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आंगण मां खीचड़े रा सबड़का, डागळै किन्ना रा गुड़का, सागै इमलाणी रा गुटका

मनोज आचार्य

आरएनई, बीकानेर।
आखातीज और बीकानेर। ये शब्द मुंह से निकलते ही दिलो-दिमाग में जो सबसे बड़ी तस्वीर बनती है वह है मस्ती में डूबा एक पूरा शहर। मस्ती इसलिये क्योंकि इससे एक दिन पहले यानी आखाबीज को शहर की वर्षगांठ होती है और पूरा बीकानेर दो दिन अपने शहर का जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाता है।

हालांकि राव बीकाजी संस्थान सहित कई संस्थाएं आयोजन भी करती है लेकिन मुख्य उत्सव होता है घरों में। वह भी दो तरह से घर के आंगन में ‘खीचड़े रा सबड़का’ इमलाणी रा गुटका और छत पर ‘किन्नौ रा बोई काट्या’। शुक्रवार को भी आखातीज के मौके पर बीकानेर के लगभग हर घर में घी की धार के साथ खीचड़ै के सबड़के, इमलाणी के गुटके लिये।

यूं बनता है खीचड़ा:
धोय, छाण, कूट, फटक, आखो धान सिजायौ..
घी री धार देय धणियाण्यां सबड़का जिमायौ।।

इन दो पंक्तियों के अर्थ जान लें तब पता चलेगा कि सामान्य नहीं है खीचड़ा बनाना। इसके लिए बड़ी तैयारी करनी पड़ती है। वह एक-दो नहीं, कई दिन पहले से। मसलन, साबुत अनाज में खासतौर पर गेहूं और बाजरी का अलग-अलग खीचड़ा बनता है। गेहूं का खीचड़ा बनाने के लिए निगर दाने का गेहूं काम में लेते। धोय, छाण, कूट, फटक की प्रक्रिया शुरू होती है।

मतलब यह कि सबसे पहले छानकर छोटा कचरा निकालते हैं। चुगकर गेहूं के अलावा कोई दाना या बड़ा कचरा, कंकर निकाला जाता है। इसके बाद पानी में धोने की प्रक्रिया। साफ होने के बाद इसे कूटने का क्रम शुरू होता है। इसमें ओखली में गेहूं डाल मूसळों की ऐसी मार दी जाती है कि गेहूं टूटे नहीं लेकिन इसका छिलका उतर जाए। अब फटकना मतलब छिलके उड़कार इसे सुखा देते हैं।

सूखते ही यह खीचड़ा बनाने के लिए अनाज तैयार होता है। हां, इसमें माप के मुताबिक साबुत मूंग जरूर मिलाने पड़ते हैं। जो लोग अब भी घरों में कूटकर खीचड़ा बनाते हैं वे आखाबीज से लगभग एक सप्ताह पहले यह तैयारी कर लेते हैं। आखाबीज और तीज के दिन इसी धान को खीचड़े के रूप में ‘मैणामैण’ सिजाकर घी की धार के साथ परोसा जाता है। घी इतना की ठोस रूप में बना खिचड़ा तरल हो जाएं। तब हाथों से मसळकर लिया जाता है ‘सबड़का’।

अब इमलाणी की बारी…
खीचड़े के साथ ही आखाबीज पर बनता है खास पेय ‘इमलाणी’। इसके लिए इमली के बीज निकालकर इसे मिट्टी की नई हांडी में भिगोते हैं। कुछ देर बाद पानी की धार के साथ गळने से छाणने की प्रक्रिया शुरू होती है। साथ ही इसमें मिलती है चीनी, काली मिर्च, इलायची आदि। खूब छानकर इसे बर्फ से या फ्रिज में रखकर ठंडा होने रख दिया जाता है। खीचड़ा खाने से पेट फूल रहा है तो बस, दो घूंट इमलाणी पीते ही यूं लगता है सबकुछ हजम हो रहा है।

मटकी भरने से लेकर खाना पकाने तक का अलग अंदाज:
रोजमर्रा की तरह नहीं बनता आखाबीज-तीज का खीचड़ा भोजन। अगर संयुक्त परिवार है तो बाकायदा घर की धणियाणी-सास या मुखिया महिला की देखरेख में बहुओं को काम बांटा जाता है। एकल परिवार है तो अकेली महिला सभी कामों को अलग-अंदाज में करती है। मसलन, सबसे पहले मटकी छाणी जाती है। मतलब यह कि नई मटकी में पानी भरना। यह भरने के लिए आमतौर पर नई साड़ी पहनकर बहुएं सुहाग के सभी प्रतीकों से खुद को सजाती है।

मसलन, बिंदी, सिंदूर, मेहंदी आदि। नई मटकी को खूब रगड़क साफ करना। पानी भरना और इसमें इलायची की पोटली छोड़ना। मटकी, ढकणी, सरवा (कुल्हड़) की स्वास्तिक चिह्न के साथ पूजा। मंगल धागा बांधना। भरी हुई मटकी की ढकणी में साबुत अनाज बिखेरना। इसी तरह इमलाणी बनाने वाली हांडी की पूजा और खीचड़ा बनाने के लिए भरथिया (एक तरह की पीतल की भारी हांडी) या कूकर को भी मौळी बांधी जाती है। इसके बाद ही पकता है खीचड़ा।

आखा यानी साबुत:
आखा का मतलब सामान्यतया साबुत धान से लिया जाता है। हर चीज अक्षय रखी जाती है इसलिये खीचड़ा या साबुत धान पकाया जाता है। इसके साथ बनने वाली बड़ी की सब्जी भी साबुत बड़ी की होती है। इस सब्जी में काचरी भी साबुत डाली जाती है। रोटी भी दो परतों वाली (दुपड़ी) बनाई जाती है। हां, एक खास हरी सब्जी बनती है चंदळिया।

बीसियों घरों में पचासों ने साथ लिये सबड़के:
यह पर्व सुख-समृद्धि के साथ पारिवारिक एकता का भी माना जाता है। इसीलिये जहां तक संभव हो परिवार के सभी पुरूष एक साथ और महिलाएं एक साथ ही एक ही थाल में भोजन करते हैं। बीकानेर में बीसियों परिवार ऐसे हैं जहां एक ही थाल में 50 से ज्यादा हाथ एक साथ सबड़का लेने के लिए बढ़ते हैं।
मतलब यह कि घर के आंगन में समूहिक सबड़के गूँजते हैं और छत पर चलते हैं पतंगबाजी के गुड़के।