Skip to main content

BIKANER : लोकमत के संपादक अशोक माथुर के साथ पत्रकारिता की एक पाठशाला का अवसान

  • जयपुर में हुआ देहावसान, बीकानेर ला रहे पार्थिक देह, मेडिकल कॉलेज में होगा
धीरेन्द्र आचार्य

RNE Bikaner. 

कभी सोचा नहीं था कि मुझे जैसे अनगढ़, खिलंदड़ व्यक्ति को कलम थमाकर जिसने पत्रकार बना दिया उस पत्रकारिता की पाठशाला अशोक माथुर के निधन का समाचार भी मुझे ही लिखना होगा। शब्दों में कहूं तो दुख के साथ लिखना पड़ रहा है कि लोकमत के संपादक अशोक माथुर नहीं रहे। ‘शब्दों में कहूं’ इसलिये क्योंकि मुझे लगता है कि दुख को शब्दों में व्यक्त किया ही नहीं जा सकता। बस, सूचना भर दी जा सकती है।


गालिब के शेर जैसी लिख गये अपनी आखिरी विदाई :

दरअसल अभी-अभी इंजीनियर रवि माथुर जी का मैसेज आया कि अशोकजी नहीं रहे। जयपुर में उनका देहावसान हो गया। उनकी पार्थिव देह को बीकानेर लाया जा रहा है। कोई औपचारिक बैठक नहीं होगी। देह को कुछ देर के लिए लोकमत कार्यालय के प्रांगण में रखा जाएगा। उसके बाद शरीर मेडिकल कॉलेज के सुपुर्द कर दिया जाएगा। उन्होंने डा.राकेश रावत और उनकी टीम के साथ मिलकर देहदान का अभियान चलाया और खुद की देह को दान करने का संकल्प पत्र थमा गये। मतलब यह कि माथुर साब ने गालिब के इस शेर की तरह दुनिया से अपनी विदाई का तरीका पहले ही तय कर कर लिया था :

हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ न ग़र्क़.ए.दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता॥

 

वह कलमकार जो कभी झुका नहीं ‘अंधों के शहर में आइना बेचता रहा’:

लोकमत का न्यूजरूम एक वैचारिक-विमर्श की पाठशाला जैसा होता। अखबार का मैटर पूरा हो जाने, बत्ती गुल होने के साथ यह तय हो जाने पर कि अब लाइट आने पर ही अखबार छपेगा, तब तक के लिये शुरू हो जाती एक समसामयिक विषय पर चर्चा। चर्चा जब वामपंथ पर पहुंचती तो एक क्षण वह भी आ जाता कि जब माथुर साब कई पैमानों का जिक्र कर कहते हैं, ऐसा करने, कहने वाले अगर कम्युनिस्ट हैं तो मैं कतई कम्युनिस्ट नहीं हूं। आरएसएस की विचाराधारा से नाइत्तिफाकी रखते हुए भी कई बिन्दुओं पर संघ के काम को देश के लिये जरूरी बता जाते। कमोबेश सप्ताह में एकाध ऐसी पाठशाला हो ही जाती जिसमें मेरे जैसे नौसिखिये पत्रकार के साथ वरिष्ठ पत्रकार हरीश बी.शर्मा, रामकिसन महिया और उस वक्त के लोकमत के चीफ मुजीबुर्रहमान आदि मौजूद रहते। इस सभा में कई बार वरिष्ठ अधिवक्ता आर.के.दास गुप्ता जी का सान्निध्य मिलता जो ‘कम्युनिस्ट’ शब्द का उच्चारण ‘कौम नष्ट’ के रूप में करते। बहस उस दिन काफी गर्म हो जाती जब राष्ट्रदूत से आते-जाते मधु आचार्य ‘आशावादी’ इसी चर्चा के बीच पहुंच जाते।


जहां तक अब मैं विश्लेषण कर पाता हूं अशोक माथुर को चरम वामपंथी विचारधारा से प्रेरित माना जाता था और अधिकांश कम्युनिस्ट उनके विचारों से सहमत होते हुए भी उनकी खरी-खरी के आगे सहज नहीं रह पाते। ठीक इसी तरह दक्षिणपंथियों को उनका विचार अपने विपरीत लगता। इन सबके बीच वे शुद्ध समाजवाद की वकालत करते और आखिरी छोर पर बैठे आदमी के जीवन में सड़क, पैसे से कहीं ज्यादा वैचारिक विकास करने के पक्षधर दिखते।

