आखिर किसका इम्तिहान : पढ़ाई का या बच्चों के सब्र का !
शिक्षा के लिए परीक्षा या परीक्षा के लिए शिक्षा
डा. प्रमोद कुमार चमोली
शिक्षा हो या न हो परीक्षा जरूर हो :
शिक्षा के लिए परीक्षा या परीक्षा के लिए शिक्षा इस उहापोह में फंसी शिक्षा सीखने-सिखाने के मूल उद्देश्य से भटक कर रटने-रटाने को प्रोत्साहित करती है। यहाँ समस्या है कि भारतीय जनमानस में परीक्षा से मोह इतना गहरे पैठ गया है कि शिक्षा के लिए परीक्षा है या परीक्षा के लिए शिक्षा का अन्तर अब समाप्त सा होने लगा है।
परीक्षा का भूत ऐसा दिमागों में छाया है कि हम यह मानने लगे हैं कि स्कूलों में शिक्षा हो या न हो, मगर परीक्षा तो होनी ही चाहिए। पूरे परिदृश्य को देखें तो शिक्षा का पूरा खेल परीक्षा के डर के कारण चल रहा है। विद्यार्थी फेल होने के डर से पढ़ रहें हैं और शिक्षक अपना परीक्षा परिणाम बेहतर दिखाने के लिए पढ़ा रहें हैं और व्यवस्था इन परीक्षाओं के आंकड़ों को सफलता के आंकड़े बताकर अपनी पीठ थपथपवा रही है।
कहाँ से आयी परीक्षा?
विश्व के अधिकतर देशों में जब बर्बरता का युग था, उस समय भी हमारी भारतीय उपमहाद्वीप में सभ्यता अपने शीर्ष पर थी। इसका सबसे बड़ा कारण शिक्षा ही है। कहना गलत नहीं होगा कि आजादी से पूर्व हमारे देश में शिक्षा का बोलबाला था। प्राचीन भारत शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ‘मुक्ति’ की चाह रही है ( सा विद्या या विमुक्तये अर्थात विद्या उसे कहते हैं जो विमुक्त कर दे )। दरअस्ल मुक्त होना भय से मुक्त होना भी था। भारत में औपनिवेशिक शासन से पूर्व की शिक्षा या प्राचीन भारत की शिक्षा बड़ी वैयक्तिक हुआ करती थी।
व्यक्तिगत शिक्षण और व्यक्तिगत मूल्यांकन अर्थात आजकल का तथाकथित बाल केन्द्रित शिक्षण और एक स्वार्थ रहित मूल्यांकन इसके मूल में था।एनसीएफ 2005 के सन्दर्भ में भारत में परीक्षा प्रणाली के लिए बने परीक्षा प्रणाली में सुधार हेतु बने राष्ट्रीय फोकस समूह के आधार-पत्र में उल्लेखित है कि ‘‘ औपनिवेशिक काल में विद्यालयी शिक्षा की रचना नौकरशाही के लिए लिपिक पैदा करने हेतु की गई थी। जो कुछ पढ़ाया जाता था और परीक्षा के उपरांत जो उपाधि दी जाती थी, वह सामान्यतः एक नियत पाठ्यपुस्तक से पढ़े गए संकीर्णता से परिभाषित विषय-वस्तु का अनुपालन और प्रवीणता थी। प्रश्न करने की प्रवृत्ति खतरनाक थी। औपनिवेशक राज्य के लिए जरूरी दक्षताओं के अलावा अन्य दक्षताओं की शिक्षा गैर जरूरी थी।’’ यानी भारत की शिक्षा में परीक्षाओं का चलन अंग्रेज शासन के दौरान बनी सार्वजनिक षिक्षा व्यवस्था में प्रारम्भ हुआ। बहरहाल अंग्रेजो के आगमन के बाद में जरूरतों के बदलने और समाज विकास से आई जटिलताओं से शिक्षा के उद्देश्य भी बदलते गए। अग्रेजो ने यूरोप की औद्योगिक माॅडल पर आधारित षिक्षा को भारत में लागू किया। जिसमें अंग्रेज शासन के अनुकूल भारतीयों को बाबुओं के रूप में तैयार करने का उद्देश्य था।
परीक्षाओ के इन स्वरूपों पर क्या है आयोगों की राय :
1952 में मुदालियर आयोग द्वारा परीक्षाओं के बारे मे उल्लेखित किया था कि ‘‘आज परीक्षाएं पाठ्यचर्या का अनुगमन करती नहीं दिखाई पड़ती।
