रंग सिद्धांत..अपना श्रेष्ठ पहल से दें, दूसरों के श्रेष्ठ की रक्षा करें
अभिषेक आचार्य
RNE Bikaner
निर्देशक को तानाशाह बनाने में कलाकारों की बड़ी भूमिका है, यह बात अब वहां बैठे सभी लोगों के समझ में आ गई थी। कलाकारों को अपनी महत्ता भी पता चल गई कि नाटक की पहचान उनसे होनी चाहिए। पोस्टरों पर लेखक व निर्देशक के साथ मुख्य कलाकारों के नाम भी लिखे जाने चाहिए। सभी मंगलजी की इस बात से सहमत थे। तभी तो कोई बोला नहीं मगर मन ही मन तय कर लिया कि वर्तमान स्थितियों को बदलना होगा।
नाटक को चलाने का काम तो अभिनेता ही करता है। दर्शक के सामने वही जाता है। उसका अभिनय दर्शक को प्रभावित करता है और वो प्रसन्न होकर अगला नाटक देखने आता है। फिर श्रेय केवल और केवल निर्देशक को क्यों, कलाकार गौण क्यों ?
यदि कलाकार बुरा अभिनय करेगा, पात्र को जीवंत नहीं कर पायेगा तो विफल तो प्रस्तुति होगी। उस सूरत में फिर विफलता का श्रेय कलाकार को क्यों दिया जाता है, यदि विफलता के लिए वो जिम्मेवार है तो सफलता का भी पाने का उसी का पूरा हक है। सबके मन में इसी तरह के विचार उमड़ घुमड़ रहे थे। इस कारण चुप्पी की अवधि लंबी हो गई।
इस सन्नाटे को मंगलजी ने ही तोड़ा।
क्या हुआ प्रदीप जी। किस सोच में डूब गए हो आप सब लोग। कुछ बोल ही नहीं रहे।
प्रदीपजी ने जवाब दिया।
सर, आपकी बात पर मनन करने लग गए थे। बात तो तार्किक है। दिनेश ठाकुर, शबाना आजमी, परवेश रावल, अमरीश पुरी, नसीर, राज बब्बर, ओम पुरी, मनोहर सिंह, सुरेखा सीकरी, उत्तरा बावरकर, रघुवीर यादव, अनंग देसाई, त्रिपुरारी शर्मा आदि जिन नाटकों में अभिनय करते हैं तो नाटक का प्रचार भी उन्हीं के नाम से किया जाता है। वहां लोग निर्देशक का नाम देखकर नहीं, अभिनेताओं के नाम देखकर नाटक में आते हैं।
सही बात है प्रदीप जी आपकी। ये क्रेज उन कलाकारों ने बनाया तब बना। नाट्य दल व निर्देशक ने भी उसमें योगदान दिया। हम भी अपने शहर में चाहें तो इस तरह का क्रेज बना सकते हैं।
आज बीकानेर में भी विष्णुकांत जी, जगदीश शर्मा जी, चौहान साब, प्रदीप जी, मामाजी, बुलाकी, चांद जी आदि की नाट्य कलाकारों के रूप में एक पहचान है। निर्देशक व नाट्य दल चाहे तो उसे विस्तार देकर इनको स्थापित भी कर सकते हैं। बस, निर्देशक का दिल बड़ा होना जरूरी है। उसमें अहंकार न हो। वो इससे अपने को छोटा न समझे और माने कि एक नाटक का मूल आधार कलाकार ही होता है। साथ ही कलाकार भी उसके महत्त्व को भी नजरअंदाज न करे। उसकी सत्ता की रक्षा करे, उसकी अवहेलना न करे। पुरानी कहावत है, ताली दोनों हाथों से ही बजती है।
सभी इस बात पर मुस्कुराने लगे। तब चौहान साब बोले”निर्देशक के वजूद को कम नहीं किया जाना चाहिए। इस बात का भी ध्यान जरुरी है। क्योंकि वही तो पूरे नाटक की परिकल्पना करता है। अभिनेता का पात्र के लिए चयन भी करता है।”
प्रदीपजी अपने लहजे में बोले, आप निर्देशक हो इसलिए उसका पक्ष ले रहे हो। जब कलाकार में कुछ दम देखता है निर्देशक तभी उसका पात्र के लिए चयन करता है। कमजोर अभिनेता को अच्छा पात्र थोड़े ही दे देता है। कलाकार अपनी प्रतिभा के बूते नाटक का कोई पात्र पाता है, निर्देशक की मेहरबानी से नहीं। नाटक अच्छा तभी होगा जब उसके पात्रों को अभिनीत करने वाले कलाकार अच्छे होंगे। इसमें निर्देशक का क्या लेना – देना।
