…बस, पिछले दरवाजे की चाबी हाथ लग जाएं
डॉ.मंगत बादल
जिस व्यक्ति ने प्रथम बार पिछला दरवाजा बनवाने का उपक्रम किया वह कितना बुद्धिमान,भविष्य-द्रष्टा एवं वास्तविक सोच रखनेवाला रहा होगा। उसे कोटिश: नमन। उसकी जितनी प्रशंसा की जाये कम है। पिछला दरवाजा एक महत्त्वपूर्ण जरिया है। जब कोई मुख्य-द्वार से प्रवेश करने से वंचित रह जाये तब वह पिछले दरवाजे के माध्यम से अपना कार्य सिद्ध कर सकता है।
वैसे मुख्य दरवाजा आम लोगों के लिये होता है। दिखावे के लिये इसमें से होकर खास लोग जाते भी हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि भीतर प्रवेश करने के लिये यहाँ प्रत्येक व्यक्ति प्रयत्न कर सकता है। इसकी छूट उसे भारतीय संविधान देता है। जैसे सांसद या विधायक पद हेतु कोई भी व्यक्ति चुनाव तो लड़ सकता है किन्तु पार्टी की टिकट तो किसी विशेष प्रत्याशी को ही दी जा सकती है। मुख्य-द्वार पर भी रोक-टोक हो सकती है, होती भी है किन्तु वहाँ द्वार रक्षकों को अपनी पहचान बतलाकर या उन्हें सन्तुष्ट करके कोई भी व्यक्तिभीतर प्रवेश कर सकता है।
यह एक साधारण प्रक्रिया है किन्तु द्वार-रक्षक जब आप से सन्तुष्ट न हो और भीतर न जाने दे तब पिछले दरवाजे की आवश्यकता अनुभव होती है। आपको इस बात में विरोधाभास लग सकता है या मेरी बात पर सन्देह भी हो सकता है किन्तु तब आपकी आँखें खुली की खुली रह जाती हैं जब यह पता चलता है कि पिछले दरवाजे का ताला भी मुख्य द्वार की चाबी से ही खुलता है। उस समय आप यह सोचने पर विवश हो सकते हैं कि फिर मुख्य-द्वार और पीछे के दरवाजे में क्या अन्तर है ? पीछे का दरवाजा बनाया ही क्यों गया ?
मुझे लगता है कि आप बहुत भोले हैं तथा दुनियादारी के ज्ञान से शून्य हैं। मुख्य-द्वार से प्रवेक्ष करने वाले को बहुत संघर्ष करना पड़ता है। इतना संघर्ष कि कभी-कभी तो वहथक-हार कर टूट जाता है और भीतर प्रवेश लेने का सपना तक लेना भी छोड़ देता है। पिछले दरवाजे से प्रवेश लेने वाला व्यक्ति पहली बार में ही सफल हो जाता है। यानी पिछला दरवजा सफलता की गारंटी है। अंग्रेजी में इसे ‘बैक डोर एंट्री’ कहते हैं। इसका यह मतलब हुआ कि पिछले दरवाजे से प्रवेश हरेक देश और काल में होता रहा है और होता भी रहेगा। सक्षम व्यक्ति मुख्य दरवाजे पर संघर्ष करके समय खराब नहीं करता। इसका मुख्य कारण यही है कि उसे केवल द्वार भेदन ही करना था।
बाकी पीछे का दरवाजा खोलने वाली ताकत भी उसकी सहायता करती है तथा उसे भी दंद-फंद आते ही हैं। जिसे नहीं आते वह थोड़े समय में सीख जाता है। मुख्य-द्वार से भीतर पहुंचने वाला कभी-कभी संघर्ष करके इतना पस्त हो जाता है कि भीतर पहुँचने के बाद उसे तरोताजा होने में काफी वक्त लग जाता है और पीछे के दरवाजे से प्रवेश करने वाला तब तक बहुत आगे निकल चुका होता है। उसके सहायक सदैव उसके दाँये-बाँये रहते हैं। वे उसे शीघ्र ही दीक्षित करके उसके भविष्य की ओर इंगित कर देते हैं।
पिछला दरवाजा शब्द से आप कहीं भ्रमित न हो जायें इसलिये मैं इसकी संक्षिप्त सी व्याख्या करनाआवश्यक समझता हूँ। इसका तात्पर्य जब किसी का काम सीधे प्रयत्नों से न हो और उसे लगे कि इस प्रकार वह अपनी शक्ति का व्यर्थ में अपव्यय कर रहा है तो वह ऐसे उपाय अपनाता है जिन्हें प्रायः अकरणीय, अवैध या असंवैधानिक कहा जाता है। जिन्हें खुल्लम-खुला करने पर कई खतरे पैदा हो सकते हैं। पिछले दरवाजे से प्रवेश करने वाला कई बार ऐसे तरीके अपनाता है जिन्हें देखकर एक बार तो विरोधी भौंचक रह जाता है किन्तु उसके पास कोई विकल्प ही नहीं होता।
