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नाटक व एक्टर तक केंद्रित दुनिया में रंगकर्मी बनना आसान नहीं

अभिषेक आचार्य

RNE Bikaner

प्रदीप जी की तरफ से सबके लिए चाय आ गई। सब हंसी मजाक में लगे थे। आमतौर पर हर मसले पर सामान्य बात को भी गम्भीरता से कहने वाले एस डी चौहान साब ने बोलना शुरू किया। उनके चेहरे पर अचानक से गम्भीरता आ गई। जैसी उनकी हर सामान्य बात में भी आती थी। सब उनके इस स्वभाव को जानते थे। आपने सर, हम लोगों के लिए आज बहुत बड़ी बात कह दी। इस तरह से हमारे काम पर कभी किसी ने कुछ भी नहीं कहा था।

प्रदीप जी भी अपने स्वभाव के अनुसार बीच में उनको टोकते हुए बोल पड़े “सामान्य व सीधी बात को आप गम्भीर मत बनाया करो चौहान साब। रोज आपको ये बात कहनी पड़ती है।”

आप मेरा मतलब नहीं समझे। आप जब जल्दी से बात कहोगे, तब मतलब समझेंगे ना। प्रदीप जी और चौहान साब की इस तरह की मीठी नोंकझोंक के बारे में वहां बैठे सभी जानते थे और हंस भी रहे थे। मंगलजी नहीं जानते थे, तो उनके बात समझ नहीं आई।

प्रदीपजी, इनको कहने तो दो। सर, ये सीधी बात नहीं करते। पहले लंबी भूमिका बनाते हैं और उसके बाद बोलते हैं।

चौहान साब बोले “आप कहें तो न बोलूं। आप मेरा भी स्वभाव जानते हैं। अब गुस्सा छोड़िये और जो कहना चाहते हैं, वो कहिये।” चौहान साब नॉर्मल हो गये।

सर, मैं ये कहना चाह रहा था कि हम मनोयोग से नाटक करते हैं। आप दूसरे लोगों की बात छोड़िये, घर वाले भी ये समझते हैं कि हम बेकार काम कर रहे हैं। समय बर्बाद कर रहे हैं। समाज भी यही सब कहता है।

मंगलजी ने गम्भीरता से इस बात को सुना और उसके बाद बोले “देखो, मैंने थोड़ी देर पहले ही इस बात को कहा था कि हमें समाज का दिल जीतना है। उसे जीतेंगे तो हमें किसी राज के सहयोग की जरूरत नहीं पड़ेगी। आपकी बात सुनने के बाद अब कहता हूं कि हमें उससे भी पहले परिवार का दिल जीतना है। उसे ये बताना है कि हम आवारागर्दी करने नहीं जाते। एक अच्छे काम के लिए जाते हैं। उसका तरीका ये है कि परिवार के लोगों को ग्रांड रिहर्सल, रिहर्सल व मंचन में लाओ। उनको भी नाटक के काम देकर इसका हिस्सा बनाओ। तभी उनको पता चलेगा कि होटल पर बैठकर गप्पें मारने, चौक में बैठकर ताश खेलने से अच्छा है कि कोई भला काम उस समय में करें। सबसे पहले हमें परिवार के हर सदस्य का दिल जीतना है। उनका साथ मिल गया तो हम बाकी सारी बाधाएं पार कर लेंगे।”

प्रदीपजी ने सवाल किया कि इसके क्या क्या तरीके हो सकते हैं तो मंगलजी ने जवाब दिया।