मेरा कहने का ये मतलब नहीं था।
निर्देशक के रूप में ही आपका मतलब था चौहान साब।
आप गलत समझ रहे हो प्रदीपजी।
सही समझ रहा हूं। आप इस बात को निर्देशक बन के नहीं, कलाकार बनकर सोचो। आप भी पहले कलाकार हो, निर्देशक तो बाद में बने हो।
दोनों की चुहलबाजी व तकरार देखकर सभी मुस्कुरा रहे थे। सबको पता था कि दोनों मित्र हैं और दोनों के बीच इस तरह की तकरार सदा चलती रहती है। सब हमेशा की तरह आज भी उसका आनन्द उठा रहे थे। नया कोई होता तो लगता कि दोनों झगड़ रहे हैं, मगर ये झगड़ा नहीं चुहलबाजी है, यह सबको पता था। इस पर विराम विष्णुकांतजी ने लगाया।
हम बात कलाकार की महत्ता की कर रहे हैं। उस पर ही ज्यादा केंद्रित रहें तो ज्यादा अच्छा होगा। नहीं तो विषय से भटक जायेंगे।
मामाजी जो अभिनेता भी थे और निर्देशक भी, उन्होंने कहा कि एक कलाकार के नाते मैं इन बातों को सही मानता हूं। निर्देशक के रूप में मुझे ये अपनी सत्ता को चुनोती लगती है।
मंगलजी बोले– आप इसको इस रूप में मत लीजिए। निर्देशक की सत्ता कायम रहे, उसकी अवहेलना न हो, ये मैं पहले ही कह चुका हूं। उसकी महत्ती भूमिका से इंकार नहीं। मैं भी तो निर्देशक ही हूं। मेरा और कलाकारों का ध्येय तो नाटक को सफल रूप से मंचित करना है। उसके लिए इन पदों के अहंकार को तो छोड़ना ही पड़ेगा। अहंकार छोड़ेंगे और एक दूसरे के श्रेष्ठ की रक्षा करेंगे। तभी टीम वर्क होगा और हम एक बेहतरीन प्रस्तुति दर्शकों तक लेकर जा सकेंगे। इस बात का विशेष ध्यान रखना होगा।
इस कारण मैं हर दिन टीम के सभी साथियों से ये वाक्य बुलवाने के बाद काम शुरू करता हूं — मैं अपना श्रेष्ठ अपनी पहल से दूंगा और दूसरे के श्रेष्ठ की रक्षा करूंगा।
इस वाक्य को सुनकर सभी चकित थे और इसे आत्मसात करने में लग गये। मंगलजी ने कहा कि ये सूक्त वाक्य केवल नाटक ही नहीं जीवन के लिए भी उपयोगी है। जीवन मे भी इसका उपयोग करना चाहिए। इससे हमें मित्र मिलेंगे और दुश्मन समाप्त हो जायेंगे। इस युग की यही तो सबसे बड़ी कमी है कि लोग दूसरे के श्रेष्ठ की रक्षा ही नहीं करते। उसके श्रेष्ठ को खारिज करने की कोशिश करते हैं। हम रंगकर्मियों को तो रंगमंच और जीवन के लिए यही आदर्श वाक्य बनाना चाहिए।
इस नए विचार से सभी सहमत दिखे और हां में सिर हिलाया। सबको लगा कि नाटक के लिए तो एक आदर्श स्थिति का भान हुआ ही है अपितु जीवन के लिए भी एक बड़ी बात को सीखने का अवसर मिला है। नई बात जान सभी के चेहरे खिलखिला उठे।
वर्जन
प्रदीप भटनागर
ये सच है कि अपना श्रेष्ठ खुद की पहल से बिना मांगे देने वाला कलाकार ही लंबी यात्रा करता है। साथ ही सहयोगी रंगकर्मी के श्रेष्ठ की वो रक्षा करता रहेगा तो एक बेहतर टीम भावना विकसित होगी और उससे प्रस्तुति सफल होगी। हर प्रस्तुति इस सिद्धांत से प्रगति का मार्ग खोलती रहेगी। हमें कलाकार की महत्ता को तो बढ़ाना है मगर निर्देशक की सत्ता की भी रक्षा करनी है। अफसोस है कि आज के रंगकर्मी अपना श्रेष्ठ भी पहल से नहीं देते, दूसरे के श्रेष्ठ की तो परवाह भी नहीं करते। तभी तो आजकल टीम वर्क कमजोर दिखता है और उसका असर प्रस्तुति पर भी साफ दिखता है।