उधार मांगकर घी पीने का सुख : घी से कॉलेस्ट्रोल बढ़ने की थ्योरी के पीछे “वनस्पति वालों” की साजिश!
जब से डाक्टरों ने यह घोषणा की है कि एक खास उम्र के बाद घी खाना ‘कोलेस्ट्रॉल’ बढ़ाकर हृदय रोग को निमंत्रण देना है तभी से भोजन-भट्ट और देशी घी प्रेमिजन सहमे और डरे हुए हैं। वैसे इस प्रकार की घोषणा से डरना स्वाभाविक भी है क्योंकि ‘जान है तो जहान है।’ माना कि घी खाने में स्वादिष्ट और उत्तम पदार्थ है, देवता तक यज्ञ में घी की माँग करते हैं किन्तु यह प्राणों से बढ़कर तो नहीं। अतः मैं सोचने के लिए विवश हो गया कि क्या घी खाना वास्तव में हृदय को कमजोर करना है ?
इतिहास बतलाता है कि हमारे देश में धनवन्तरि जैसे महान् चिकित्सक हुए हैं। उन्होंने तो कहीं भी यह नहीं कहा ‘कि घी नहीं खाना चाहिए।’ सुश्रुत, चरक
आदि ने भी कहीं घी खाने पर प्रतिबंध नहीं लगाया। चार्वाक जैसे महामुनि ने तो हमारा मार्ग-दर्शन यहाँ तक किया है कि उधार लेकर भी घी पीओ। ‘ऋणं कृत्वा
घृतं पीवेत’ उनका अमर सन्देश आज हम ‘ उधारियों’ के हौसले बुलन्द करता है।
‘गहरे पानी पैठने’ से ही मोती मिल सकते हैं। मैंने भी इस दिशा में चिन्तन और मनन किया तो पाया कि हो न हो इसमें वनस्पति तेल या घी बनाने वालों की कोई साजिश है। ज्यों-ज्यों वनस्पति तेलों का प्रचलन बढ़ता गया उन्होंने निजी लाभ कमाने हेतु देशी घी को बदनाम करना शुरू कर दिया। विज्ञापन जगत के सामने बेचारे देशी घी की चमक इतनी फीकी पड़ गई कि उसका स्वाद भी बेस्वाद लगने लगा। आज के युग में विज्ञापन कला अल्प समय में ही किसको गिरादे और किसको उठादे, यह कहा नहीं जा सकता। विज्ञापन की सहायता से ‘पंगु’ गिरि पर चढ़ सकता है और ‘अन्धे’ को दिखलाई पड़ सकता है। घटिया, गुणहीन एवं महत्त्वहीन पदार्थ विज्ञापनों के माध्यम से हमारी सबसे बड़ी आवश्यकता बन सकता है, यह इस नवयुग की हमें विशेष देन है। कहा जाता है कि कभी हमारे देश में ‘घी और दूध की नदियाँ’ बहा करती थीं।
इसे अतिशयोक्ति कह लीजिए किन्तु तब तो किसी का ‘कोलेस्ट्रॉल’ नहीं बढ़ता था। अस्सी प्रतिशत् गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाली जनता का यदि घी खाने से (मिले तो) ‘कोलेस्ट्रॉल’ बढ़ता है तो चिन्ता की क्या बात है ? मैं अपने पड़ौसी पं. राम बहादुर शास्त्री को देखकर हैरान हूँ। वे सत्तर साल के हैं किन्तु अब भी श्राद्ध के दिनों में यजमानों के निमन्त्रण पर श्रद्धा पूर्वक जाते हैं। एक बार बीमार पड़े तो डाक्टरों ने कह दिया कि घी खाना छोड़ दें। उन्होने जवाब दिया कि घी खाते यदि मौत आती है तो ‘रूखी-सूखी’ खाते हुए मरने से सौ दर्जा बेहतर है। पशु रोज घास खाते हैं। क्या वे मरते नहीं। क्या मैं घी के स्थान पर घास खाना शुरू कर दूँ ताकि ‘कोलेस्ट्रॉल’ न बढ़े ! डाक्टर चुप !
आखिर क्या कहें उनके इस तर्क के सामने !
