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कुंभाराम जैसे दिग्गज को हरा जातीय समीकरणों को पलट देने वाले ‘काका किसनाराम’ ने पूरे राजस्थान का ध्यान खींचा!

किसनाराम नाई नहीं रहे। इस खबर के साथ ही जेहन में घूमने लगी पश्चिमी राजस्थान के बीकानेर-चूरू जिलों की राजनीति में अपना खास वजूद रखने वाले एक खांटी नेता की तस्वीर। एक ऐसा नेता जिसकी मौजूदगी से दिग्गज कांपे। जातियों के समीकरण, धु्रवीकरण बदले। पार्टी को भी अपने निर्णय बार-बार बदलने पड़े।



धीरेन्द्र आचार्य

RNE Special.

राजस्थान की राजनीति में वर्ष 1990 का विधानसभा चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक था। पहली बात तो यह कि जनसंघ से जनता पार्टी में शामिल होने के बाद उपजे विवाद के बीच वर्ष 1980 में जनसंघ ने भाजपा का रूप लिया। हालांकि 1980 और 1985 के विधानसभा चुनाव लड़े लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिली लेकिन 1990 में पहली बार भाजपा 85 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। इसके साथ ही जनता दल ने 55 सीटें जीती और कांग्रेस सबसे ज्यादा 33.64 प्रतिशत वोट लेकर भी 50 सीटों पर सिमट गई थी। इस चुनाव में कई नये चेहरे उभरे थे उन्हीं में एक नाम था किसनाराम नाई।श्रीडूंगरगढ़ विधानसभा से भाजपा प्रत्याशी के तौर पर जीतकर पहली बार विधानसभा पहुंचे किसनाराम को प्रदेशभर के एमएलए हैरत से देखते। हैरत की सबसे बड़ी वजह थी उस समय के दिग्गज जाट नेता कुंभाराम आर्य को चुनाव हराकर विधानसभा पहुंचना। दरअसल जिस श्रीडूंगरगढ़ विधानसभा क्षेत्र से किसनाराम नाई ने कुंभाराम आर्य को चुनाव हराया था वह आज तक एक जाट बाहुल्य सीट ही है। यही वजह है कि यहां 1957 से 1967 तक के पहले तीन चुनाव दौलतराम सहारण ने जीते। वे दो बार कांग्रेस के टिकट पर और तीसरी बार निर्दलीय जीते। वर्ष 1972 में यह सीट कांग्रेस के लूणाराम ने जीती। हां, 1977 की जनता लहर में पहली बार जनता पार्टी के मोहनलाल शर्मा यहां से गैर जाट विधायक बने।

मोहनलाल शर्मा से भैरोंसिंह शेखावत तक और पहला टिकट:

हालांकि किसनाराम नाई राजनीति में शुरू से सक्रिय थे और 1957 में महज 22 की उम्र में पार्षद बन गये। लगातार पार्षद, पालिका उपाध्यक्ष, अध्यक्ष के पदों पर रहे। राजनीति में बड़ी छलांग का मौका उन्हें मोहनलाल शर्मा के विधायक बनने के बाद मिला। वे शर्मा के समर्थक थे और उनके विधायक बनने के बाद उनके साथ जयपुर यात्राओं पर जाते। इसी दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत से मिलना-जुलना हुआ। शेखावत उनकी बेबाकी से काफी प्रभावित हुए और दोनों के बीच रिश्ता घनिष्ठता में बदल गया। वर्ष 1980 में भाजपा का गठन होते ही न केवल चूरू जिले में संगठन का जिम्मा किसनाराम को मिला वरन उन्हें श्रीडूंगरगढ से भाजपा का पहला टिकट भी मिला।पहला मुकाबला ही कांटे का त्रिकोण:

1980 में श्रीडूंगरगढ़ से पहला टिकट मिलने के साथ ही किसनाराम नाई ने वह चुनाव पूरा जी-जान से लड़ा। कांग्रेस के रावतराम, भाजपा के किसनाराम और जनता पार्टी के प्रभुराम के बीच कांटे का त्रिकोणीय मुकाबला हो गया। कांग्रेस के रावतराम ने इसमें बाजी मारी और किसनाराम दूसरे नंबर पर रहे। वे मात्र 634 वोटों से पहला चुनाव हार गये।

हार कर घर नहीं बैठे, टिकट नहीं मिला तो निर्दलीय मैदान में उतरे:

