रंगमंच: नाट्य मंचन से पहले पूरा होम वर्क जरूरी
अभिषेक आचार्य
RNE Bikaner.
प्रदीपजी ने हाउ टू मैनेज योर ओन प्रोडक्शन की बात छेड़ दी थी। उसको लेकर सभी के मन में उत्सुकता जाग गई थी। क्योंकि सभी अब तक नाटक करते ही आ रहे थे और सफल भी थे। मगर इसका एक सिद्धांत भी है, ये उनके लिए नई जानकारी थी। वे भी इस सिद्धांत से परिचित होना चाहते थे ताकि काम में ज्यादा निखार आये। किसी भी प्रैक्टिकल काम का सिद्धांत पता हो तो परिणाम जल्दी तो मिलता ही है, साथ ही गुणवत्ता वाला भी रहता है। यही मंशा चौहान साब, मामाजी, चांदजी, बुलाकी भोजक जी, विष्णुकांतजी सहित सभी के मन में थी। मंगलजी उनके मन की उत्कंठा को पहचान भी रहे थे।
हां, इसके बारे में भी सबको को जानना चाहिए। ये जानकारी एक अच्छे नाटक की तैयारी में समय कम खर्च करती है और हमारे पास कल्पनाशीलता के लिए भी बहुत समय बचा रहता है। बहुत गहरे रिसर्च के बाद इस पुस्तक को लिखा गया था। जिसमें नाटक के आरम्भ ही नहीं खत्म होने के बाद तक की पूरी कार्यप्रणाली को बताया गया है।
प्रदीपजी बोले, इसके बारे में तो जानना ही चाहिए। जगदीश जी का मानना था कि इसे बिना जाने हम अधूरे है। बुलाकी भोजक जी ने इसको पढ़ने की ईच्छा जताई। मामाजी ने कहा मैं इसको पाने की कोशिश करूंगा। चौहान साब की भी इसको लेकर काफी उत्सुकता थी। मंगलजी से सबने यही कहा कि आप इसके बारे में हमें कुछ बताइये।
टीम के सदस्य नये नये नाटक पढ़ते रहते हैं। उन नाटकों पर नियमित रूप से होने वाली बैठकों में बात करनी चाहिए। सब ये काम करें, जो भी नाटक पढ़े उसके बारे में बताएं। ये बैठक यदि संस्था बनी हो तो उसमें हो। या रोज किसी चाय की दुकान पर बैठते हों तो वहां हो। बात नई पढ़ी स्क्रिप्ट पर होनी चाहिए।
इसके लिए ही कहते हैं कि नाटक निरंतर पढ़ते रहने की आदत जरूरी है। वो हर रंगकर्मी में होनी चाहिए।
सही कह रहे हो प्रदीपजी। इससे हमें एक साथ कई नाटकों के कथानक के बारे में जानकारी भी मिल जाती है।
यदि अच्छा लगे, तो नाटक साथी से मांगकर पढ़ने के लिए भी लिया जा सकता है।
सही कह रहे हो। इससे अचानक साथियों के बीच एक नाटक का कथानक क्लिक करता है और सबके मुंह से एक ही बात निकलती है, इसे हम भी खेल सकते हैं। उस समय बस एक बात ध्यान में रहनी चाहिये सबके।
वो क्या सर।
उस समय कभी भी उस नाटक के मंचन में आने वाली दिक्कतों व परेशानियों के बारे में बात नहीं करनी चाहिए, केवल कथानक पर ध्यान देना चाहिए।
वो क्यों सर।
यदि उस पर बात कर ली तो नाटक मंचित करने का तय ही नहीं कर पायेंगे। कथानक अच्छा है तो खेलना पहले तय होना चाहिए। उस समय मन में यह आना चाहिये कि जो भी दिक्कतें, परेशानियां आएगी, उनको दूर करते जाएंगे। तभी हम किसी नाटक को खेलने की बात तय कर पायेंगे। इस कारण केवल कथानक पर बात होनी चाहिए।
ये बात सही है।
बस, उसके बाद सबसे पहले उस नाटक की रीडिंग तय करनी चाहिए। नियत दिन व स्थान तय कर सभी को एकजुट होना चाहिए। तय समय पर एकत्रित हों और उस दिन नाटक पढ़ने से पहले भी कुछ करना चाहिए।
प्रदीपजी व अन्य उनकी तरफ देखने लगे।
आश्चर्य नहीं, हम जो कला कर्म कर रहे हैं वो ऋषि कर्म है। बहुत पुनीत व पवित्र कार्य। इस कारण रीडिंग करने से पहले मां सरस्वती की आराधना करनी चाहिए ताकि कार्य शुभ हो और उसमें सफलता मिले। इस वंदना का किसी धर्म से कोई वास्ता नहीं होता। क्योंकि सरस्वती ज्ञान की देवी है, कला की अधिष्ठाता है, किसी धर्म की नहीं।
यह बात तो सही है।
