्षा दी जाये तो वो जल्दी ग्रोथ करता है। आइंस्टीन, न्यूटन आदि इसके उदाहरण है। इस सर्वे के बाद ही देश की सरकार ने अपनी शिक्षा नीति में बदलाव कर तय किया है कि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जाये। सब प्रदेशो में इसकी पालना हो गई मगर राजस्थान में नहीं। क्यूंकि राजस्थानी न तो दूसरी राजभाषा है और न संवैधानिक मान्यता मिली हुई है। राजनीति शायद विरोध, विद्रोह, उग्रता व वोट की भाषा समझती है, ये तरीके अभी तक राजस्थानियों ने नहीं अपनाये है, अन्य भाषाओं की तरह। तभी तो अपनी भाषा के लिए याचक बने हुए हैं। अब लोकसभा के चुनाव है, राजस्थानियों को उससे ही अपनी भाषा के लिए शक्ति प्रदर्शन शुरू करना चाहिए।