बीकानेर की बेटी सोनाली की किताब को देश की सबसे बड़ी अकादमी का युवा पुरस्कार
सच कहूं तो साहित्य का नियमित पाठक नहीं हूं फिर भी इन दिनों जितना भी पढ़ पाया उनमें सबसे ज्यादा जिन्होंने प्रभावित किया उनमें एक सोनाली की ‘सुध सोधूं जग आंगणै’ है। दावा है, आप राजस्थानी की ये कविताएं पढ़ लें और उसके बाद आपको पता चले कि इस युवा कवयित्री की ये पहली कविताएं या पहली पुस्तक हैं तो शायद आपको यकीन नहीं हो।
वजह, विषयों की गूढ़ता और अभिव्यक्ति की इतनी परिपक्वता एक नवोदित कलम में आमतौर पर नहीं दिखती। वह गहरे में उतरती है तो जाने किस रहस्यलोक में चेतन-अवचेतन के बीच संवाद कर सारांश के मोती ढूंढ लाती है। जब विद्रोह करती है तो नोंच डालती है बहरूपिया हो चुके मिनखों के मुखौटों को।
मसलन :
रातां छळ करणिया
दिनुगै मुखौटां रै लारै लुकणिया
धोळपोसियां रै इण स्हैर मांय
ठा नीं कित्ता
बैरूपिया बसता हुवैला…
यहीं नहीं ठहर जाती। ललकारती है दुनियादारी के बदलते मौसम में बदलाव की बातें करने वालों की विवशता को।
देखिये एक बानगी :
गैला हा कांई बै मिनख
जिका बदळण नै निकळया
इण बैरूपियै जंगळ नै!
कांई बै इत्ता भोळा हा, कै
बां नै कदै ठा ई नीं पड्यो
कै अठै सिंघां रै खोळियै मांय
रेवै है गादड़ा
कागला
अठै नाचै है मोरियां बण’र
लूंकड्यां करै है बंतळ
गिलार्यां बण’र..
कैय दो आ संसार बदळण रो
काळजो राखणिया नै, कै
इण जंगळ नै
बदळण सरू जको ई आयो है
घर सूं निकळण तक ईज
बो बण्यो रैय सकै है मिनख…
अंतस तास से निकली “सिसकी-सी” कवितायें :
‘सुध सोधूं जग आंगणै’ से गुजरते हुए महसूस होता हैं कि कविता कुछ टेढ़ी-मेढ़ी पंक्तियों और लयबद्ध किये गए शब्दों का खेल नहीं है वरन अंतर की पीड़ से गुजरते हुए निकली एक ‘सिसकी’ जैसा कुछ है। इन कविताओं को पढ़ते हुए खुद से सवाल होता है कि अंतस में उपजती हूंस आखिर है क्या! सिरजक को वह कैसे बेबस कर देती है। सृजन के बाद निकलने वाली गहरी श्वास कैसे आत्मा पर पड़े एक बोझ से कुछ क्षण के लिए मुक्ति दिलाती है।
अनथक यात्रा…
बस, कुछ ही देर रहता है सृजन सुख। फिर एक विचार बादल की तरह घुमड़ने लगता है। उमस-सी अमूझणी छा जाती है। जाने अंतस के किस गहरे कुएं में भावनाएं उमड़ती है। द्वंद्व शुरू हो जाता मन-मस्तिष्क में। द्वंद्व के पाटों मंे घिसकर भावनाएं कुछ अस्पष्ट आकार लेती है। हिये से होते हुए अंगुलियों के पोरों तक पहुंचते-पहुंचते ये
चित्र शब्द बन कविता के रूप में कागज पर उतर आते हैं। सोनाली के शब्दों में कहें तो जीवनपर्यंत चलती रहनी है यह प्रक्रिया :
“भूख रैय जावै सिरजण री
तद कवा बणै
कीं थोड़ा-सा पाना
अर अेक नान्ही-सी कलम।
मिरतु सूं पैला रै
सगळै रासै नै संभाळणो
आ अेक मायावी हूंस
इण काया नै, अठै ईज
इणी आंगणै मांय
अणंतकाळ तांई
भटकावती राखैला।”
कौनसे जग का आंगणा, मन के भीतर का :
जाहिर है, यह बात वही कवयित्री कह सकती है जो ‘सुध सोधूं जग आंगणै’ के जरिये दुनिया के आंगन में सुध सोध रही है। यहां सुध सोधना या खोजना को समझने के लिए इन कविताओं से गुजरना बहुत जरूरी होगा। यह जानना होगा कि सुध कहीं खो गई या जो सुध है वह दुनियादारी में काम की नहीं। या कि सुध मिली ही नहीं थी। इसे खुद ही अपने जीवनानुभवों से खोजना है। एक मुहावरा ‘सुध-बुध खो देना’ होता है। ऐसे में क्या संवेदनाओं के गहरे सागर में खुद को खो देने के बाद ही ढूंढ़ने के किसी पायदान पर पहुंच सकते हैं ?
