कुछ रंगकर्मी नहीं आ रहे थे साथ, नयों को जोड़ने की पहल, तैयारियां शुरू हो गई
आरएनई, बीकानेर।
नाट्य प्रशिक्षण शिविर को लेकर अब कई कलाकार तैयार हो गये थे। स्थान पर भी लगभग सहमति बन गयी थी। केवल मंगल सक्सेना जी से बात होनी शेष थी। मोहन शर्मा जी को प्रदीप भटनागर जी, विष्णुकांत जी आदि ने बात के लिए उनको लाने का भी कह दिया। तय हुआ कि शाम के बाद इंडिया रेस्टोरेंट पर ही सब लोग उनसे मिलेंगे और आगे की बात करेंगे।
उस दिन शाम को कलाकार रेस्टोरेंट पर आने आरम्भ हो गये। ज्यादा लोगों को कहा नहीं गया था नहीं तो बैठने का स्थान ही कम पड़ जाता। प्रदीप जी पहले पहुंचे और सबका इंतजार करने लगे। थोड़ी देर में विष्णुकांत जी भी आ गये। दोनों में चर्चा आरम्भ हो गई। शिविर को लेकर ये दोनों बहुत गम्भीर थे, क्योंकि इनके मन में ही नाटक को लेकर सबसे ज्यादा लगाव था।
जैसा विष्णुकांत जी ने बताया था, उसके अनुसार बात इस तरह से हुई …
• इस नाट्य शिविर से प्रदीप जी मुझे बहुत उम्मीद है। क्योंकि हम रंगमंच की बहुत बारीकियों को सीख जायेंगे।
• बात सही है। एस वासुदेव सिंह जी के शिविर के बाद अब पहली बार नाटक को लेकर गम्भीर प्रयास होगा। बीकानेर के सभी कलाकारों को इससे जुड़ना चाहिए ताकि हमारे यहां के रंगमंच को प्रदेश स्तर पर बड़ा फलक मिले।
• आपको क्या लगता है प्रदीप जी, सब कलाकार इस शिविर से जुड़ेंगे।
• ये तो संभव ही नहीं विष्णुकांत जी। सर्वमान्यता तो दुनिया के किसी काम में नहीं होती। कुछ अपने को बड़ा समझने वाले कलाकार इस शिविर से दूर ही रहेंगे।
• आपका ईशारा किसकी तरफ है।
• आप जो समझ रहे हो, उनकी तरफ ही है। वे लोग अपने को सदा अलग दिखाने की कोशिश करते हैं। इसलिए अलग ही रहेंगे। मुझे नहीं लगता कि वे हमारे साथ आयेंगे। नाटक को लेकर उनका सोच हमसे मेल कहां खाता है।
• बात तो आपकी सही है। नाटक की दुनिया हो या साहित्य की। दो धड़े तो हर जगह देखने को मिल ही जाते हैं।
• इसके बिना प्रतिस्पर्धा भी तो नहीं रहती ना कांत जी।
• विचार के स्तर पर दो धड़े हो तभी लोगों को भी आसानी रहती है ये जानने में कि कौन सही है। एक धड़ा वो होता है जो सदा जनता की बात कर उनको अपने कला कर्म का आधार बनाता है। दूसरा धड़ा वो होता है जिसकी मान्यता ये है कि कला कर्म कुछ विशिष्ट लोगों का काम है। हरेक के बस की बात नहीं। इन दोनों धड़ों के बीच टकराहट तो चलती ही रहती है।
• वहीं अपने यहां भी चलेगी। हमें उसकी क्यों परवाह करनी है कांत जी। हमें हमारा काम करना है। जो साथ आये वो ठीक, बाकी के बारे में सोचना ही नहीं है।
• फिर लोग कहां से आयेंगे प्रदीप जी।
• हम नये लोगों को तैयार करेंगे इस शिविर के लिए। रंगकर्मियों का कुनबा छोटा रहने से क्या फायदा। उसे विस्तार भी तो देना होगा। विष्णुकांत जी को प्रदीप जी की ये बात सही लगी। जब तक वर्तमान पीढ़ी भावी पीढ़ी को तैयार नहीं करती तब तक वो कलाकर्म आगे कैसे बढ़ेगा। हर पीढ़ी को अधिक ध्यान अपनी अगली पीढ़ी तैयार करने पर देना चाहिए। क्योंकि परंपरा तभी अनवरत रहती है। प्रदीप जी ने बात तो सही कही थी।
• हमें शिविर के लिए नये लोगों को भी तैयार करना चाहिए।
• कांतजी, कुछ तो अपने आप आ जायेंगे और कुछ हम सब मिलकर लायेंगे। उनको तैयार तो मंगल जी को करना है। दोनों में सहमति बन गई और वे बाकी रंगकर्मियों व मोहन जी, मंगल जी के आने की प्रतीक्षा करने लगे। एक भावभूमि इन दोनों वरिष्ठ रंगकर्मियों के मन मे तैयार हो गई थी।
वर्जन :
रंगकर्म हो या कोई दूसरा कलाकर्म, सदा ध्यान अगली पीढ़ी को तैयार करने पर रखना चाहिए। स्व केंद्रित रहने से कर्म आगे नहीं बढ़ता। जितना ज्ञान खुद के पास हो उसे अगली पीढ़ी तक हस्तांतरित करना चाहिए ताकि अगली पीढ़ी उसे विकसित कर सके। कलाकर्म में आजकल दुर्भाग्य यही है कि लोग किसी नये को कुछ गुण देने से बचते हैं, तभी तो रंगकर्म में एक ठहराव सा दिख रहा है। इस ठहराव से नुकसान रंगमंच का होता है। अपनी अगली पीढ़ी को देने में परहेज किसी भी स्तर पर सही नहीं माना जा सकता। अब भी वक़्त है। देने वाले को जहां उदार होने की जरूरत है वहीं लेने वालों को भी विनम्र होने की आवश्यकता है।