हालांकि पिछले दरवाजे से काम करवाना कम हिम्मत का काम नहीं फिर भी वे स्वयं को सत्यनिष्ठ, ईमानदार और परिश्रमी कहलवाने वाले दकियानूस लोग ऐसा काम करने वालों की सार्वजनिक भर्त्सना भी करते रहते हैं किन्तु उन पर कोई असर नहीं पड़ता- गिरधर मुरलीधर कहैं, कहो दुःख मानत नाहीं। वे इसे ‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे’की उपमा देकर बात को ‘आई-गई’ कर देते हैं। ऐसे लोगों की परवाह करने लगें तो कभी आगे बढ़ ही नहीं सकते। वे तो एक ही मंत्र जानते हैं- श्वान हजारों भौंकते, गज चलते अपनी चाल। पिछले दरवाजे को गलत बताने वाले लोग अज्ञानी हैं। यदि वास्तव में ऐसा होता तो नीतिकारों को ‘साम, दाम, दण्ड, भेदादि’ चार नीतियों का अनुसंधान क्यों करना पड़ता ? ये नीतियाँ पिछला दरवाजा खुलवाने के लिये ही बनी हैं। कुछ लोग कहते हैं कि किसी सिद्धि को प्राप्त करने के लिये कर्ता को पवित्र साधनों का उपयोग करना चाहिये। असल में देखें तो पवित्र और अपवित्र क्या है ? अवसर के अनुसार एक ही कर्म पवित्र या अपवित्र हो सकता है। जब आप स्वयं को तर्क देने में असमर्थ पाते हैं तो वही चीज पवित्र या
अपवित्र हो जाती है।
प्रगति करने के इच्छुक अभ्यर्थियों के लिये पिछले दरवाजे का अनुसंधान स्वयं प्रथम पूज्य भगवान गणपति ने अपने भक्तों के लिये किया है। जब स्वर्ग लोक मे ‘प्रथम पूज्य देव’ का निर्वाचन होना था तो उस प्रतियोगिता मे भाग लेने वाले उम्मीदवार को पृथ्वी के गिर्द तीन चक्कर काटकर प्रथम आने की शर्त रखी गई। सब के पास तेज उड़ने वाले वाहन थे किन्तु विजयी घोषित किये गये मूषक वाहन गणपति क्योंकि वे पिछला दरवाजा खोलकर विजयी हो गये। वैसे पिछले दरवाजे तक पहुँचना इतना सरल काम नहीं है। श्रम और धन खर्च करने के बाद विश्वाश भी जीतना पड़ता है। इसलिये वहाँ तक बिरले ही पहुँच पाते हैं बाकी ताउम्र जूते चटकाते फिरते हैं। हमारे देश में भगवान गणपति को अपना आदर्श मानते हुये नेता लोग चुनाव में भाग लेते हैं। जिस प्रकार माता-पिता के चारों और तीन परिक्रमा लगाकर गणपति चुनाव जीत गये। उसी प्रकार हमारे नेतागण ऐसी युक्तियों का प्रयोग करते हैं। जिन स्थानों तक वे गत पाँच वर्षों में पीने का पानी पहुँचाने में भी असफल रहे वहाँ चुनाव के दिनों में मदिरा तक पहुँचा देते हैं। लोग उनका गुणगान तो करेंगे ही करेंगे। नेता लोग यदि पिछले दरवाजे से अपने मत दाताओं की सेवा न करें तो आधे से अघिक माननीय संसद का मुख्य-द्वार देखने से भी वंचित रह जायें।
यह तो पिछले दरवाजे की महिमा है कि अपराधियों को भी चुनाव जितवा कर उन्हें राजनीतिक और सामाजिक सम्मान दिलवा देता है। मैं यह तो नहीं बतला सकता कि पिछले दरवाजे का प्रयोग कब से प्रारम्भ हआ। इसका उपयोग स्वयं भगवान विष्णु और अन्य देवगणों ने अनेक बार किया है। हमारे पौराणिक एवं धार्मि क साहित्य में ऐसी अनेक कथाएं हैं जिनसे पता चलता है कि जब मुख्य द्वार से भीतर प्रवेश करना असम्भव दिखलाई पड़ा तो पीछे का दरवाजा खुलवा कर काम सम्पन्न करवा लिया गया। आज भी हमारी राजनीतिक,धार्मिक, न्यायिक एवं सामाजिक व्यवस्था में पिछले दरवाजे सदैव खुले रखे जाते हैं ताकि मुख्य दरवाजे से हताश हुये लोगों को निराश न लौटना पड़े । मन्दिर में भीड़ है और भीतर घुसना असम्भव है। मुख्य-द्वार से भगवान के दर्शन करने की प्रतीक्षा में घंटों लग सकते हैं अथवा तब जब तक आपकी बारी आये मन्दिर के पट बन्द भी हो सकते हें। ऐसी स्थिति में यदि आप अपने अमूल्य समय की बचत करना चाहते हैं तो भगवान के दर्शनार्थ एक दरवाजा पीछे भी खुलता है। आप इसके लिये पंडों-पुजारियों की सहायता ले सकते हैं जिसका शुल्क तो आपको चुकाना ही पड़ेगा। वह शुल्क कितना होगा ? आमतौर पर आपकी हैसियत देखकर तय किया जाता है।
