खबरजीविता वायरस की चपेट में साहित्यकार, बचाने के लिए गोष्ठियों का इंतजाम
आरएनई,बीकानेर।
मेरी तबीयत पिछले तीन-चार रोज से खराब चल रही है। किसी को बता भी नहीं सकता। यदि बताऊँगा भी तो लोग मजाक ही उड़ायेंगे। श्रीमतीजी को भी नहीं बताया। वह मुझे अनमना उदास और चुप देख चिन्ता जताते हुये बोली, ‘किसी डॉक्टर को दिखाते क्यों नहीं? बिना कुछ लिये तो इलाज होने से रहा। पिछले तीन दिनों से खाना भी कम खा रहे हो। नींद भी पूरी नहीं आती। रातों को करवटें बदलते रहते हो। बीमारी बढ़ गई तो क्या होगा! तुम्हारी पेंशन से मुश्किल से काम चलता है।
यदि तुम्हें कुछ हो गया तो मेरा क्या होगा!’ इस मूर्खा को अपनी ही चिन्ता सता रही है। इसे पता नहीं कि मैं कितना बड़ा रचनाकार हूँ ! मेरी बीमारी से लेखक जगत में तहलका मच जायेगा। फिर मुझे कोई आम बीमारी हो तो ही मैं डॉक्टर के पास जाऊँ? दरअसल पिछले आठ-दस रोज से मुझे किसी संस्था ने किसी कार्यक्रम में न तो भाषण देने के लिये बुलाया और न ही किसी गोष्ठी में आमन्त्रित किया गया। अब तो आप समझ सकते हैं कि इससे एक खबरजीवी की क्या स्थिति हो सकती है! हमें अपना नाम और फोटो पत्र-पत्रिकाओं में देखने की लत लगी हुई है। ऐसा जब कभी नहीं होता तो हमारी भूख, नींद और चैन गायब हो जाते हैं। आप कहेंगे कि लत तो जुए, नशीले पदार्थों और बैठकबाजी आदि की होती है।
खबरजीवी होना न तो कोई लत है और न ही कोई बीमारी। मुझे अफसोस होता है आप के मुँह से ऐसी बातें सुनकर। वास्तव में आप लेखकों के विषय में कुछ भी नहीं जानते। कुछ दिन ऐसे लेखकों की संगति में रहकर देखिये। मेरा दावा है कि यह छूत की बीमारी आप को अवश्य घेर लेगी। वैसे पहले इस बीमारी का प्रकोप अधिकतर राजनेताओं में पाया जाता था किन्तु सोशल मीडिया के सक्रिय होने पर यह बीमारी साहित्यकारों में बड़ी तेजी से संक्रमित हुई। आजकल प्रायः सभी साहित्यकार न्यूनाधिक रूप से इस बीमारी से ग्रसित हैं किन्तु मानता कोई नहीं।
मैंने अपनी यह समस्या एक साहित्यिक मित्र को बताई तो उसने सुझाव दिया कि आपकी किसी पुरानी पुस्तक का दूसरे संस्करण के नाम से लोकार्पण करवा देते हैं। चाय-नाश्ते आदि का जो दो-चार सौ रुपयों का जो खर्च पड़ेगा उसे कुछ आप वहन कर लेना, कुछ हम अपनी संस्था की ओर से कर देंगे। उसने मेरी पुस्तक की पाँच प्रतियाँ लीं और उसके प्रथम चार पृष्ठ पुनः मुद्रित करवा लाया। इसके बाद एक कार्यक्रम रखा गया…. और हम लोग चार-पाँच दिन चर्चा में रहे। मैं पुरानी फार्म में लौट आया। मैंने मित्र को धन्यवाद दिया। दरअसल ऐसे निःस्वार्थी मित्र साहित्य के क्षेत्र में आजकल कहाँ मिलते हैं! अब हमें एक नया फार्मूला मिल गया। जब किसी आयोजन का अवसर नहीं मिलता तो हम इस प्रकार किसी बहाने अपनेआप को सक्रिय रखने की चेष्टा करते हैं।
कहावत है कि मूरखों के गाँव अलग नहीं होते। वे हम लोगों के बीच में ही रहते हैं किन्तु बोलते ही तत्काल पहचान भी लिये जाते हैं। आप जानते हैं या नहीं जानते कि राजनेता भाषणजीवी, आन्दोलनजीवी, जुमलाजीवी, चुनावजीवी होने से पहले खबरजीवी होते हैं। उनका कहना है कि अखबार ही उन्हें जीवित रखने में सक्षम हैं। नेता जब अखबार में आना बंद हो जाता है तो यह उसकी एक भाँति की मृत्यु ही होती है। खबरें उसके लिये संजीवनी का काम करती हैं। जिस व्यक्ति को समाचार पत्रों और पत्र-पत्रिकाओं में अपना नाम, फोटो, वक्तव्य आदि देखने की लत लग जाती है तो वह आयु पर्यन्त नहीं छूटती।
