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मां, मायड़ भाषा के लिए जागना तो होगा, झुकाना भी होगा, सत्ता को उसकी भाषा में समझाना होगा

आरएनई,स्टेट ब्यूरो। 

संविधान की आठवीं अनुसूची में अनेक ऐसी भाषाएं शामिल है जिनको बोलने वालों की संख्या दो करोड़ भी नहीं है। न उन भाषाओं से अधिक सांसद व विधायक आते हैं। मगर उसके बाद भी उन भाषाओं ने सत्ता को झुकाया और संवैधानिक मान्यता प्राप्त की। जबकि 12 करोड़ से भी अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा राजस्थानी अब भी केंद्र व राज्य सरकार के बीच फुटबाल बनी हुई है। न तो इस भाषा को संवैधानिक मान्यता मिल रही है और न इसे राज्य में दूसरी राजभाषा का दर्जा मिल रहा है। मायड़ भाषा यानी मां बोली यानी मां की भाषा, उससे किसे लगाव नहीं होगा। यदि लगाव नहीं है तो वो व्यक्ति कैसे। जिंदा इंसान कैसे। ये सवाल तो बनता है।

राजस्थानी भाषा जो सबसे पुरानी है, उसका अपना समृद्ध शब्दकोश है, विपुल साहित्य भंडार है, उसकी अपनी बोलियां है, अपनी संस्कृति है। उसके बाद भी भाषा को मान्यता के लिए तरसना पड़ रहा है।

राजस्थानी भाषा के मान्यता आंदोलन के साथ सबसे बड़ी परेशानी ये है कि इसे केवल साहित्यकारों का आंदोलन मान लिया गया है। जबकि सच बिल्कुल अलग है। भाषा को मान्यता मिलने से फायदा साहित्यकारों को नहीं मिलेगा, हर राजस्थानी को मिलेगा। उसे रोजगार का अवसर मिलेगा। साहित्यकार को जो मिलेगा वो तो अभी मिल ही रहा है। उसे पुरस्कार मिल रहे हैं, किताबें छप रही है, मान सम्मान मिल रहा है। साहित्य अकादमी, नई दिल्ली तक उनको राष्ट्रीय पुरस्कार दे रही है। साहित्यकार तो हर राजस्थानी के लिए लड़ रहे हैं, ये बात उनको समझ ही नहीं आ रही।

यदि राजस्थानी को मान्यता मिलेगी तो यूपी, एमपी, बिहार आदि के लिए राजस्थान नोकरियो का चारागाह नहीं बनेगा। नोकरी में राजस्थानी लोगों को प्राथमिकता मिलेगी। हर प्रतियोगी परीक्षा में 25 प्रतिशत प्रश्न तो राजस्थानी के पूछे जायेंगे, जिनका जवाब राजस्थान के विद्यार्थियों के ही पास होगा। जैसे पंजाब में पंजाबी, कर्नाटक में कन्नड़, महाराष्ट्र में मराठी लोग ही अधिक रोजगार पाते हैं, वैसे ही राजस्थान में भी राजस्थानी ही रोजगार पायेंगे।

ये बात हर नौजवान को समझनी होगी। हर घर को समझनी होगी। न केवल समझनी होगी अपितु चुनाव लड़ने वालों को उनकी भाषा में समझानी भी होगी। तभी भाषा मान्यता का आंदोलन जन आंदोलन बनेगा। सरकारें झुकेगी। मां, मायड़ भाषा को सम्मान मिलेगा। गौर से सुनो, राजस्थानी के क्रांतिकारी कवि मनुज देपावत आज भी पुकार रहे हैं…

‘छाती पर पैणा पड़्या नाग रे
धोरां आळा देस जाग रे…’

 

— मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