रंगकर्म केवल कलाकारों से नहीं सहयोगियों से ही आकार लेता है, उनका योगदान बड़ा
आरएनई, बीकानेर।
मंगल सक्सेना के नाट्य प्रशिक्षण शिविर को लेकर विष्णुकांत जी, जगदीश जी, विद्यासागर जी, प्रदीप भटनागर जी, एस डी चौहान साब, चांद रजनीकर, बुलाकी शर्मा, मनोहर कलांश आदि जी जान से लगे हुए थे। स्थान के लिए उन्होंने कल्पना संस्थान की जगह का तय किया। अब बस उनको अमरचंद जी पुरोहित से बात करनी थी। हरीश भादानी जी, सरल विशारद जी का भी इन रंगकर्मियों को साथ था। वे भी मन, वचन से उनके साथ थे। जिससे रंगकर्मियों का हौसला ज्यादा बढ़ गया था। क्योंकि पहली बार साहित्यकारों का जीवंत साथ रंगकर्म को मिला था।ये बीकानेर रंगमंच का टर्निंग पॉइंट इस दृष्टि से माना जा सकता है। क्योंकि अधिकतर शहरों के रंगकर्मियों को इस बात की शिकायत थी कि शहर के रंगकर्म के साथ वहां के साहित्यकार नहीं आते। जबकि नाटक भी साहित्य का ही अंग है। साहित्यकारों के नाटक यानी रंगमंच से न जुड़ने के कारण ही तो अच्छे मंचीय नाटकों की हर दौर में कमी रही है। नाटक केवल साहित्यिक कृति बन के रह जाते हैं। उन्हें मंचित ही नहीं किया जा सकता। नाटक जब तक मंच के निकाय से न गुजर जाये तब तक उसे नाट्य कृति कहा ही नहीं जा सकता। ये सार्थक बात नेमिचन्द्र जैन के साथ कई अच्छे नाट्य लेखकों व निर्देशकों ने भी कही है। मगर बीकानेर के रंगकर्मी उस समय इस बात से ज्यादा उत्साहित थे कि साहित्यकार उनके साथ जुड़े हैं। ये इसीलिए टर्निंग पॉइंट था। हालांकि इससे पहले बुलाकी दास बावरा एनडी प्रकाश जी की संस्था राजस्थान कला मंदिर से जुड़े हुए थे। डॉ राजानन्द भटनागर तो स्वयं आयाम नाट्य संस्था चलाते थे। इस कारण हरीश जी, सरल जी का साथ उनको महत्ती लगा। उनको महसूस हुआ कि अब शिविर आयोजित करने में किसी तरह की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगा। शिविर सफलता से आयोजित होगा।बात चल रही थी रंग सहयोगियों की। हरीश जी व सरल जी तो साहित्य के ही थे जो नाटक का अंग है। अन्य सहयोगी होने रंगमंच के लिए ज्यादा जरूरी है। उनका योगदान ही रंगमंच को भावभूमि देता है। ये वो सहयोगी होते हैं जो कभी भी सामने नहीं आते, पीछे रहकर कलाकारों को प्लेटफॉर्म देते हैं। उनकी रंग निष्ठा अद्वितीय होती है। उस दौर में भी तीन लोग ऐसे थे, जिनका सहयोग इन रंगकर्मियों को मिला और वो अनमोल था। जिसमें दो तो सीधे सीधे मंच से जुड़े हुए ही नहीं थे। एक का कलाकर्म से जीवंत जुड़ाव जरूर था।इनमें पहला जिक्र होना चाहिए कामेश्वर सहल का। केईएम रोड पर उनकी मिलन रेस्टोरेंट थी और वहां रंगकर्मियों को वे पूरा सम्मान देते थे। उनकी भी सक्रिय भागीदारी रंगकर्मियों के इस ध्येय में थी। इसके अलावा मोहन जी राजपुरोहित व ज्ञान जी राजपुरोहित इनके रेस्टोरेंट में ही बैठते थे। उनके साथ मंगलजी भी वहां आते थे। दूसरे बड़े सहयोगी थे मोहन शर्मा जी। वे मंगलजी के अनन्य भक्त थे और उनके हर आदेश की पालना करते थे। ज्ञान जी के साथ भी मंगल जी का लंबा सत्संग होता था। इन तीनों लोगों का जो रंगकर्मियों को सहयोग मिला वो खास था। बाद में मंचन के समय भी ये लोग हॉल की व्यवस्था संभालते थे। जो कलाकार न हो और फिर भी उनमें इतनी गहरी रंग निष्ठा हो, ऐसा कम ही देखने को मिलता है। वर्तमान दौर में तो बिल्कुल देखने को नहीं मिलता।
वर्जन :
रंगकर्मियों को नाटक तैयार करने के साथ साथ रंग सहयोगी भी तैयार करने चाहिए। उनके बूते ही बड़े और सफल मंचन सम्भव होते हैं। मोहन जी, ज्ञान जी व कामेश जी का जो रंगकर्म को सहयोग मिला, उसे बीकानेर रंगमंच को कभी भूलना नहीं चाहिए। बीकानेर रंगमंच की वर्तमान की भव्य इमारत इन सहयोगियों के बूते ही खड़ी है। रंग निष्ठा का एक पुनीत यज्ञ होता है रंगमंच। ये किसी भी रंगकर्मी को भूलना नहीं चाहिए।