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मंगत कथन..स्वान्तः सुखाय ही हो तो लिखने की क्या आवश्यकता..

छपने का सुख

RNE Special.

मेरे से यदि कोई पूछे कि संसार में एक लेखक वा रचनाकार के लिये सबसे बड़ा सुख कौन सा है तो मैं उसे तत्काल बिना किसी झिझक प्रत्युत्तर दूंगा, उसकी रचना का प्रकाशन। प्रशंसा, पुरस्कार आदि तो इसके बाद की क्रियायें हैं। रचना का प्रकाशन होगा तभी तो कोई प्रशंसा करेगा और उसको पुरस्कृत किया जायेगा। हमारे यहाँ प्राचीन ऋषि-मुनियों ने रचना करने के सुख को ‘ब्रह्मानन्द सहोदर’ कहा है। कभी-कभी मुझे लगता है कि वे यह कहने में कुछ जल्दबाजी कर गये। जहाँ तक सहोदरों का प्रश्न है बड़े-बड़े राजनेताओं, मंत्रियों, अधिकारियों और उनकी पत्नियों के भाइयों ने जो गुल खिलाये हैं वे प्रकरण जग जाहिर हैं। राजनीति में ‘भाई-भतीजावाद’ का नया मुहावरा इन की ही देन है। ऋषि-मुनि तो विश्व-बंधुत्व की भावना से प्रेरित थे इसलिये वे ऐसा सोच भी नहीं सकते थे। उन्होंने जिस युग में अपना लेखन किया उस युग में न तो पत्र-पत्रिकायें थीं और न ही अखबार जिनमें उनकी रचनायें प्रकाशित होतीं। छापेखाने या प्रकाशन संस्थान भी नहीं थे जहाँ से उनकी रचनायें प्रकाशित होतीं। जिससे उन्हें छपने के सुख की अनुभूति होती। वेदों के रचयिताओं ने अपने मुखारविंद से एक बार जो काव्य रूप में कह दिया वह ऋचा या कविता उनके लिये अभिव्यक्ति का आनन्द हो गई जिसे उन्होंने ब्रह्मानन्द सहोदर कहा। वे रचना के कागज पर छपने के सुख से ही अनभिज्ञ थे क्योंकि तब तक तो लिपि का भी आविष्कार नहीं हुआ था। इसीलिये वे रचना को छपी हुई देखने के अनिर्वचनीय सुख से वंचित रहे।

मेरे विचार में तो लिपि का प्रचलन होने के बाद जब उस पुरातन कवि ने पहली बार अपनी रचना को अपनी ही हस्त लिपि में किसी भोज-पत्र अथवा ताड़-पत्र पर लिखकर देखा होगा तो उसे रचना का सुख लिखे हुये अक्षरों के सुख से छोटा ही लगा होगा। मैं ऐसा इसलिये कह रहा हूँ कि जब कोई रचनाकार अपनी रचना को सजा-संवार कर प्रकाशित होने के लिये किसी पत्र-पत्रिका में भेजता है तो उसके मन में ऐसी ही भावनायें होती हैं जैसी किसी पिता के अपनी बेटी को प्रथम बार ससुराल भेजते समय होती है। रचना जब कहीं प्रकाशित होकर उसके पास आती है तो रचनाकार एकदम आकाश में जा बैठता है। वह कहीं फोन करके तो कहीं पत्र लिखकर, वाट्सएप अथवा फेसबुक आदि पर इसकी सूचना अपने मित्रों तक पहुंचाकर कृत-कृत्य होता है। जिस पत्र-पत्रिका में उसकी रचना प्रकाशित होती है उसे अपनी बैठक में रखता है और घर पर आने-जाने वाले प्रत्येक व्यक्ति को दिखलाता है चाहे उसे रचना की समझ हो या न हो। रचना प्रकाशित होने के बाद कई दिनों तक वह सपनों की दुनिया में खोया रहता है। यह रचनाकार की प्रारम्भिक स्थिति में होता है। बाद में तो वह रचना प्रकाशन के बाद बाहर से किसी योगी की भाँति तटस्थ दिखने का ही प्रयत्न करता है। हों। इस बीच यदि कोई व्यक्ति उसकी रचना की कटु आलोचना करदे तो वह झगड़ा करने से भी परहेज नहीं करता। यदि आज कोई बड़ा लेखक मेरी इन बातों पर एतराज करता है तो वह अपने प्रारम्भिक दिनों को याद करके देखले।