खबरजीवी लोग जब कोई कार्यक्रम करते हैं तो अपने अनुपस्थित साथी को भी उपस्थित दिखलाकर उसका वक्तव्य छपवा देते हैं। यह उत्तरदायित्व दोनों ओर से ही निभाया जाता है। कार्यक्रम हो चुकने के बाद उसे फोन कर दिया जाता है कि तुम्हारा नाम दे दिया गया है, ध्यान रखना। जब कभी व्यक्ति इस सुख से वंचित हो जाता है तो उसका जीवन बड़ा कठिन हो जाता है। अपने आखिरी दिनों में नेता, अभिनेता अथवा दूसरे खबरजीवी गुमनामी का जीवन जीने को बाध्य हो जाते हैं तो उन दिनों उनकी पीड़ा का वर्णन कर पाना बड़ा कठिन होता है। ऐसी स्थिति में उनके निकट के लोग भी उनके पास जाने से कतराने लगते हैं जैसे वे किसी छूत के रोग से ग्रसित हों। दरअसल वे अपनी यश-गाथा और कारनामे दूसरों को सुनाने के लिये लालायित रहते हैं। अवसर मिलते ही शुरु हो जाते हैं। आप देखते हैं कि इसी कारण लोग बूढ़े व्यक्तियों के पास बैठने से कतराते हैं क्योंकि वे भी जब शुरु हो जाते हैं तो उन्हें चुप करवाना बड़ा मुश्किल होता है।
अति महत्त्वाकांक्षी लोग सदैव दूसरों की स्मृतियों में बने रहने के लिये कोई ऐसा काम करते रहते हैं जिससे वे खबरों में बने रहें। इनमें सबसे ‘सस्ता सुन्दर और टिकाऊ’ साहित्यिक कार्यक्रम होते हैं। इनमें अधिक व्यक्तियों की जरूरत नहीं होती। दो व्यक्तियों से लेकर कितने ही हो सकते हैं। प्रारम्भ में व्यक्ति को थोड़ी मेहनत करनी पड़ती है। फिर तो मंच संचालन से शुरु करके व्यक्ति अध्यक्षता तक करने लायक हो जाता है। ज्यों-ज्यों उसे साहित्य और साहित्यकार की प्रवृत्तियाँ समझ में आने लगती हैं वह आगे बढ़ने लगता है। आधुनिक युग में केवल रचना करने मात्र से कोई महान साहित्यकार नहीं बन सकता। उसे लोगों को भ्रमित करने की कला में भी निष्णात होना चाहिये।
साहित्यिक कार्यक्रमों में हमें कुछ लोगों को भीड़ बढ़ाने के लिये भी आमन्त्रित करना पड़ता है। उनमें से कई मेधावी तो आगे चलकर अध्यक्ष बनने तक की योग्यता भी प्राप्त कर लेते हैं। इनसे भी सावधान रहना चहिये।
ऐसे लोग ही कई बार आगे चलकर कार्यक्रमों में व्यवधान डालकर उन्हें असफल बनाने की चेष्टा करते हैं। वे आपके गुट से कुछ लोगों को किसी अन्य संस्था में पदादि का लालच देकर उन्हें आप से अलग भी कर सकते हैं। ऐसे असन्तुष्ट लोग यदि अपनी कोई नई संस्था बनायें तो उनका इस प्रकार सहयोग करना चाहिये कि आगे चलकर वे आपके ही अनुगामी रहें। खबरजीवियों का तथाकथित पत्रकारों से गठबन्धन होता है। ये एक-दूसरे को आगे बढ़ाने में सहायता करते हैं। साहित्यकार उन्हें अपने प्रयासों से यदा कदा विज्ञापन दिलवाकर कृतार्थ करते रहते हैं। पत्रकार उनके द्वारा लिखे गये समाचारों को अक्षरशः प्रकाशित करवाकर उन्हें विश्व का महान साहित्यकार बनने में योगदान देते हैं। राजनीतिक पार्टियों के गठबन्धन जहाँ परस्पर एक-दूसरे की टाँग खिंचाई करते रहते हैं वहाँ इनके गठबन्धन को आदर्श कहा जा सकता है।
मैंने देखा है कि छोटे-छोटे कस्बों या शहरों के साधारण रचनाकार इनके सहयोग से महान साहित्यकार के रूप में अपना और अपने स्थान का नाम रोशन करते हैं। ये लोग यदि संयोगवश किसी शवयात्रा में भी एकत्र हो गये तो अगले दिन समाचार पत्रों में प्रकाशित होगा दानवीर सेठ फत्तूमल को अमुक-अमुक साहित्यकारों द्वारा श्मशान भूमि में भावभीनी अन्तिम विदाई। उस समाचार में प्रमुखता साहित्यकारों को ही मिलेगी। स्वर्गवासी सेठ का तो केवल नाम ही होगा। इस समाचार के बूते वे उसके परिजनों से एक धांसू विज्ञापन तक ले लेते हैं। जिस प्रकार किसी नशेबाज को मादक पदार्थ का नशा होता है उसी प्रकार इन्हें भी अपना नाम देखने का नशा होता है। दो-चार दिन किसी कारणवश समाचारों में न दिखे तो ‘वर्चुअल काव्य गोष्ठी’ का समाचार बनाकर अखबार तक पहुँचवा देंगे। धन्य हैं ऐसे साहित्यकार ! धन्य हैं ऐसे पत्रकार। अहो रूपम् ! अहो गायनम् !