यदि आप में मोल-भाव करने की क्षमता है तो आपकी यह राशि कम भी हो सकती है। इतनी भीड़ भाड़ के बावजूद आपके लिये पिछले दरवाजे से दर्शनों की व्यवस्था तत्काल हो जायेगी। अब आप विचार कीजिये कि पिछले दरवाजे से जब भगवान के दर्शन हो सकते हैं तो वहाँ से क्या नहीं हो सकता ! ऐसे पण्डे-पुजारी आपको प्रत्येक व्यवस्था के भीतर बैठे मिलेंगे उन तक आपकी पहुँच होनी चाहिये। हमारे संविधान में एक व्यवस्था दी गई है कि संसद में कलाकारों, कवियों, चिन्तकों का मनोनयन करके उन्हें सांसद बनाया जा सकता है ताकि साहित्य एवं कलाओं की प्रगति के लिये कुछ किया जा सके।
संसद के प्रमुख दल का नेता इसके लिये उनके नामों की राष्ट्रपति से अनुशंसा करता है। राष्ट्रपति उन लोगों की नियुक्त कर देता है किन्तु वर्तमान में नियुक्ति ऐसे लोगों की होती है जो उनके दल के सक्रिय सदस्य होते हैं किन्तु किन्हीं कारणों के चलते संसद तक नहीं पहुँच सके। स्वतंत्र विचारधारा अथवा विरुद्ध विचारधारा वाले व्यक्ति की अनुशंसा दल के नेता द्वारा नहीं की जाती। इसके लिये राजनीतिक समीकरण ही प्रमुख होते हैं यानी कि अपने चहेतों को पिछले दरवाजे से संसद में घुसा लिया जाता है।
जनता बेचारी टापती रह जाती है क्योंकि उसने उसे आम चुनाव में बुरी तरह दुत्कार दिया था। वह अपनी जमानत मुश्किल से बचा पाया था। समाज में अवसरवादी लोग सदैव सत्ता अथवा प्रशासन के पिछले दरवाजों की खोज में लगे रहते हैं, मिलते ही उनमें घुस जाते हैं बाद में अपने चहेतों को भी ले जाते हैं। मजे की बात है कि यह दरवाजा आम-जन के लिये अद्रश्य रहता है। राजनीति और नौकरी के क्षेत्र में तो पिछले दरवाजे से ऐसे-ऐसे लोग घुस जाते हैं जो और कहीं भी कामयाब नहीं हो सके थे।
कैपिटेशन फीस या चन्दा देकर मैडिकल कॉलिज में दाखिला लेकर डॉक्टर बनना आम बात है। पिछले दरवाजों से आये ये चिकित्सक जनता का कितना इलाज कर पाते हैं यह तो समय ही बतलाता है। कभी आपने सोचा कि इतनी बड़ी आबादी वाले देश में ओलंपिक खेलों में पदक क्यों नहीं आते? यहाँ भी तो पिछला दरवाजा है। मौका मिलते ही रसूखवालों के बच्चे पिछले दरवाजे से पहुँच जाते हैं और खिलाड़ी मुख्य दरवाजे पर खड़े अपनी बारी की प्रतीक्षा करते रहते हैं तब तक ओलंपिक के समापन की तिथि आ जाती है। अन्त मे यही कहना चाहता हूँ कि आज तो इससे साहित्य जगत भी अछूता नहीं रहा। वहाँ भी पिछले दरवाजे बन चुके हैं।
बड़ों से बड़ा अथवा छोटे से छोटा पुरस्कार जुगाड बनाने के लिये पिछले दरवाजे से घुसपैठ जारी है। इसी प्रकार पाठ्यक्रमों में आना, साहित्य अकादमियों के पद पर आसीन होना, किसी विश्व विद्यालय का कुलपति अथवा विजिटिंग प्रोफैसर बनना फैलोशिप प्राप्त करना आदि सब काम पिछले दरवाजे से बिना किसी व्यवधान के सम्पन्न होते रहते हैं। इसमें दुःखी होने की बात नहीं। बीच-बीच में कुछ उत्साही एवं मेधावी लोग भीड़ को चीरकर मुख्य दरवाजे से भी भीतर पहुँच रहे हैं। ये वे ही लोग हैं जिनके कारण आज भी थोड़ी सच्चाई, ईमानदारी,आशा और विश्वास बचे हुये हैं। इससे मुख्य दरवाजे के प्रति आम आदमी का विश्वास बना रहता है।
डॉ.मंगत बादल
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