कहने को तो तुलसी कह गये स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा। यदि ऐसी बात है तो रचना को लिखने की क्या आवश्यकता है। आप उसे अपनी यादों में गुनगुनाते रहिये और ‘ब्रह्मानन्द सहोदर’ के रस में डूबे रहिये। किन्तु ऐसा नहीं है। वह लिखेगा तभी तो रचना बाहर आयेगी और दूसरे लोग उसे सुनेंगे वा पढ़ेंगे। इसके बाद ही तो वे उसकी प्रशंसा करेंगे जिससे रचनाकार को आनन्द की अनुभूति होगी। इस आनन्द के लिये रचनाकार को कभी-कभी तो अपने साथियों की चाय, दारू आदि पिलाकर भी सेवा करनी पड़ती है। केवल लेखन से ही यह अनुभूति हो जाती तो भवभूति युग-युगान्तर तक समानधर्मा की प्रतीक्षा करने की क्यों कहते ? रचनाकार को यदि रचना लिखते ही ‘ब्रह्मानन्द सहोदर’ की अनुभूति हो जाये तो वह रचना को छपवाने के लिये शायद सोचे ही नहीं। यह अनुभूति तो उसे तभी होती है जब दूसरे उसकी प्रशंसा उसके सामने करते हैं ओर वह कल्पना के घोड़े पर बैठकर आकाश की ऊँचाइयाँ छूने लगता है। वह सोचता है अब उसकी रचना समाज में तहलका मचा देगी। समाज को बदल कर रख देगी। उसे क्या पता कि वह अपने जैसे ही कुछ लोगों से घिरा है जो उसे सपनों की दुनिया से बाहर नहीं निकलने देते। इस बीच यदि किसी आलोचक ने उसकी वास्तविक आलोचना करदी तो उसकी स्थिति उस गुबारे जैसी हो जाती है जिसमें कोई अचानक पिन चुभा देता है।

केवल लिखने में ही यदि सुख मिलता तो पुराने रचनाकार अपनी पाण्डुलिपियों की नकल अपने चेलों-चपाटों से क्यों करवाते ? लिख दिया और आनन्द प्राप्त कर लिया। बस छुट्टी। ऐसा नहीं था तभी तो एक रचना की कई-कई प्रतिलिपियाँ तैयार करवाई जाती थीं। एक-दूसरे से आदान-प्रदान किया जाता था। इसके साथ अर्थ और यश की कामना भी लिप्त रहती थी। कविगण दरबारों की चाकरी क्यों करते ? जो केवल स्वान्तः सुखाय लिखता है तो वह चड़ल्ले से कह भी देता है संतन को का सीकरी सों काम ? उन्हें परवाह ही नहीं होती कि सामने वाला कौन है और क्या सोचता है। यहाँ तो लिखने से पहले ही किसी न किसी पुरस्कार अथवा पद की लालसा लगी ही रहती है। पुस्तक प्रकाशित होने पर यह लालसा और तीव्र हो जाती है। दाँव-पेंच खेले जाते हैं। योजनायें बनाई जाती है कि निर्णायकों को कैसे प्रभावित किया जाये। ‘सीकरी सों क्या काम’ कहने वाले अधिकतर आधुनिक संत किसी अकादमी का अध्यक्ष या पदाधिकारी बनने के लिये मंत्रियों और विधायकों के दरबार में रोजाना हाजरी लगाते देखे जा सकते हैं। मैं पूछना चाहता हूँ कि जब आपको ‘ब्रह्मानन्द सहोदर’ मिल गया तो उसके सामने और कौनसा आनन्द बड़ा है? यदि है तो छोड़ो लिखना और उसी के लिये प्रयास करो जो तुम्हारा अभिप्सित है।