वे लोकमत में एक नियमित कॉलम लिखते ‘अंधो के शहर में बेचता हूं आईना..’। हर बार यह कॉलम व्यवस्था और तंत्र की विद्रूपताओं पर एक करारी चोट करता। कई पाठक थे जो इसका इंतजार करते। इतना ही नहीं कई लोग उनकी लेखनी से नाराज भी हो जाते। लोकमत कार्यालय में कई मर्तबा रात के वक्त ऐसे फोन आते जिनकी भाषा सुनकर मेरे जैसी उम्र वाले पत्रकारों को आवेश आ जाता। इसके बावजूद अशोकजी शांत, संयत रहते हुए मुसकुराते हुए सामने वाले से फोन पर लंबी बात करते। आखिर में फोन रखकर कहते, अभी ये अपनी समझ से नहीं बोल रहे हैं। सुबह समझ में आयेगा, तो खुद आ जाएंगे। यकीन मानिये ऐसा कई बार हुआ कि आवेश में फोन करने वाले अगले दिन सिर झुकाये आये। अपनी बात के लिये शर्मिंदा दिखे। उन नामों का जिक्र करना कतई उचित नहीं है।


खुद भी स्वीकारने, सिर झुकाने में परहेज नहीं :

लोकमत कार्यालय में एक चिट्ठी आई। उस वक्त हर दिन काफी पत्र आते थे लेकिन उस चिट्ठी को जब अशोकजी के सामने रखा तो वे काफी गंभीर हो गये। पत्र था स्वतंत्रता सेनानी और उस वक्त के आरएसएस संघचालक दाऊदयाल आचार्य का। पूरा प्रकरण याद नहीं लेकिन उस पत्र की एक पंक्ति बहुत गंभीर थी। वह थी ‘आपकी रिसर्जेंट वॉइस में इतना दब्बूपन कहां से आ गया..।’ दरअसल लोकमत की टैग लाइन में शामिल था ‘रिसर्जेंट वॉइस..’, उसी पर दाऊजी ने सीधा प्रहार किया। अशोकजी गंभीर हुए। उस दिन ‘अंधो के शहर में आईना’ लिखा गया। मैंने देखा कि लगभग एक सप्ताह में ही दाऊजी लोकमत कार्यालय में कुर्सी पर बैठे थे। अंबालालजी माथुर, पत्रकारिता, शंभुदयाल जी सक्सेना, रघुवरदयाल जी गोयल, गंगादासजी कौशिक आदि नामों का जिक्र बातों में होता रहा।

मैंने जिस बात पर बाद में गौर किया वो यह थी कि अशोकजी उनके सामने संपादक वाली कुर्सी पर नहीं बैठे। दाऊजी को ऑफर की तो वे भी नहीं बैठे और जब तक वे ऑफिस में रहे वह कुर्सी खाली रही। दरवाजे तक उन्हें छोड़कर आने के बाद वहां मौजूद हम सभी की जिज्ञासाभरी नजरें अशोकजी की तरफ थी। वे समझते हुए बोले, ये हमारे मार्गदर्शक लोग हैं। अगर इन्हें लगता है कि कहीं गलत हो रहा है तो हमें तुरंत विचार करना चाहिये। बातें और यादें शुरू हो खत्म होने का नाम ही नहीं लेती। इनमें आंदोलन, एक्टिविज्म, पत्रकारिता, यथार्थ, समाजवाद, कैपिटलिज्म सहित जानें क्या-क्या जुड़ता जाता है।

कुल मिलाकर थोड़ा समय ही अशोकजी के सान्निध्य में रहने को मिला। यहां से राष्ट्रदूत फिर दैनिक भास्कर में पत्रकारिता की लंबी पारी खेली। हालांकि भास्कर में ‘लर्निंग-शेयरिंग’ का एक बहुत शानदार सिस्टम है लेकिन एक खुली वैचारिक पाठशाला अब तक कहीं मिली तो वह पत्रकारिता की पाठशाला थी-अशोक माथुर। इस पाठशाला से निकले बीसियों पत्रकार जहां बीकानेर, प्रदेश सहित देश के विभिन्न मीडिया हाउस में पत्रकारिता कर रहे हैं वहीं कइयों ने राजनीति, वकालत सहित दूसरे रास्ते पकड़े। इस सबके बावजूद जब भी भी कभी कोई मिलता है, इस पाठशाला को याद करता है। हमेशा याद रहोगे अशोकजी-नमन।