सरस्वती वंदना के बाद ही एकाग्रचित होकर नाटक की रीडिंग करनी आरम्भ करनी चाहिए। थोड़े थोड़े पृष्ठ हर कोई पढ़े ताकि नाटक के भीतर की परतें खुलने में आसानी रहे। हरेक अपनी समझ के अनुसार पढ़ेगा तो सुनने वाले भी अपने स्तर से उसे ग्रहण करेंगे। इस तरह नाटक की पूरी बात समझ मे आसानी से आ जायेगी। ध्यान रहे, रीडिंग पूरी होने के बाद उस समय उस पर किसी भी तरह की चर्चा नहीं करनी है। कोई बात नाटक पर नहीं करनी है, बस पढ़ना व सुनना ही है।
फिर क्या करना चाहिये।
यह तय करना चाहिए कि कल की बैठक में हर व्यक्ति इस नाटक पर अपनी राय 5 से 10 मिनिट रखेगा। हरेक को राय रखनी अनिवार्य है। कथानक के बारे में बताए और खेला जा सकता है या नहीं, ये राय दे। ध्यान रहे, हरेक को अपनी राय रखनी अनिवार्य होनी चाहिए। जिसके मन में जो आये वो कहे अवश्य।
ये बात सही है।
प्रदीपजी इससे नाटक के कई आयाम सामने आयेंगे और ये निर्णय लेने में आसानी रहेगी कि हमें ये नाटक खेलना चाहिए या नहीं। सबका इस तरीके से नाटक से सीधा जुड़ाव भी हो जायेगा। वो अपने को नाटक पर पकड़ वाला व्यक्ति भी समझेगा।
बात तो सही है।
दूसरे दिन की बैठक सबसे खास होगी, ये ध्यान रहे। क्यूंकि इस बैठक से ही इस बात की आधारभूमि बनेगी कि हमें ये नाटक खेलना चाहिए या नहीं। ध्यान रहे, चर्चा स्वस्थ होनी चाहिए। हरेक की बात को पूरी तवज्जो मिलनी चाहिए। ऐसा न हो कि कोई अपनी टूटी फूटी अभिव्यक्ति दे तो हम उसे बीच में टोक दें, या उसे बात ही पूरी न करने दें। हरेक को पूरा अवसर मिलना चाहिए।
ये बात तो सही है।
दरअसल इसी को टीम वर्क कहते हैं, जिसकी जितनी क्षमता है वो उस हिसाब से ही कहेगा। हमें इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए। इस बैठक को करने का ध्येय यही होता है कि हरेक को अपनी अभिव्यक्ति का अवसर मिले। ये अवसर ही तो उसे आगे बढ़ने की हिम्मत देगा। उसकी बात को टालना तो उपेक्षा होगी और फिर वो धीरे धीरे न केवल हम से अपितु नाटक से ही कट जायेगा। हम अंजाने में रंगमंच का बड़ा नुकसान कर बैठेंगे।
गलत नहीं ये बात। हमें हरेक को साथ लेकर चलना होता है। तभी तो एक रंग परिवार बनेगा। सामूहिकता की भावना विकसित होगी।
प्रदीपजी ने बहुत सही बात कही है। इस भावना की नींव स्क्रिप्ट को पढ़ने के दिन से ही डाल देनी चाहिए ताकि हम एक सूत्र में बंधे रहें। इस कारण मैने कहा था कि दूसरे दिन की बैठक ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।
सत्य कहा सर।
टीम के एक सीनियर साथी को सभी के विचारों की महत्त्वपूर्ण बातें नोट भी करते रहना चाहिए। ताकि तीसरे दिन उन पर विस्तार से चर्चा करें तब हर बात को विश्लेषित किया जा सके।
ये आदत भी जरूरी है। हम याददाश्त के सहारे ही रहते हैं। लिखा हुआ हो तो फिर बात बिखरती नहीं, न अनावश्यक बहस होती है। बात मुद्दे पर केंद्रित रहती है। इस कारण नोटिंग की भी आदत होनी चाहिए।
सभी मंगलजी की इस बात से पूरी तरह सहमत दिखे और उनको लगा कि एक मंचन के पहले की तैयारी भी जरूरी है। इस आदत को डालना ही चाहिए। कोशिश तो ये रहे कि हरेक आदमी नोट करे ताकि कोई बात छूटने का मौका ही न रहे। एक गम्भीर बात जानने का अवसर मिला।
वर्जन
प्रदीप भटनागर
आज का रंगकर्मी इतनी गम्भीरता से स्क्रिप्ट पर सोचता ही नहीं। न वो पूरे नाटक को विश्लेषित करने की हिम्मत रखता है, न चाहता है। उसे लगता है कि ये उसका काम नहीं है। जबकि वो ग़लत है। मंचित किये हुए नाटक की बात पूरी हर कलाकार को पता होनी चाहिए। इसके अलावा जब हम मंचन नहीं कर रहे होते हैं तो खाली समय में हमें नये नये नाटक पढ़ने चाहिए। जिससे कई नए नाटकों से हम परिचित होते हैं। नये शिल्प की जानकारी भी हमें मिलती है। मगर अफसोस है कि इस दौर का रंगकर्मी नाटक पढ़ता ही नहीं है।