रचनाकार को प्रारम्भ में किसी पत्र-पत्रिका में प्रकाशित होने के लिये बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं। वह अपनी रचना बड़े चाव से प्रकाशित होने के लिये भेजता है किन्तु वह सखेद लौट आती है। उस समय उसे वही पीड़ा होती है जो ससुराल से प्रताड़ित होकर घर आई बेटी के बाप को होती है। इन दिनों रचनाकार बड़े तनाव में से गुजरता है। वह नई-नई पत्रिकायें खोजकर उनमें अपनी रचना प्रकाशन हेतु भेजता रहता है। सुदूर किसी नगर में प्रकाशित होने वाला चार पन्नों का अखबार भी उसके लिये वरदान बन जाता है। यदि संयोग से उस में उसकी रचना छप जाती है तो वह दिन उसके लिये स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने योग्य होता है। रचना छपवाने में महिला रचनाकारों को थोड़ी सुविधा होती है। कई मेधावी महिला रचनाकार अपनी फोटो विशेष मुद्रा में खिंचवाकर अपनी रचना के साथ भेज देती हैं। उन पर सम्पादकों की विशेष कृपा-दृष्टि बनी रहती है। अपनी छपास की भूख मिटाने के लिये कई बार महिला रचनाकार ऐसी स्थिति भी झेल लेती हैं जो उन्हें पसन्द नहीं होती। अवसरवादी सम्पादक इनका लाभ भी उठाते हैं। इसमें सुख नहीं हो तो कौन ऐसा करने को तत्पर होता? मेरी बात पर यदि आपको थोड़ा भी सन्देह है ते किसी ऐसे लेखक से मिलकर उसके दिल का हाल जानिये जिसने लिखा तो है लेकिन उसे कोई छापने को तैयार नहीं।

छपने में सुख मिलता है तभी तो दुनिया की अनेक भाषाओं में कितना कुछ लिखा जा रहा है और छपवाया जा रहा है। हमारे ही देश में इतना कुछ लिखा जा रहा है कि पाठकों की कमी पड़ गई है। लाखों पुस्तकें छप रही हैं। तृतीय श्रेणी का अल्प वेतन भोगी एक अध्यापक जब अपना पेट काटकर पुस्तक छपवाता है तो उसे आनन्द मिलता ही होगा। इतना ही नहीं अपनी पुस्तक को सही हाथों तक पहुँचाने के लिये उसे डाक व्यय भी करना पड़ता है। इतना खर्च करने के बावजूद लेखक समाज का ध्यान उसकी रचना की ओर जाता है या नहीं यह इतर बात है किन्तु लेखक प्रफुल्लित हो जाता है। कहीं से दो पंक्तियाँ प्रशंसा में आ गईं तो वह धन्य हो जाता है।

उन्हें किसी नगीने की भाँति सहेज कर रखता है। रचना सुख प्राप्त करने के लिये कितना कागज प्रयोग में लाया जा रहा है। लेखक, कवि पर्यावरण रक्षा हेतु कविताओं की रचना कर रहे हैं। पर्यावरण की रक्षार्थ विपुल साहित्य की रचा जा रहा है। उसे छापने के लिये पेड़ों को कटना पड़ रहा है। वन काट-काट कर पेड़ों को कागज में बदला जा रहा है ताकि रचनाकार ब्रह्मानन्द सहोदर का साक्षात्कार कर सकें। इससे पर्यावरण को जो हानि हो रही है उससे एक दिन हम बाकी सारे आनन्द भूल जायेंगे। सांस लेना भी दूभर हो जायेगा। इसकी चिन्ता हम में से किसी को नहीं है। क्या विडम्बना है !