महात्मा गांधी अंग्रेजी स्कूलों पर संशय, शिक्षकों पर कई पाबंदियां, अगले पायदान पर पाठ्यक्रम
सरकार बदलते ही जिस विभाग को सबसे पहले प्रयोगशाला बनाया जाता है, वो है शिक्षा विभाग। जिस भी दल की सरकार आती है वो अपना एक एजेंडा लेकर आती है और उसे भिन्न भिन्न प्रयोग करके फिर लागू करने में लग जाती है। शिक्षा विभाग के ये परिवर्तन कभी भी शिक्षक, अभिभावक या विद्यार्थी से पूछकर नहीं किये जाते, अधिकतर मंत्री की ईच्छा या पार्टी की रीति नीति के अनुसार किये जाते हैं। शिक्षक और विद्यार्थी को तो उनको लागू करना होता है। अभिवावक की भी मजबूरी है, क्योंकि वो अपने बच्चे को पढ़ाना चाहता है। ऐसा कोई एक दल की सरकार नहीं करती, जिस दल की भी सरकार आती है वो करती है।
पिछली सरकार कांग्रेस की थी और सीएम अशोक गहलोत थे। उस सरकार ने शहरों और गांवों की कई स्कूलों को हिंदी से अंग्रेजी माध्यम का कर दिया। ताकि प्रतियोगी परीक्षाओं में राज्य के बच्चे न पिछड़ें। एक साथ इस माध्यम से पढ़ाने वाले शिक्षकों की भर्ती सम्भव नहीं थी तो उपलब्ध शिक्षकों से आवेदन लेकर उनको उनकी ईच्छा के अनुसार इन स्कूलों में पदस्थापित किया गया। फिर भी बड़ी संख्या में पद खाली रह गये। इन स्कूलों को नाम दिया गया महात्मा गांधी स्कूल।
हालांकि लोगों को नाम से जरूर एतराज था। क्योंकि गांधी तो मातृभाषा के हिमायती थे। आजादी के बाद वे अंग्रेजी के विरोधी थे, फिर भी सीएम ने यही नाम दिया। नाम पर एतराज हो सकता है मगर सोच पर एतराज नहीं होना चाहिए था। ग्रामीण क्षेत्र में इसका सकारात्मक मैसेज गया।
सरकार बदली तो कई ये अंग्रेजी माध्यम के महात्मा गांधी स्कूल बंद कर दिए गये हैं। कईयों को बंद करने की तैयारी है। कहा ये जा रहा है कि कहीं बच्चे नहीं है, कहीं शिक्षक नहीं है। होना तो ये चाहिए था कि नये शिक्षकों की भर्ती होती। प्रवेशोत्सव में अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने के लिए बच्चों को प्रोत्साहित किया जाता। मगर बंद का निर्णय हुआ। दूसरा बड़ा चेंज नई सरकार ने शिक्षकों में किया। उनको कुछ ड्रेस न पहनने का आदेश दिया गया है। उसमें भी स्पष्टता नहीं है। शिक्षक संगठन अब विरोध कर रहे हैं। अब शिक्षकों के स्कूलों में मोबाइल लाने पर भी रोक की बात कही गई है। शिक्षक पर कुछ और प्रतिबंध भी लग सकते है।
अगला निशाना पाठ्यक्रम पर है। शिक्षा मंत्री उसमें बदलाव की बात कह चुके हैं। नये सत्र से ये बदलाव शायद नजर आ जाये। अब कौन बदलाव करेगा, उसकी मांग किसने की, विद्यार्थी क्या चाहते हैं, इन सवालों के कोई जवाब नहीं दे रहा। बदलाव होगा, ये तय है। शिक्षा, स्वास्थ्य हर नागरिक से जुड़े हैं, इनमें बदलाव जन सुझावों के अनुसार ही हो तो सही रहता है। शिक्षा को कभी प्रयोगशाला नहीं बनाना चाहिए।
मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