पहली हार को किसनाराम ने एक चुनौती के रूप में लिया और हर हाल में जीत का स्वाद चखने का मन बना लिया। वे लगातार क्षेत्र में सक्रिय रहे और एक नेता के रूप में स्थापित हो गये। उन्हें तब झटका लगा जब अगले चुनाव यानी वर्ष 1985 में पार्टी ने उन्हें टिकट दिया। वे कांग्रेस के रेवंतराम के सामने निर्दलीय ही मैदान में उतर गये और इस गैर जाट निर्दलीय प्रत्याशी ने 28730 वोट लेकर अपनी ताकत का अहसास भाजपा को भी करवाया। हालांकि इस बार भी वे मात्र 1518 वोटों से कांग्रेस के रेवंतराम से चुनाव हारे।1990: कुंभाराम को हरा पूरे प्रदेश को चौंकाया:

निर्दलीय के तौर पर ताकत दिखा चुके किसनाराम को भाजपा ने एक बार फिर 1990 में टिकट देकर चुनाव मैदान में उतारा। इस बार चुनौती काफी बड़ी थी। वजह, मैदान में उस समय के दिग्गज जाट नेता कुंभाराम आर्य जनता दल के बैनर से मौजूद थे। कांग्रेस ने भी सुरजाराम चौधरी को मैदान में उतारा था। किसनाराम ने इस बार जोश के साथ ही जातीय समीकरणों को साधने का काम किया और मूल ओबीसी, ब्राह्मण, राजपूत वोटों का धु्रवीकरण अपने पक्ष में किया। रणनीति काम आई और राजस्थान एक धमाकेदार जीत का साक्षी बना। किसनाराम नाई ने कुंभाराम आर्य को इस चुनाव में 8123 वोटों की करारी शिकस्त दी। इसी चुनाव में जीत के बूते राजस्थान में भाजपा के बैनर पर पहली सरकारी बनी। भैरोंसिंह शेखावत दूसरी बार मुख्यमंत्री बने और किसनाराम नाई उस सरकार में मुख्यमंत्री के नजदीकी सबसे सशक्त विधायकों में से एक थे। इस बीच वर्ष 1992 में राम मंदिर निर्माण का मुद्दा उठने। कारसेवा होने और अयोध्या में विवादित ढांचा ढहाये जाने के बाद यह सरकार बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।1993 में दुबारा विधायक बने किसनाराम:

सरकार भंग होने के बाद फिर से चुनाव हुए और 1993 में भाजपा ने फिर श्रीडूंगरगढ़ से किसनाराम को उम्मीदवार बनाया। इस बार फिर नाई ने दिग्गज कांग्रेस नेता, केन्द्रीय मंत्री रहे दौलतराम सहारण को 13079 वोटों से हराकर बड़ी जीत दर्ज की और लगातार दूसरी बार विधानसभा पहुंचे।

लगातार तीन हार और ताराचंद सारस्वत से 36 का आंकड़ा:

किसनाराम नाई के बारे में कहा जाता है कि उनकी राजनीति साफ-सपाट थी। चुनाव लड़ना उनके लिये प्राथमिकता था चाहे पार्टी टिकट दे या न दें। इसी तरह जिस नेता से 36 का आंकड़ा हो जाता उससे खुलकर राजनीतिक दुश्मनी निभाते चाहे वह अपनी पार्टी का हो या दूसरे दल का। कुछ ऐसा ही आगे के तीन चुनावों में देखने को मिला। लगातार दो बार विधायक रहे किसनाराम को भाजपा ने 1998 में फिर टिकट दिया लेकिन इस बार एंटी इनकंबेसी के साथ ही वोटों का जातीय ध्रुवीकरण ऐसा हुआ कि नाई को कांग्रेस के मंगलाराम गोदारा के हाथों 17777 वोटों की बड़ी हार सहनी पड़ी। यह हार उन्हें झुका नहीं पाई इसके साथ ही जातीय ध्रुवीकरण बनाने का अनुभव भी दे गई।इसी अनुभव के बूते वे 2003 के चुनाव में फिर भाजपा के टिकट पर मैदान में उतरे। कांग्रेस के मंगलाराम और निर्दलीय सूरजमल दोनों कद्दावर जाट नेता मैदान में थे। नाई को गैर जाट वोटों का ध्रुवीकरण करना था जिसमें वे लगभग सफल रहे लेकिन उनकी इस रणनीति को फेल किया आज के भाजपा विधायक ताराचंद सारस्वत ने। सारस्वत निर्दलीय के तौर पर मैदान में उतर गये और 9689 वोट लिये। किसनाराम इस चुनाव में 39308 वोट लेकर भी कांग्रेस के मंगलाराम से लगातार दूसरी बार 3089 वोटों से हार गये। यहीं से उनके दिल में ताराचंद सारस्वत को लेकर फांस बन गई।