परीक्षा में उतीर्ण होने को ही छात्र शिक्षा की असली कसोटी मानने लगते हैं। अध्यापक वर्ग भी अपने छात्रों के लिए बाहय परीक्षा को महत्व देते हुए परीक्षा केन्द्रित अध्यापन करने को बाध्य हो जाते हैं।’’ परीक्षा व्यवस्था में सुधार को लेकर मुदालियर आयोग के बाद बने कोठारी आयोग, यशपाल समिति, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986, राममूर्ति समिति, एनसीएफ 2005 व नई शिक्षा नीति में भी चिंता व्यक्त की गई है।
क्या है आज की परीक्षा व्यवस्था की कमियांः :
राष्ट्रीय फोकस समूह के आधार-पत्र में उल्लेखित है कि ‘‘भारत में विद्यालय बोर्ड की परीक्षाएँ इक्कीसवीं सदी के ‘ज्ञान समाज’ और इसके नवाचारी समस्या – समाधान-कर्ताओं की आवश्यकताओं के अत्यंत अनुपयुक्त है।’’ हमारी शिक्षा व्यवस्था में चलने वाली परीक्षा केवल पठित, दस्तावेजित सूचनाओं और तथाकथित समझ एवं ज्ञान को पुनर्लेखन पर जोर देती है। परीक्षा की मूल प्रकृति छात्र की समझ, तर्कशक्ति, कल्पनाशीलता आदि की गहराई का सही मापन नहीं कर पाती है। परीक्षा वस्तुपरक सूचनाओं व उन पर आधारित ज्ञान को ही जांचती है। इस जांच में विद्यार्थी ने विषय के प्रति अपनी समझ बनाई या नहीं इसका मापन नहीं करती। परीक्षा आधारित शिक्षा के कारण विद्यार्थी अपनी सारी उर्जा सवालों, बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर छांटने में लगा देते हैं जिससे सीखना-सिखाना बहुत दूर छूट जाता है।
परीक्षा के अंकों की होड़ के कारण बने सफलता और असफलता के मायने तुलनात्मकता का भयावह रूप प्रदर्शित करते हैं जो वस्तुतः कुंठा का कारण बनता है। परीक्षाओं में अच्छे अंक नहीं ला पाने की निराशा और कुंठा में हर वर्ष होने वाली आत्महत्या की घटनाएं लगातार बढ़ ही रही हैं। परीक्षाओं के दिन विद्यार्थियों और अभिभावकों के लिए खासा तनाव पैदा करते हैं। कुल मिलाकर ये परीक्षाएं जीवन में असहजता निर्मित करती हैं। परीक्षाओं की मानकता भी संदिग्ध रहती है। क्योंकि उतरों की जांच व्यक्तिनिष्ठता होने की संभावना से मना नहीं किया जा सकता। परीक्षा में पूछे गए प्रश्न केवल पुस्तकीय ज्ञान का मूल्यांकन कर पाते है। जीवन के लिए क्या सीखा है इसका मूल्यांकन परीक्षा नही कर पाती है।
परीक्षाओं में विवाद :
अभी पिछले कुछ समय से सार्वजनिक परीक्षाएं संदेह के घेरे में आने लगी है। शिक्षा का उद्देष्य केवल नौकरी प्राप्त करना और अच्छे अंक लाने की होड़ ने परीक्षाओं में भ्रष्टाचार की धमक पूरे देष में दिखाई दे रही है। बड़ी-बड़ी परीक्षा इससे दूर नहीं रह पा रही है। अतः परीक्षाओं में विवाद को देखते हुए परीक्षाओं में सुधार किया जाना व प्रभावी प्रबोधन बहुत अधिक आवश्यक है। इन सब बातों को साथ तमाम आयोगों और नीतियों द्वारा केन्दीकृत परीक्षा की कमियों को उजागर करते हुए उनमें सुधार की सिफारिशों के बाद भी हम परीक्षा व्यवस्था में सुधार तो नही कर पाए। राजस्थान में जिला स्तर पर होने वाली अर्द्धवार्षिक परीक्षा को केन्द्रीकृत रूप से करवाने को आतुर हैं। इसकी समय सारणी और शुल्क संबंधी विवाद अखबारों की सुर्खियों बने हैं। विवाद के बीच यह निकल कर आया है कि विद्याार्थियों से लिया जाने वाल शुल्क पूर्व की जिला स्तरीय परीक्षा समितियों से अधिक होने के कारण विद्यार्थियों पर वित्तीय भार बढ़ा है।