“थूं बारै जगतो दिवलो है, कै
बीं रै मांय जगती बाट
कुण है थूं?
सबदां मांय संसार है, कै
संसार मांय जोवै है सबद
कुण है थूं?
काच में निरखण आळी है, कै
काच दिखावण आळी
कुण है थूं?
पाणी सरखी जातरू है, कै
परबत जियां ठैरोड़ी
कुण है थूं?
जिनगाणी नै जोवै है, कै
जिनगाणी जोवै है थनै
कुण है थूं ?”
अनुभूतियां उम्र की मोहताज नहीं :
अभी-अभी किशोरावस्था की दहलीज लांघकर आई सीए-सीएस की पढ़ाई करने वाली लड़की वाणिज्यिक लेखा-जोखा देखने की बजाय मिनखपणै का माप-जोख कैसे करने लगी? सवाल होना लाजिमी है लेकिन इसका जवाब सोनाली ‘म्हांरी बात’ में देती है, जिसे आप किताब में पढ़ सकते हैं। अभी हैरानी इस बात पर है कि निराशा की अंधेरी
रातों में, ‘घुचमुचियां’ हो रही भविष्य की पगडंडियों पर कैसे शब्दों के जुगनूओं की रोशनी में रास्तेे तलाश लेने का माद्दा रखती है यह कविता। देखें:-
उण पूछ्यौ –
थनैं इसी बातां कठै सूं उकळै?
म्हैं कैयो-
मत्तैई आवै
जद च्यांरूमेर बंद किवाड़ लाधै
जद आधी रात जूण तांडव नचावती दीसै
कदैई रातां री ई गळियां
ई घुचमुचिया सागै निकळो!
उण पूछ्यौ-
आधी रात रा, किसा मारग जोवै?
काईं करै है रे तूं?
म्हैं कैयो-
सुध सोधूं..
उण पूछ्यौ-
किण ठौड़
म्हैं कैयो-
जग आंगणै…
हालांकि अनुभूतियां सदैव खुद की होती है और उन्हें अभिव्यक्त भी खुद को ही करना होता है लेकिन ये मिलती परिवेश से ही है। सोनाली का लहजा बताता है कि अपने अवचेतन में वह धर्म, अध्यात्म, मिनखपणै से लेकर देह-अदेह तक के गूढ़ रहस्यों से गुथमगुथा होती रहती है। संभवतया यह उसकी दादी की सुनाई बाल कहानियों और बातों-बातों से अवचेतन में भर दिये गए धर्म-अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों की आंशिक अभिव्यक्ति है। इंतजार है इस अनुभूति के और प्रखर रूप में अभिव्यक्त होने का। साहित्य अकादमी दिल्ली की ओर से इस वर्ष का युवा पुरस्कार सोनाली के ‘सुध सोधूं जग आंगणै’ को प्रदान किये जाने पर बधाई।
मेरे लिखे का भरोसा न करें :
चूंकि सोनाली मित्र वास्तुविद आर.के.सुतार की पुत्री और मेरी भतीजी है इसलिए मैं चाहूंगा कि आप मेरी लिखी बात पर यकीन नहीं करें वरन खुद परीक्षण करें। बीकानेर के ही गायत्री प्रकाशन ने इस युवा कवयित्री की पहली पुस्तक ‘सुध सोधूं जग आंगणै’ प्रकाशित की हैं। आप वहां से हासिल कर पढ़ सकते हैं। शायद वे ऑनलाइन भी पुस्तक उपलब्ध करवाते हैं।
सुविधा के लिए गायत्री प्रकाशन वालों का पता और नंबर शेयर कर रहा हूं:
गायत्री प्रकाशन
कुसुम कुंज
बेणीसरबारी के बाहर, सूर्य कॉलोनी
बीकानेर, राजस्थान।
संपर्क: 9829334393