पहले ये मानो कि हम मिलकर जो नाटक कर रहे हैं, वो एक परिवार है। इसे संस्था, टीम नहीं परिवार मानो। फिर परिवार की तरह ही व्यवहार करो। यदि किसी के घर मे उसकी माँ, पिता या कोई भी अन्य सदस्य बीमार है तो सब उसकी तबीयत पूछने उसके घर जाओ। कोई काम हो तो पहल से जिम्मेवारी लो। अस्पताल जाना है, दवा लानी है आदि काम कर दो। धीरे धीरे वो परिवार आपको अपना हिस्सा मानने लग जायेगा। उसके सुख – दुख में भागीदार बनो। तुरंत एक वृहद परिवार खड़ा हो जायेगा और फिर वो भी आपके हर काम में आपकी मदद को तैयार खड़ा मिलेगा।

सबको उनकी ये बात सही लगी। ये तो आसान तरीका है परिवार को जोड़ने का। सबने सहमति में सिर हिलाया।

चांदजी ने बात को आगे बढ़ाते हुए अपनी बात कही “सर, हमारे परिवार में भी यदि कोई नाटक करने में इंटरेस्टेड हो तो उसे भी हमें लाना चाहिए। बात तो आपकी सही है।”

विष्णुकांत जी ने कहा “मेरी सुनिये। ये काम हम कर चुके हैं और इसका अच्छा रिस्पॉन्स भी मिला है।”

मंगलजी बोले “अच्छा। उसके बारे में तो बताओ।”

विद्यासागर जी के दोनों लड़के आनंद व मधु यहां बैठे हैं। हरीश भादानी जी का लड़का शैलेश व लड़की कविता भी भाग लेंगे। सरल विशारद जी का लड़का अरुण व लड़की अरुणिमा ने भी हां की है। मेरे तीनों लड़के राजीव लोचन, अनुभव व संयोग भी भागीदारी करेंगे।

अरे वाह। ये तो अच्छी बात है। अब हमारे शिविर को सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। रंगकर्मी बनना आसान नहीं। हमें हर मोर्चे पर काम करना पड़ता है। हम इस शिविर के माध्यम से कलाकार नहीं रंगकर्मी तैयार करना चाहते हैं। क्योंकि एक रंगकर्मी अपने आप में एक संस्था होता है। वो जहां भी रहता है सदैव रंगमंच के लिए अच्छी बात सोचता है।

बुलाकी भोजक ने बीच में सवाल किया कि जो दूसरे लोग नाटक करते है, उनके प्रति हमारा क्या रुख रहना चाहिए। मंगलजी ने इसका भी जवाब दिया।

नाटक या रंगमंच के लिए कोई भी यदि ईमानदारी से काम करता हो तो वो हमारे लिए आदरणीय है। वो हमारा ही तो काम कर रहा है। बस, ईमानदारी पहली अनिवार्यता है। ऐसे ईमानदारी से काम करने वालों का हमें पूरा समर्थन करना चाहिए। उनकी जो भी सम्भव हो मदद भी करनी चाहिए। हमारा धर्म है कि उसका मंचन भी अच्छा हो, ताकि उसके यहां आया हुआ दर्शक नाटक का दर्शक बने। जिसका लाभ अंतोतगत्वा हमें व रंगमंच को ही मिलेगा। कोई अपने व्यक्तिगत हित, व्यवसाय के लिहाज से नाटक कर रहा हो तो उसे कोई मदद नहीं करनी चाहिए। अपितु उसके आयोजन से ही दूर रहना चाहिये। इस कारण ही कहा कि हमें रंगकर्मी बनना है।

वर्जन

प्रदीप भटनागर

उस दौर में बात रंगमंच और रंगकर्मी की हुआ करती थी। हर रंगकर्मी के सुख दुःख में सब भागीदार बनते थे और समर्पित रहते थे। आज तो नाटक व एक्टर की ही अधिक बात होती है। तभी तो कलाकार अपने तक केंद्रित होकर रह गये। समूचे रंगकर्म की वे सोचते ही नहीं। दूसरे के नाटक के प्रति वो मोह भी नहीं रखते। मुझे ये कहने में संकोच नहीं कि यही स्थितियां बनी रही तो न केवल दर्शक अपितु नाटक भी कम हो जायेंगे।