वैसे खबरजीवी साहित्यकार स्वयं को बुद्धिजीवी भी कहते हैं किन्तु इनके कार्य कलाप बतलाते हैं कि ये तिकड़मजीवी हैं। ये लोग लिखने से अधिक दिखने में विश्वास करते हैं। किसी भी साहित्यिक कार्यक्रम में ये आपको मंच पर अथवा मंच के आसपास ही मंडराते दिखलाई पड़ेंगे। मंच चाहे किसी का भी हो। ये लोग खुद को खबरों में छपवाने के अतिरिक्त किसी विचारधारा से सम्बन्ध नहीं रखते। कई दिन मंच या माइक न मिलने पर इनकी तबीयत बिगड़ने लगती है। जब लोग इन्हें समझ जाते हैं तो इनका सूचकांक नीचे गिरने लगता है। उस समय ये सावधान हो जाते हैं। ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ की कहावत इन पर भी लागू होती है। दो-चार खबरजीवी मिलकर पहले तो एक संस्था का गठन करते हैं ताकि खबरों का उत्पादन खुद के स्तर पर और बड़े पैमाने पर कर सकें। इसके बाद ऐसे नव धनाढ्य लोगों को ढूंढ़ निकालते हैं जो अपने माँ-बाप को अमर करके खुद का नाम रोशन करना चाहते हैं। उनके परिजनों के नाम से पुरस्कारों की प्रविष्टियाँ आमन्त्रित करते हैं।
इसके बाद प्रविष्टियों के आधार पर ऐसे लोगों की खोज होती है जो पुरस्कार लेकर बदले में उन्हें भी पुरस्कार दिलवा सकें या दे सकें। इधर पुरस्कार दाताओं को यह पता भी नहीं चल पाता कि उनके परिजनों के नाम पर क्या-क्या हो रहा है? कहते हैं कि खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। कुछ और नव धनाढ्य इन्हें देखकर उनसे जुड़ जाते हैं। वैसे खरबूजे को तो कटना ही होता है चाहे कोई काटे। यदि किसी साहित्यकार से नहीं कटे तो कोई राजनेता काट लेगा। ‘साहित्य प्रसार में दान दाताओं का योगदान’ नाम से यदि शोध किया जाये तो पुराने राजाओं-महाराजाओं से लेकर आधुनिक धन्ना सेठों तक अनन्त नामों की सूची बन सकती है। राजस्थान में तो कवियों को ‘करोड़ पसाव या’ जागीरें आदि देने तक का रिवाज रहा है। दरबारों में भी कवियों की स्पर्धा रहती थी। सब के बीच में खुद के लिये करोड़ पसाव का जुगाड़ बिठा लेना असंभव कार्य है।
राजा लोग आजकल के आलोचकों की भाँति न होकर सत्य के पारखी और काव्य रसिक हुआ करते थे। वे दिल से उनके प्रति श्रद्धा प्रकट करते थे। वीर छत्रसाल ने कवि भूषण की पालकी को यूं ही कन्धा नहीं दिया। आजकल तो हमारे रचनाकार किसी छोटे से पुरस्कार या अलंकरण के लिये प्रायोजकों और सेठों के पीछे पूंछ हिलाते फिरते हैं। आजकल पुरस्कार के बाद कोई कृति दो दिन तो चर्चित रहती है फिर टांय-टांय फिस्स। लोग भूल जाते हैं। खबरों में बने रहने के लिये किन्तु यह उत्तम धन्धा है इसलिये खबरजीवी इसे बार-बार दोहराने की चेष्टा करते हैं। प्रदेशों की सरकारें और निजी संस्थायें आज साहित्यकारों को जितने पुरस्कार प्रदान कर रही हैं उसे देखकर इसे साहित्य का स्वर्ण युग कहा जा सकता है।
जहाँ तक गुणवत्ता का प्रश्न है क्या रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बाद भारतीय भाषाओं में कोई ऐसी विश्व स्तरीय कृति नहीं आई जिसे ‘नॉबेल पुरस्कार’ से नवाजा जा सके। इसका मतलब तो यही हुआ कि वहाँ जो खिचड़ी पकती है उस में भारतीयों का हिस्सा नहीं होता। वहाँ भी कुछ ऐसे देशों की दादागीरी है जो अपना हित-अहित देखकर पुरस्कारों की घोषणा करते हैं। वहाँ भी साहित्य गौण और व्यक्ति प्रमुख हो जाता है। हमाम में जब सभी नंगे हैं तो बेचारे खबरजीवी साहित्यकारों को क्या दोष दिया जाये क्योंकि साहित्य अब उनके लिये साधना नहीं बल्कि एक धन्धा हो गया है। धन्धे के विषय में मैं क्या बताऊँ आप सभी जानते हैं कि वहाँ तो लाभ प्राप्त करना ही उद्देश्य होता है। हम लोग यदि वही कर रहे हैं तो कौनसा अपराध है।