अब तक तो हमने घी खाने की बातें कीं। अब मैं उधार लेकर घी खाने के सुख का वर्णन करूँगा। हालांकि इस तथ्य को डॉक्टरों ने अपनी कसौटी पर परखा नहीं है किन्तु मैं यह बात दावे के साथ कह सकता हूँ कि उधार लेकर घी खाने से ‘कोलेस्ट्रॉल’ बढ़ ही नहीं सकता। ‘कोलेस्ट्रॉल’ निकम्मे और खाली बैठे लोगों का बढ़ता है जबकि उधार माँगने वाला तो पुरुषार्थी एवं कर्मठ व्यक्ति होता है। वह उधार प्राप्त करने के लिए न जाने कितनी मानसिक और शारीरिक तिकड़में भिड़ाता है। उधार न चुकाने के लिए कैसे-कैसे उपयुक्त बहानों की तलाश में निरन्तर जुटा रहता है। ऋण लौटाने से बचने के लिए वह हमेशा ‘चूहा-बिल्ली’ दौड़ की भांति क्रियाशील रहता है। कहने का आशय हुआ कि उधार लेने वाला व्यक्ति तन और मन से चुस्त-दुरुस्त रहता है। उधार माँगना एक उच्चकोटि की कला है। इस कला को चाहे चौंसठ कलाओं में स्थान न मिला हो किन्तु उधार माँगने वाला व्यक्ति वाचिक और आंगिक अभिनय में बड़ा कुशल होता है। वह अपनी वाणी को इतना दीन बना लेता है कि पाँच रूपए देने वाला व्यक्ति भी
स्वयं को उसका बाप समझने लगता है जबकि होता इसके विपरीत है।
आंगिक अभिनय में तो उधार माँगने वाले के समक्ष बड़े-बड़े अभिनेता मात खा जाते हैं। माँगने के मामले में हमारी भारत सरकार के प्रतिनिधि भी उच्चकोटि के कलाकार हैं। भारत ने अमीर देशों से इतना ऋण ले रखा है कि यहाँ बच्चा पैदा होते ही हजारों रूपयों का ऋणी हो जाता है। इसलिए हमारी यही कोशिश और फर्ज है कि हम जल्द से जल्द अधिक बच्चे पैदा कर प्रत्येक व्यक्ति पर ऋण की औसत मात्रा कम करें। वैसे इस दिशा में प्रत्येक भारतीय कर्तव्यरत है। यह हमारे लिए प्रसन्नता की बात है कि हम सब एक ही दिशा में एक साथ बढ़ रहे हैं। इससे हमारी राष्ट्रीय एकता का अधार मजबूत होगा। मनुष्य सब प्राणियों में श्रेष्ठ है और हम अन्य
उत्पादनों में चाहे पिछड़े हों पर ‘श्रेष्ठ उत्पादन’ में दुनिया में हम प्रथम हैं। इस बात पर हमें गौरव है। हमारा भारत महान है।
मैं तो उधार लेना बिलकुल बुरा नहीं मानता मेरी दृष्टि में उधार लेने वाला व्यक्ति उधार न लेने वाले व्यक्ति की अपेक्षा अधिक मिलनसार एवं सामाजिक होता है। वह प्रत्येक
व्यक्ति से बनाकर रखता है। क्योंकि न जाने कब किससे जरूरत पड़ जाए ? इस प्रकार ‘वसुधैव कुटुम्बकं’ का सही मानों में आचरण एक उधार लेने वाला व्यक्ति ही कर सकता है। इसलिए सब लोगों को उधार लेने का प्रयत्न करते रहना चाहिए ताकि पारस्परिक सौहार्द में वृद्धि हो।
उधार लेकर घी खाने के शारीरिक और मानसिक फायदों के साथ-साथ कुछ दूसरे फायदे भी हैं। मसलन उधार खाए व्यक्ति के लिए सब ऋण-दाता भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि वह ‘दीर्घायु’ हो ताकि उनका ऋण चुका सके ! भले लोगों की दुआ भला भगवान क्यों नहीं मानता होगा। उधार लेने वाला हमेशा चौकस रहता है (जो जीवन में सबसे जरूरी है।) क्योंकि उसे सदा भय बना रहता है कि न जाने कौन, कब उसे किस मोड़ पर दबोच ले अतः वह फूंक -फूंक कर कदम रखता है। उधार लेने वाले के बच्चे भी बड़े चुस्त और होशियार हो जाते हैं। वास्तविक अर्थों में वह जीवन के एक-एक पल को जीता है। उधार लेने वाला व्यक्ति हरदम एक ही चिन्तन करता है कि अगली बार वह किस नए शिकार को किस नए बहाने से फंसाए। उसका यह एकाग्र चिन्तन ‘ब्रह्म-चिन्तन’ का सहोदर तो कहा ही जा सकता है।
इस प्रकार उधार लेकर घी पीने के अनेक लाभ हैं। चार्वाक ने जो जीवन-दर्शन दिया उसे कसौटी पर कसकर ही दिया था। सैंकड़ो-ं हजारों वर्षों के बीत जाने के बाद भी वह दर्शन आज यदि जीवित है तो इसका यही तात्पर्य है कि उसमें ‘जीवनी-शक्ति’ है। अतः मैं तो यही कहँूगा कि मनुष्य को अन्तिम क्षण तक चार्वाक के इस ‘मंत्र’ का पालन करना चाहिए कि ‘यावद् जीवेत, सुखेन जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत।’ क्योंकि इसी से ‘जीवेत शरद शतम्’ के मंत्र को फलीभूत किया जा सकता है।
मंगत बादल ,शास्त्री कॉलोनी,रायसिंहनगर-335051 मो 94149 89707