रंगमंच : ‘ हाऊ टू मैनेज योर ओन प्रोडक्शन ‘ का ज्ञान होना भी आवश्यक
अभिषेक आचार्य
RNE Bikaner
गंभीर बातों में समय कितना निकल गया, किसी को भी पता ही नहीं चला। क्योंकि नाटक को लेकर इतनी गम्भीर बातें पहले कभी हुई ही नहीं थी। विष्णुकांतजी, मामाजी, प्रदीपजी, चौहान साहब, जगदीश जी, मनोहर जी, बुलाकी भोजक जी, चांदजी आदि चूंकि उस समय नाटक के लिए पूरे समर्पित थे, इस कारण उनको तो इन बातों के सामने कुछ भी नजर नहीं आ रहा था।
इन समर्पित रंगकर्मियों के काम की गंभीरता न तो लोगों ने जानी थी और न ही इनको खुद इतना पता था। एक जुनून था नाटक का। आम आदमी से अलहदा करने का। तभी तो वे तन, मन ,धन तीनों खर्च करते थे नाटक के लिए।
सब हर बात को सुन ही नहीं रहे थे, उस पर मनन भी कर रहे थे। आज तो वो दौर ही नहीं रहा। कोई कलाकार पात्र व स्क्रिप्ट तो क्या, अपने पर भी मनन नहीं करता। बस, करता जाता है। जबकि रंगकर्म तो एक मुक्कमिल इंसान बनने का जरिया है। जो इस बात को समझ जाये, वो ही जीवन का असली आनन्द लेता है।
इंडिया रेस्टोरेंट में बैठे बातें करते इन रंगकर्मियों को काफी समय हो गया, ये भान किसी को नहीं हुआ। पूरी दुनिया और समय उस समय जैसे होटल की उन टेबिलों में सिमट के रह गया था। बात की समाप्ति कोई नहीं चाहता था। हर कोई यही चाहता था कि नाटक पर बातों का ये सिलसिला अनवरत रहे। चुप्पी के कारण कहीं आज की बात थम न जाये, ये प्रदीपजी ने भांप लिया तो उन्होंने एक कॉमन सवाल भी मंगलजी से कर लिया।
सर, नाटक करने वाला अलग होता है ये तो समझ आ गया। मगर अलग होने का फायदा क्या है?
उनकी बात पर मंगलजी मुस्कुराये और कहा कि बहुत वाजिब व प्राथमिक सवाल पूछा है आपने। इस पर तो सबसे आरम्भ में बात होनी चाहिए थी।
अब बता दें सर।
देखो, एक आदमी जब पैदा होता है तो मां – बाप उसे पढ़ाते हैं। नोकरी लगाते हैं। शादी करते है। फिर उसके बच्चे होते हैं। वो उनको बड़ा करता है, यही सब काम करता है और जीवन पूरा कर लेता है। यही होता है ना जीवन का चक्र।
सही है। सब यही तो करते हैं।
बिल्कुल। मगर इन सबको करते हुए जो कुछ अलग करता है वो सदा याद रहता है। उसे खुद भी लगता है कि मानव जीवन में आया तो कुछ किया है। ध्यान रहे, जो परिवार व समाज के जरूरी काम है उनको कम नहीं करते हुए जो कुछ अलग से करता है, वो जीता है। ऐसे लोग 10 फीसदी भी नहीं होते। 90 फीसदी तो वही होते हैं जिनके बारे में मैने बताया। अब हमको तय करना होता है कि हम 90 फीसदी की भीड़ में जाना चाहते हैं या 10 प्रतिशत वाले कम लोगों में।
वहां बैठे सभी लोग सोचने लग गये। बात तो बहुत गम्भीरता से सोचने वाली कही थी। इस नजरिए से तो जीवन के बारे में सोचा ही नहीं था। ये भी जीने का बड़ा नजरिया हो सकता है, इस पर तो ध्यान ही नहीं गया था।
प्रदीप जी, नाटक हमें कलाकार नहीं, बेहतर इंसान भी बनाता है। क्योंकि ये एक ऋषि कर्म है। हमारे भीतर वो सात्विकता को लाता है, जिस तरह से हम नाटक करते समय अपने व साथ वाले पात्र की मानसिकता व भावों को जानते हैं, उसी तरह हम जीवन में भी अपनों की मानसिकता और भाव पढ़ लेते हैं। फिर उसी अनुसार उनसे बात करते हैं, इससे हमारे रिश्ते मजबूत होते हैं और अपनों को हमें कभी खोना नहीं पड़ता। इस कारण एक रंगकर्मी आम आदमी से अलग, 10 प्रतिशत में होता है।
सबने इस लॉजिक पर हामी भरी। मंगलजी ने बात को फिर आगे बढ़ाते हुए कहा कि – हमें इस बात को सदा याद रखना है कि हम ऋषि कर्म कर रहे हैं। ऋषि कर्म की अपनी एक दिनचर्या व पद्धति होती है। उसी तरह हमारे पास अपने नाटक की भी एक पद्धति होनी चाहिए। सही और वैज्ञानिक पद्धति होगी तो हम कभी भी विफल नहीं होंगे। एक अच्छा नाटक सदा हम दर्शकों को देते रहेंगे।