कैसे हो सही मूल्यांकनः
इस सब के बावजूद भी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था में सीखे हूए को मापने का कोई भी तरीका सर्वोत्तम नहीं। हर तरीके में कुछ ना कुछ कमी रह ही जाती है। औपचारिक शिक्षाप्रणाली में यह किस प्रकार किया जाए इस बारे में बहुत असंमजस है। वास्तविक रूप मे तो विद्यार्थी कितना और क्या और कैसे सीख रहा है? इसका सही मूल्यांकन तो पढ़ाने वाला शिक्षक ही कर सकता है। लेकिन इसके लिए एक सर्वमान्य प्रणाली की आवश्यकता है। जो रचनात्मक आकलन करते हुए लगातार विद्यार्थी की प्रगति का मूल्याकन करती रहे। दरअस्ल मूल्यांकन शिक्षा में यह समझने का एक तरीका है कि विद्यार्थी क्या जानते हैं और क्या कर सकते हैं ? हालाँकि, मूल्यांकन को पारंपरिक अर्थों में परीक्षण नहीं होना चाहिए बल्कि, उन्हें छात्रों के शिक्षक अवलोकन या छात्रों के काम के पोर्टफोलियो के माध्यम से किया जा सकता है। रूप चाहे जो भी हो, जब मूल्यांकन अच्छी तरह से डिजाइन किए गए हों और शिक्षण और सीखने की प्रणाली का एक घटक हों जिसमें उच्च-गुणवत्ता वाले निर्देश और सामग्री शामिल हों, तो वे समाधान का हिस्सा होते हैं न कि समस्या का स्रोत।
नई शिक्षा नीति इस ओर एक बार फिर आशा जगाती है। इसके मूल्यांकन के नीति-निर्देषक सिद्वान्तों में उल्लिखित है कि मूल्यांकन नियमित औपचारिक और योग्यता आधारित होना चाहिए साथ ही छात्रों के विकास एवं सीखने को बढ़ावा देने वाला हो। उच्च स्तरीय कौषलों का मूल्यांकन करने वाला भी हो। नई षिक्षा नीति भी योगात्मक आकलन की बजाय रचनात्मक आकलन पर जोर देती नजर आती है। यानी यह भी केन्द्रीय परीक्षा को महत्व नहीं देती। बोर्ड परीक्षाओं को भी माॅडयुलर, वार्षिक या सेमेस्टर परीक्षा लागू करने की बात कहती है। देखना यह है कि व्यवस्था जो परीक्षा की आदि है कितना सुधार कर पाती है। बहरहाल जो भी हो परीक्षा का वर्तमान स्वरूप आनंददायक शिक्षा के रास्ते में सबसे अड़चन है। साथ ही गुणवत्ता पूर्ण षिक्षा की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। लेकिन इतनी बड़ी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था में परीक्षा भले ही एक जरूरी बुराई ही सही, मगर जरूरी है। भारत जैसे देश में जहां शिक्षा एक शिक्षक के पास कहीं पांच कक्षाएं, बच्चों की संख्या पांच कक्षाओं में मानक से बहुत अधिक है। जहां शिक्षकों के लिए अनवरत प्रशिक्षण और उन्नयन के अवसर बहुत कम हैं। वहां परीक्षाएं जरूरी तो हैं पर वह नई शिक्षा नीति की भावनाओं के अनुरूप सहीं मूल्यांकन कर सके इस लिए इस संबंध में गहन बदलाव की आवष्यकता है। तभी परीक्षा का भूत आमजन के दिमाग से उतर सकता है। साथ ही परीक्षा के लिए चलती शिक्षा का स्वरूप बदल कर शिक्षा के लिए परीक्षा हो सकता है।