फिर पार्टी ने टिकट नहीं दिया, निर्दलीय मैदान में उतरे:

लगातार दो चुनाव में हार के बाद पार्टी ने 2008 में किसनाराम को टिकट नहीं दिया। समझौते में यह सीट इनेलो को दे दी जिसके कैंडीडेट गिरधारीलाल भोबिया थे। नाई ने पार्टी के निर्णय को चुनौती देते हुए मैदान में निर्दलीय के तौर पर ताल ठोंकी। कांटे की टक्कर दी और 44250 वोट लिये। चुनाव कांग्रेस के मंगलाराम जीते लेकिन भाजपा को अपनी ताकत एक बार फिर किसनाराम ने बता दी।2013: तीसरी बार विधायक:

भाजपा ने अपनी भूल सुधारी और बागी किसनाराम को मनाकर वर्ष 2013 में फिर पार्टी का टिकट दिया। इस बार किसनाराम ने लगातार तीन हार का बदला चुकाते हुए कांग्रेस के मंगलाराम गोदारा को 16132 वोटों की करारी शिकस्त दी। इसके साथ ही तीसरी बार विधायक बनकर विधानसभा पहुंचे।

ताराचंद सारस्वत से बदला:

2013 का चुनाव जीतने के बाद भी भाजपा ने एक बार फिर 2018 में किसनाराम नाई का टिकट काटकर ताराचंद सारस्वत को प्रत्याशी बना दिया। इस चुनाव में पहली बार किसनाराम को दोहरी मार महसूस हुई और उनके लिये अब ये चुनाव खुद जीतने की बजाय ताराचंद को हराने का हो गया। हालांकि वे निर्दलीय के तौर पर मैदान में उतरे लेकिन वोटिंग से ठीक पहले उन्हें अहसास हुआ कि उनकी मौजूदगी सारस्वत को मजबूती देगी। राजनीति हलकों में यह चर्चा आम है कि किसनाराम नाई ने पहली बार जहर का घूंट पीते हुए अपना प्रचार धीमा कर दिया। अंदरखाने इसका लाभ माकपा के गिरधारीलाल महिया को मिला और वे चुनाव जीत गये।श्रीडूंगरगढ़ की चुनावी राजनीति में किसनाराम नाई का यह आखिरी सशक्त राजनीतिक पेंच रहा। इसके बाद उन्हें भाजपा से निलंबित कर दिया लेकिन वे निलंबन को तवज्जो नहीं देते थे। पहले भी बागी रह चुके थे। वर्ष 2023 के चुनाव से ठीक पहले उन्हें पार्टी में वापस लिया गया लेकिन टिकट नहीं दिया। इस बार पार्टी ने फिर ताराचंद सारस्वत को मैदान में उतारा और सारस्वत ने जीत दर्ज की। हालांकि सारस्वत ने टिकट मिलने के बाद से लेकर चुनाव के दौरान और जीत के बाद भी लगातार नाई से आशीर्वाद और मार्गदर्शन लिया।

…भाजपा के सेनानी ने ली आखिरी सांस !

हालांकि किसनाराम नाई ने टिकट नहीं मिलने से नाराज होकर कई बार बागी तेवर दिखाये लेकिन उन्होंने हमेशा खुद को भाजपा कार्यकर्ता ही कहा, माना। वे दो बार चूरू से भाजपा के जिलाध्यक्ष रहे वहीं बीकानेर के अध्यक्ष भी बने। भाजपा प्रदेश मंत्री की जिम्मेदारी भी उन्होंने उठाई। 01 जनवरी 1935 को बस्तीराम नाई के घर में जब किसनाराम का जन्म हुआ उस वक्त जात-पांत का कैसा माहौल था यह किसी से छिपा नहीं है। नाई के राजनीतिक सफर की सबसे बड़ी उपलब्धि जाति की दीवारों को तोड़ने के साथ ही पिछड़ों को उनका हक दिलवाना रहा। बीकानेर-चूरू की राजनीति में उनकी देखरेख में नेताओं की एक पूरी पीढ़ी तैयार हुई है। यह पीढ़ी प्यार से इन्हें ‘नेताजी’ या ‘काका’ कहकर संबोधित करती रही है। करती रहेगी।