फलौदी में बीकानेरी सृजन का मान, बीकानेर में “छपने के इंतजाम”
“अदब की बातें”
मोनिका, कासिम ने बढ़ाया बीकाणे का मान
साहित्यिक दृष्टि से शुष्क फलौदी में अदब की मशाल जला रखी है एडवोकेट श्रीगोपाल जी व्यास ने। अपने पिता और आशु कवि स्व रतनलाल जी व्यास की स्मृति को वे अदब के जरिये अक्षुण बनाये हुए हैं। वे वकील हैं, राजनेता है मगर मन कवि का है। काव्य संग्रह भी लिख चुके हैं। मगर सबसे बड़ा काम कर रहे हैं फलौदी में साहित्य की मशाल जलाकर। हर साल अपने पिता की स्मृति में पुरस्कार, कवि सम्मेलन करते हैं। जिस कारण उनकी पहचान पूरे राजस्थान में है। कम ही लोग होते हैं जो अदब की विरासत को इस तरह पोषित करते हैं, आगे बढ़ाते हैं। व्यास जी का ये साहित्यिक कर्म स्तुत्य है। उनको शुभकामनाएं।
इस बार स्व रतनलाल व्यास पुरस्कार बीकानेर की दो प्रतिभाओं को मिला। हिंदी व राजस्थानी की समर्थ कवयित्री, अनुवादक व बेहतरीन इंसान मोनिका गौड़ व उर्दू, राजस्थानी के रचनाकार कासिम बीकानेरी को पुरस्कार के लिए चुना गया। ये बीकानेर के लिए गौरव की बात है। मोनिका व कासिम बीकानेर की अदबी दुनिया के परिचित नाम है। मोनिका जहां सह्रदयी, सहज व सरल स्वभाव की रचनाकार है वहीं कासिम विनम्र, समर्पित लेखक है। दोनों को बीकाणे का नाम ऊंचा करने के लिए लख लख बधाई। उज्ज्वल भविष्य के लिए मंगलकामना।
कोई तो सुध लो राजस्थानी की
बीते 10 साल की बात करें तो बीकानेर स्थित राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी में केवल डेढ़ साल के लिए अध्यक्ष रहा है। अर्थ ये कि मायड़ भाषा के लिए सिर्फ इतने ही दिन काम हुआ। पहले जब वसुंधरा राजे सीएम थी तब 5 साल कोई अध्यक्ष बना ही नहीं, शून्य रहा राजस्थानी का काम। फिर अशोक गहलोत का शासन आ गया। उन्होंने केवल डेढ़ साल के लिए अध्यक्ष बनाया। अब नए सीएम को भी थोड़े महीने में एक साल हो जायेगा मगर कोई अध्यक्ष नहीं बनाया।
अगर राजस्थानी का गम्भीर काम राजस्थान में नहीं होगा तो पंजाब में तो होने से रहा। जिस भाषा में एमएलए, एमपी वोट मांगते हैं, उसी भाषा को चुनाव के बाद भूल क्यों जाते हैं। यदि पूरे समय अकादमी को गतिशील रखेंगे तो भला राजस्थानी का ही होगा। भाषा की मान्यता, दूसरी राजभाषा की बात तो राजनीति के भंवरजाल में फंसी हुई है, अकादमी चलाने में तो कोई दिक्कत नहीं है। इस काम में फिर कोताही क्यों। पिछले पुरस्कारों के भुगतान भी पैसे होने के बावजूद अटके है। निर्णायकों को मानदेय नहीं मिला। अन्य सहायताएँ भी लटकी हुई है। बजट भी है। कार्यवाहक अध्यक्ष संभागीय आयुक्त भी है। फिर भी काम जरा सा भी आगे नहीं सरक रहा। किसकी कमी है, लापरवाही है, इसका जवाब तो सरकार को लेना चाहिए। जबकि उदयपुर की अकादमी ने तो पांडुलिपि सहायता के लिए विज्ञप्ति भी निकाल दी। यहां कुछ नहीं हो रहा। कुछ न होना मायड़ भाषा का अपमान है, मां बोली की उपेक्षा है। जिसे रचनाकार कैसे सहन कर रहे हैं, आश्चर्य है। शेम। शेम। शेम।
उतर गीगला म्हारी बारी
वैसे तो हर शहर में छपास रोगी बहुतायत में होते हैं, मगर अभी तो बीकानेर इस मामले में गोल्ड मेडलिस्ट है। बीकानेर हमेशा ही इस मामले में फाइनल में रहता है, भले ही इस रोग में कितना ही फ्रॉड कर ले पर डिस्क्वालिफाई नहीं होता। कहते हैं, रोज इनको अपना नाम अखबार में छपा न दिखे तो कब्ज की शिकायत हो जाती है। छपने का आज क्या तरीका होगा, दिन का पहला चिंतन ये इसी बात से करते हैं। पहले तलाशते हैं किसी साहित्यकार की जयंती या निर्वाण का दिन। ये न मिले तो किसी साहित्यकार का जन्मदिन। ये भी न मिले तो सरकार से मांग का पत्र छपने का जरिया बनता है। मांग करने की खबर जारी कर छपने का सुख पाते हैं।
छपास के ये रोगी आयोजन को सूंघते फिरते हैं, पता चलते ही तिकड़म भिड़ा वहां मंच पर जाने की जुगत बिठाते हैं। जो कभी अपने दादा परदादा को याद नहीं करते वे तुलसी, मीरा, कबीर, या अन्य कोई साहित्यकार को याद जरूर कर लेते हैं, क्योंकि छपने का अवसर तो इसी वजह से मिलता है। कोई आदमी न मिले तो तीन लोग ही फोटो खिंचवा खबर बना लेते हैं। उपस्थिति में परिवार के लोग, मित्र व अन्य छपास रोगियों के नाम लिख उनको उपकृत कर देते हैं। अब मीडिया वाले भी सच जानने की कोशिश नहीं करते, सेवा भाव से अभिभूत छाप देते हैं। अदब में इतना गड़बड़झाला, कमाल है, आले दर्जे की बेशर्मी। अदब में भी झूठ का कारोबार, पूजनीय हैं ये रोगी।