इस विषय में हमारी भारतीय परंपरा में जहां नाट्य शास्त्र है, वहीं विदेशों में भी खूब काम हुआ है। पौलेंड, जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस आदि में इस विषय पर गहन मंथन हुआ। उन लोगों ने इस विषय पर खूब किताबें भी लिखी। जो विश्व की अधिकतर भाषाओं में उपलब्ध है। बस, हमारे यहां उनको पढ़ने का अभ्यास नहीं है। हम नाटक तो पढ़ते हैं, मगर नाटक क्या है, कैसे करें, नाटक में क्या हो आदि आदि की किताबें पढ़ने से हम परहेज करते हैं।
नाटक पढ़कर हम मान लेते हैं कि काम पूरा हो गया। हमें इसे ही तो मंचित करना है। बाकी नाटक के सिद्धांतों की किताबें क्यों पढ़े, वो हमारे किस काम की।
चौहान साहब ने कहा, आप सही कह रहे हैं। ऐसी किताबें तो हाथ मे भी नहीं लेते। कलाकार समझता है मुझे तो केवल नाटक से मतलब है। बाकी सबकी जानकारी निर्देशक रखे, हमें क्या करना है।
आप सही कह रहे हो। मगर रंगकर्मी ये भूल जाता है कि यदि वो सिद्धांत की किताबें पढ़ेगा तो उसके ही काम में निखार आयेगा। उसके काम में कम श्रम व समय लगेगा। मैं एक उदाहरण से आपको ये बात समझाता हूं।
प्रदीपजी, बुलाकी शर्माजी, आप लोग बताओ। हमें यदि मंच पर बेहद डर, कम्पकम्पी और अचानक से आई विपदा का अभिनय एक साथ करना है, तो हम क्या करेंगे।
उन दोनों के साथ सभी सोचने लगे कि यह तीनों भाव एक साथ कैसे आएंगे, एक एक करके तो अभिव्यक्त किये जा सकते हैं। कोई कुछ बोल नहीं रहा था। तब मंगलजी ने प्रदीपजी की तरफ सवालिया नजरें उठाई। वे बोले, सर एक साथ तो नहीं मगर अलग अलग तो इन भावों की अभिव्यक्ति कलाकार दे सकता है।
मंगलजी मुस्कुराये और बोले ये भाव एक साथ आ सकते हैं। जीवन मे ये तीनों भाव एक साथ आने की स्थिति का हमें स्मरण करना होता है। जीवन में ऐसी स्थिति आती है मगर हम उस समय उसकी तरफ ध्यान नहीं देते तो बाद में वो हमारे जेहन में भी नहीं रहती।
सर, वो स्थिति कौनसी हो सकती है। जिसमे इस तरह से तीनों भाव एक साथ आते हैं।
तेज, कड़ाके की ठंड हो। आप बाथरूम में जायें और नहाना शुरू करें, ये जानकर की घरवालों ने गर्म पानी रखा हुआ है। आप पानी का पहला लोटा सिर पर डालें और वो पानी बेहद ठंडा हो। पानी सिर पर पड़ते ही तीनों भाव एक साथ आते हैं। कईयों के साथ ये होता है, कईयों को इसकी कल्पना करनी होती है और सहज में ही आ जाते हैं।
सब चकित थे। उदाहरण तो सही था। एक साथ तीनों भाव आते हैं उस समय। कम्पकम्पी, विपदा, डर, सहज ही व्यक्ति को घेर लेता है।
प्रदीपजी, ये न तो मेरा अनुभव है और न मेरी कही बात है। ये उदाहरण पौलेंड की पुस्तक प्रैक्टिकल थियेटर में बताया हुआ है। इस किताब को ‘ हाउ टू मैनेज योर ओन प्रोडक्शन ‘ में दिया हुआ है। उसमें इस तरह की कई उन स्थितियों के बारे में बताया गया है जो हम भोगते नहीं मगर उसकी कल्पना कैसे कर सकते हैं, बताया हुआ है। इस कारण नाटक की सैद्धांतिक पुस्तकें हर रंगकर्मी के लिए उपयोगी होती है।
सब विस्मित थे। अनूठा उदाहरण दिया गया था। विस्मित भी थे सब। प्रदीपजी ने बात का सिलसिला न रुके इस कारण कहा, सर हाउ टू मैनेज योर ओन प्रोडक्शन के बारे में आगे कुछ बताइए ना।
मंगलजी मुस्कुराने लगे।
वर्जन
प्रदीप भटनागर
हर रंगकर्मी को केवल नाट्य स्क्रिप्ट ही नहीं, नाटक के सिद्धांतों की किताबें पढ़नी चाहिए। उससे वो बहुत समृद्ध होता है और अपने अभिनय में कई चमत्कार कर सकता है। आज के रंगकर्मी नाटक तो क्या अपने पात्र के संवादों के अलावा कुछ भी नहीं पढ़ते। इसी कारण अभिनय का स्तर गिरा है। अभिनय के स्तर पर आजकल बहुत नाटक कमजोर रहते हैं। उसकी वजह सैद्धांतिक जानकारियों का अभाव है। मुझे वर्तमान के एक अपने में नामचीन मानने वाले निर्देशक की बात याद है, उसने कहा था कि क्या हम नाट्य शास्त्र नहीं पढ़ते तो क्या हम नाटक नहीं कर सकते हैं। कर सकते हैं, मगर वो तुक्का होगा, पढ़कर करेंगे तो वो पक्का होगा। पढ़ने की आदत हर रंगकर्मी में जरूरी है।