साहित्य, कला, संस्कृति सरकारों के निचले पायदान पर क्यों, समाज को सोचना चाहिए
आरएनई,स्टेट ब्यूरो।
एक समय था जब लाल किले की सीढ़ियां चढ़ते हुए देश के पहले प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू थोड़ा लड़खड़ा गये। उनके पीछे चल रहे राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर ने उनको गिरने से पहले थाम लिया और खड़ा कर दिया। लड़खड़ाने के बाद भी स्व नेहरू नहीं गिरे।
नेहरू ने खड़ा होते ही दिनकर की तरफ देखा और मुस्कुराये। तब दिनकर ने, जो नेहरू के मित्र थे, नेहरू जिनकी बहुत इज्जत भी करते थे, वे बोले –
— राजनीति जब जब लड़खड़ाती है, तब तब साहित्य ही उसे गिरने से रोकता है। बचाता है।
ये किस्सा बहुत मशहूर है। अधिकतर नेताओं, साहित्यकारों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों को पता है। इसकी चर्चा आज भी गाहे बगाहे होती रहती है। किस्सा तो राजनीति भी सुनती है, सुनकर मुस्कुराती है मगर सोचती कुछ नहीं। करती भी कुछ नहीं। राजस्थान में भी यही हाल है। राजनीति यानी सत्ता के लिए साहित्य, कला एवं संस्कृति सबसे निचले पायदान पर रहते हैं। ये हर दल की सत्ता ने साबित किया है। ज्यादा इतिहास में न जाकर पिछली दो व नई सरकार की ही बात करें तो ये तथ्य प्रमाणित होता है।
पिछली सरकार कांग्रेस की थी और उससे पहले भाजपा की सरकार थी। उस भाजपा सरकार की मुखिया वसुंधरा राजे थी। जिन्होंने इन कला माध्यमों के लिए बनी अकादमियों में अध्यक्ष बनाने का 3 साल तक तो सोचा ही नहीं। उसके बाद भीतरी दबाव के कारण कुछ में पहले बनाया और कुछ में तो एन सरकार का कार्यकाल समाप्त होने से थोड़ा पहले। राजस्थान की मातृभाषा राजस्थानी के लिए बनी अकादमी में तो अध्यक्ष आचार संहिता लागू होने से ठीक एक दिन पहले नये अध्यक्ष का मनोनयन किया जो कार्यभार भी ग्रहण नहीं कर सके। ये महत्ता थी उस समय की सत्ता के लिए साहित्य, कला एवं संस्कृति की।
फिर सरकार बदल गई। कांग्रेस की सरकार आयी और अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने। उनसे कला फील्ड के लोगों को बहुत उम्मीद थी कि वे अकादमियों को सुचारू करेंगे। क्योंकि वे साहित्य व कलाओं के प्रति अनेक बार अपना सदाशयता का रुख सार्वजनिक रूप से भी प्रकट करते रहते हैं। मगर उस शासन में भी दो साल से कम समय बचा तब अकादमियों में मनोनयन हुआ। दो बार मनोनयन हो सकता है पांच साल में मगर एक मनोनीत को भी तय कार्यकाल पूरा नहीं मिलता।
सरकार चुनाव में फिर बदल गई और भाजपा की सरकार बन गई। पिछली सरकार के अध्यक्ष हटाने में नई सरकार ने कोई देरी नहीं की। मगर उनकी जगह प्रशासक लगाने 5 महीनें से अधिक का समय लगा दिया। अब अध्यक्ष कब बनेंगे, ये तो यक्ष प्रश्न है। जिसका जवाब शायद ही कोई दे सके। 5 महीनें प्रशासक न लगाने से प्रदेश की सभी अकादमियों का कामकाज ठप्प हो गया। पिछले कार्यकाल में स्वीकृत हुए पुरस्कारों की राशि तक लेखकों को नहीं मिली। अन्य लाभ भी प्रशासक के अभाव में बजट होने के बावजूद भी नहीं चुकाए गये।
नया कुछ होने की सोचना ही बेकार है। प्रशासनिक अधिकारियों को प्रशासक लगाया गया ताकि सामान्य कामकाज चलता रहे, ये काम जब पहले के अध्यक्षों को हटाया तब भी साथ ही किया जा सकता था। मगर सत्ता के लिए तो साहित्य, कला एवं संस्कृति सबसे निचले पायदान पर है, किसे याद आये। चुनाव में नेताओं को एडजेस्ट करने के लिए आचार संहिता से पहले कुछ निगम व बोर्ड के अध्यक्ष बना दिये, मगर इस क्षेत्र की वकालत कौन करे। समाज को सोचना चाहिए, जिस समाज में इनकी उपेक्षा होती है वो समाज कैसे विकसित होगा। संस्कारों का निरूपण कैसे होगा। अब समय आ गया जब समाज को साहित्य, कला एवं संस्कृति के लिए सोचना और बोलना होगा।
— मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